इतिहास: दमन के बीच संघर्षों का आगे बढ़ता दौर

आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें – 5

कारखानों के विकास से सामूहिक उत्पादन की प्रणाली आयी, जिसने सामूहिकता पैदा की व साझे दर्द को साझे तौर पर उठाने की हिम्मत और जज्बा पैदा किया…। दमन, शोषण संघर्षों को जन्म देते हैं। 19वीं शताब्दी के अंतिम दौर में अनुभवहीन मज़दूरों ने अपने संघर्षों से सीखते हुए आन्दोलन को आगे बढ़ाया… आगे पढ़ें संघर्षों की गाथा…।

धरावाहिक पाँचवीं किस्त

पहली क़िस्त– आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें!

दूसरी क़िस्त – जब अमानवीयता की हदें भी पार हुईं

तीसरी क़िस्त– मज़दूर इतिहास : मजदूरों ने ली शुरुआती अंगडाई

चौथी क़िस्तइतिहास में यूँ विकसित हुईं यूनियनें

औद्योगिक मज़दूरों नें ली अंगड़ाई

कोलकाता के केसोराम मिल मजदूरों की हड़ताल का दृश्य

इसलिए राह संघर्ष की हम चुनें
ज़िन्दगी आंसुओं में नहाई न हो !

‘‘आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम और आठ घण्टे मनोरंजन’’ का नारा 1886 में शिकागो के मज़दूरों ने बुलन्द की थी, जहाँ से मई दिवस की परम्परा पैदा हुई। लेकिन हमारे मुल्क में आठ घण्टे कार्यदिवस की माँग अप्रैल-मई 1862 में रेलवे के मज़दूरों ने उठाई थी। यह देश के औद्योगिक मज़दूरों की पहली हड़ताल थी। इसमें 1200 रेल मज़दूरों ने हावड़ा में प्रदर्शन किया था।

फिर तो देश के संगठित मज़दूर संघर्षों का दौर – कभी तेज तो कभी धीमी रफ्तार से – आगे ही बढ़ता गया। इस कड़ी में सन् 1877 में मज़दूरी के सवाल पर नागपुर एक्सप्रेस के बुनकरों की बड़ी हड़ताल और 1895 में बजबज जूट मिल मज़दूरों की बड़ी हड़ताल गौरतलब है। 1882 से 1890 के बीच मुम्बई और मद्रास (चेन्नई) के विभिन्न कारखानों में 25 महत्वपूर्ण हड़तालें हुईं।

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20वीं सदी की शुरुआत में आन्दोलनों का विस्तार

20वीं शताब्दी आते-आते मज़दूर आन्दोलनों ने और जोर पकड़ा। सन् 1903 में मद्रास गवर्नमेण्ट प्रेस के मज़दूरों द्वारा ओवरटाइम के भुगतान को लेकर 6 माह की लम्बी हड़ताल चली। 1905 तक बिजली से मिलें चलने के साथ ही मालिकों ने काम के घण्टे बढ़ा दिये। मज़दूरों ने इसका विरोध करना शुरू किया। इसे लेकर मुम्बई में जुझारू प्रदर्शनों के साथ कई हड़तालें हुईं।

“बंबई मिल मज़दूरों के आन्दोलन ने कल शाम (8 अक्टूबर) एक गंभीर रूप धारण कर लिया। करीब तीन हजार मिल मज़दूरों ने डिलेसन रोड़-परेल पर अनेक मिलों के सामने उग्र प्रदर्शन हुए। इस अशांति के लिए ज़िम्मेदार मज़दूरों की भीड़ ने सूर्यास्त के बाद न सिर्फ बिजली की रौशनी में काम करने से इन्कार किया बल्कि उन मज़दूरों को भी काम करने से रोकने में सफल हो गये जो गोधुली (शाम) के बाद काम करना चाहते थे।…” (अमृत बाजार पत्रिका में छपी रिपोर्ट)

संघर्षों के इस दौर में गवर्नमेण्ट ऑफ़ इण्डिया प्रेस, कोलकता के मज़दूरों की हड़ताल भी उल्लेखनीय है। जहाँ हड़ताल के दौरान उन्होंने न केवल अपनी यूनियन बनाई, अपितु उनके आन्दोलन में बंगाल सेक्रेट्रीएट के मज़दूर भी शामिल हुए। इसी वर्ष क्लाइब जूट मिल के मज़दूरों ने भी अपनी हड़ताल के दौरान यूनियन गठित की। मुंबई के डाकियों की वेतन बढ़ाने की माँग के साथ हड़ताल (1906) हो या फिर अहमदाबाद के मज़दूरों के तमाम आन्दोलन, मज़दूर संघर्षