आज़ादी की पूर्व बेला में आगे बढ़ता मज़दूर आन्दोलन

आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें – 8

दूसरे विश्व युद्ध की महाविपदा का दौर समाप्त होने के साथ देश एक तरफ विभाजन की बड़ी त्रासदी की ओर बढ़ रहा था, पूरा देश दंगों की आग में झुलस रहा था, तो दूसरी तरफ देश का मेहनतकश आवाम अपने संघर्षों को आगे बढ़ा रहा था। यह दौर युद्ध, अकाल, छँटनी का दौर था जिसने संघर्षों के नए उभार को पैदा किया। एक तरफ औद्योगिक व डाक-तार मज़दूरों के आन्दोलनों ने संघर्षों को नई ऊँचाई दी। दूसरी ओर नेवी विद्रोह ने एक नई मशाल जलाई. . . श्रृंखला की अगली कड़ी. . .

धरावाहिक आठवीं किस्त

ऐतिहासिक त्रासदी और मज़दूर आन्दोलन

अब टूट गिरेगी जंजीरें, अब ज़िंदानों की खै़र नहीं !

भयानक विपदा और तबाही के बाद विश्व युद्ध समाप्त हो चुका था। पूरा यूरोप – चाहें विजेता ब्रिटेन, फ्रांस हों या पराजित इटली, जर्मनी – लस्त-पस्त पड़ा था। जापान के हिरोशिमा और नागाशाकी पर अमेरिका द्वारा परमाणु बम की विनाशलीला से मानव सभ्यता कराह रही थी। अमेरिका दुनिया का नया चैधरी बनकर उभरा, तो इस महाविपदा से बाहर निकालने में मजदूर वर्ग की प्रतिबद्धता सोवियत संघ के नेतृत्व में बलवती हुई और कई देशों में मजदूर राज कायम होने लगा था। जिसका असर भारत के मजदूर आंदोलन पर भी पड़ा।

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भारत के मज़दूर आंदोलन में 1945-47 का दौर नये संकट का दौर था। आम जनता में आज़ादी पाने की भावना हिलोरें ले रही थीं, जबकि अपने अंतिम दिन गिन रहे अंग्रेज नयी साजिशों में संलग्न थे। देश बंटवारे की महाविपदा की ओर बढ़ रहा था और साम्प्रदायिकता की चिन्गारी में सुलग रही थी।

युद्ध, अकाल, छँटनी का दौर और संघर्षों का नया उभार

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद देशव्यापी राजनीतिक जन-उभार के साथ मज़दूरों के आर्थिक संघर्षों ने भी जोर पकड़ा। यह वह दौर था जब देश की जनता बड़े अकाल से पीड़ित थी और रोजमर्रा की चीजें भी मिलना दुश्वार हो गयी थीं। उधर युद्ध खत्म होते ही तमाम कल-कारखाने बन्द होने लगे, जिससे भारी संख्या में मज़दूरों की छँटनी शुरू हुई। फलतः मज़दूर संघर्षों ने भी जोर पकड़ा। ‘हर जोर जुल्म की टक्कर में, हड़ताल हमारा नारा है’ बुलन्द हुआ। इन्हीं स्थितियों में एटक नें छँटनी पर रोक लगाने, महँगाई भत्तों का मूल वेतन में विलय, न्यूनतम वेतन घोषित करने, आठ घण्टे कार्य दिवस, स्वास्थ्य बीमा योजना, वृद्धा पेंशन, बेरोजगारी भत्ता सहित तमाम सामाजिक सुरक्षा की माँग उठाई।

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सन् 1945 के अन्त तक देश के लगभग सभी उद्योगों के मज़दूर संघर्ष की राह पर थे। महज इस वर्ष 850 मज़दूर हड़तालें हुईं, जिनमें आठ लाख से ज्यादा मज़दूरों ने भागेदारी निभाई। इनमें तमाम हड़तालों ने राजनीतिक हड़ताल का रूप ले लिया। इसी के साथ दमन भी तेज हुआ। बनारस में 17 आन्दोलनकारी मारे गये और 2000 से ज्यादा गिरफ्तार हुए। मुम्बई की हड़तालों में बर्तानवी शासकों ने साम्प्रदायिक हंगामों का सहारा लिया।

फिर भी मज़दूर आन्दोलन आगे बढ़ता गया, जिसने 1946-47 में उग्र रूप धारण कर लिया। रेल मज़दूरों की हड़ताल, कानपुर के कपड़ा व चमड़ा उद्योगों की हड़तालों से लेकर गिरिडीह के कोयलरी मज़दूरों, कोलार सेना खान के मज़दूरों, बंगाल के गोदी मज़दूरों, कोलकता के निगम कर्मियों, चेन्नई के राज्य कर्मियों, गुजरात के कपड़ा मिल व मध्य प्रदेश के सभी उद्योगों से लेकर नागपुर के कपड़ा मिल मज़दूरों तक की हड़तालों से पूरे देश में संघर्षों की नयी बयार बह रही थी।

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1946 के साल के महज 9 महीने में 1,466 हड़तालें तो दस्तावेजों में दर्ज हैं। इस पूरे साल के दौरान 19 लाख, 62 हजार मज़दूरों ने हड़तालों में भागेदारी निभाई।

नौ सेना का ऐतिहासिक विद्रोह

द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण नौसेना का विस्तार किये जाने के फलस्वरूप देश के हर कोने से इसमें जवान भरती हुए थे। औपनिवेशिक गुलामी, गैर-बराबरी और नस्ली भेदभाव चरम पर था। ऐसे में नौ सैनिकों में बग़ावत की चिंगारी सुलग रही थी।

संघर्ष की शुरुआत 18 फरवरी को घटिया भोजन, भेदभाव और नस्ली अपमान के विरोध में नाविकों द्वारा की गयी भूख हड़ताल के रूप में हुई। उनकी माँगे बेहतर भोजन तथा अंग्रेज और भारतीय नाविकों के लिए समान वेतन की थीं। साथ ही, आजाद हिन्द फौज के सैनिकों व अन्य राजनीतिक कैदियों की रिहाई तथा इण्डोनेशिया से सैनिकों को वापस बुलाये जाने की राजनीतिक माँगे भी थीं।

ये नाविक सिगनल्स प्रशिक्षण प्रतिष्ठान ‘तलवार’ के नाविक थे। 19 फरवरी को हड़ताल कैसल और फोर्ट बैरकों सहित बम्बई बन्दरगाह के 22 समुद्री जहाजों में फैल गयी थी। अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति को धता बताते हुए समुद्री बेड़े के मस्तूलों पर तिरंगे, चाँद और हसिये-हथौड़े वाले झण्डे एकसाथ लहराते दिखे। नाविकों ने जल्द ही चुनाव के माध्यम से एक नौसेना केन्द्रीय हड़ताल समिति का गठन किया जिसके प्रमुख एम.एस. ख़ान थे।

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तमाम दबावों के बीच 20 फरवरी को नौसैनिकों ने अपने-अपने जहाज पर लौट जाने के आदेश का पालन किया। वहाँ पर सेना के गार्डों ने उन्हें घेर लिया। 21 फरवरी को जब कैसल बैरकों में नौसैनिकों ने घेरा तोड़ने का प्रयास किया तो लड़ाई छिड़ गयी। पर्याप्त गोला-बारूद जहाज से मिल ही रहा था। एडमिरल गॉडफ्रे द्वारा नौसेना को विमान भेजकर नष्ट करने की धमकी दी गयी।

नौ सैनिकों को मिला आम जनता का साथ

दोपहर बाद जनता की भारी भीड़ नौसैनिकों से स्नेह और एकता को प्रदर्शित करते हुए गेटवे ऑफ इण्डिया पर जुट गयी। इनमें बड़ी संख्या में गोदी मज़दूर, नागरिक और दुकानदार शामिल थे। उनके पास नौसैनिकों के लिए भोजन भी था।

22 फरवरी तक हड़ताल देश भर के नौसेना केन्द्रों और समुद्र में खड़े जहाजों तक फैल गयी। इस वक़्त तक हड़ताल में 78 जहाज और 20 तटीय प्रतिष्ठान शामिल थे। लगभग 20,000 नाविकों ने इन कार्रवाइयों में हिस्सेदारी की। आन्दोलन के समर्थन में आए हिन्दू-मुसलमान मेहनतकश मज़दूरों, विद्यार्थियों और नागरिकों की पुलिस व सेना के साथ हिंसक झडपें हुईं।

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22 फरवरी को नाविकों के समर्थन में 3 लाख मज़दूर काम पर नहीं गये। सड़कों पर बैरिकेड खड़े करके जनता ने पुलिस और सेना से लोहा लिया। ”कानून व्यवस्था को बहाल करने“ के नाम पर अलग से दो सैनिक टुकड़ियाँ लगानी पड़ीं। सरकारी आकलन के मुताबिक ही 228 लोग मारे गए और 1,046 घायल हुए। जबकि वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक है।

विद्रोह की समाप्ति 23 फरवरी को नाविकों द्वारा समर्पण करने के रूप में हुई। सरदार पटेल ने जिन्ना की मदद से अंग्रेजों और नाविकों का बिचैलिया बनते हुए उनसे सर्मपण करवाया। आश्वासन दिया गया कि उन्हें अंग्रेजी अन्याय का शिकार नहीं होने दिया जायेगा। लेकिन ये आश्वासन ही रहा।

राष्ट्रीय नेताओं के सैनिक विरोधी बयान

सरदार पटेल ने 1 मार्च 1946 को एक कांग्रेसी नेता को लिखा, ‘‘सेना में अनुशासन को छोड़ा नहीं जा सकता… स्वतन्त्र भारत में भी हमें सेना की आवश्यकता होगी। जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि ‘‘हिंसा के उछश्रृंखल आवेग को रोकने की आवश्यकता है।’’ गाँधी जी ने ‘बुरा और अशोभनीय’ उदाहरण कायम करने के लिए नौसैनिकों की निन्दा की व ‘‘शिक्षा’’ दी कि यदि नाविकों को कोई शिक़ायत है, तो वे चुपचाप नौकरी छोड़ सकते हैं। गाँधी जी ने यह भी कहा कि ‘‘हिंसात्मक कार्रवाईयों के लिए हिन्दुओं और मुसलमानों का एक होना एक अपवित्र बात है…।’’ 30 मई, 1946 को अंग्रेज वायसराय वेवेल ने अपनी निजी टिप्पणी में लिखा था, ‘‘ हमें हर क़ीमत पर हिन्दुओं और मुसलमानों से एकसाथ उलझने से बचना चाहिए।’’

जबकि नौसेना की केन्द्रीय हड़ताल समिति का अन्तिम सन्देश था- ‘‘हमारी हड़ताल हमारे राष्ट्र के जीवन की एक ऐतिहासिक घटना रही है। पहली बार सेना के जवानों और आम आदमी का ख़ून सड़कों पर एकसाथ, एक लक्ष्य के लिए बहा। हम फौजी इसे कभी नहीं भूलेंगे। हम यह भी जानते हैं कि हमारे भाई-बहन भी इसे नहीं भूलेंगे। हमारी महान जनता ज़िन्दाबाद! जयहिन्द!’’

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डाक-तार मज़दूरों की महत्वपूर्ण हड़ताल

आज़ादी के पूर्व सबसे अहम हड़ताल भारत सरकार के डाक-तार विभाग के मज़दूरों-कर्मचारियों की जुलाई 1946 की अनिश्चितकालीन हड़ताल थी। वी.जी. डालवी के नेतृत्व में पोस्टमैन लोवर ग्रेड स्टाफ यूनियन ने वेतनमान पुनर्रिक्षण सहित 16 सूत्रीय माँग को लेकर 11 जुलाई, 1946 से हड़ताल की नोटिस दे दी। डाक-तार महानिदेशक ने विवाद को पंच निर्णय में संदर्भित कर दिया, जिसका यूनियन ने विरोध किया।

डाक-तार की अन्य यूनियनों के फेडरेशन ने चमनलाल के नेतृत्व में हड़ताल का खुला विरोध किया। लेकिन मज़दूरों-कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी। देखते ही देखते यह डाक-तार कर्मियों की देशव्यापी हड़ताल बन गयी। भारत की संघर्षशील जनता ने भी इसका समर्थन किया। अब आन्दोलन आर्थिक के साथ, एक हद तक, साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन बन गया। समर्थन में वामपंथी पार्टियां, तमाम ट्रेड यूनियनें, छात्र-युवा व जन संगठन भी इसके भागीदार बने, लेकिन कांग्रेस के तमाम नेताओं ने चुप्पी साध ली।
अन्ततः 12 माँगों पर समझौते व ‘गुड कण्डक्ट पे’ के तहत एक करोड़ रुपए डाक-तार कर्मियों के लिए स्वीकृति के साथ एक सफल हड़ताल समाप्त हुई।

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कोलकता में आयोजित विशाल रैली में घोषणा हुई कि ‘यह रैली दृढ़ विश्वास करती है कि इस ऐतिहासिक आम हड़ताल ने देश के मज़दूर आन्दोलन में एकता और संघर्षशील चेतना का नया अध्याय शुरू किया है।

मिलती आज़ादी के बीच टूटते सपने और मज़दूरों-किसानों के संघर्ष. . . असल में क्या हुआ. . . आगे देखें. . .

(क्रमशः जारी. . .)

मज़दूर इतिहास की पिछली कड़ियाँ-

पहली क़िस्त– आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें!

दूसरी क़िस्त – जब अमानवीयता की हदें भी पार हुईं

तीसरी क़िस्त– मज़दूर इतिहास : मजदूरों ने ली शुरुआती अंगडाई

चौथी क़िस्त– इतिहास में यूँ विकसित हुईं यूनियनें

पाँचवीं क़िस्त– इतिहास: दमन के बीच संघर्षों का आगे बढ़ता दौर

छठीं क़िस्त– आओ जब मज़दूर आन्दोलन इंक़लाबी तेवर लेने लगा

सातवीं क़िस्त– मंदी व विश्वयुद्ध से जूझकर आगे बढ़ता मेहनतकश

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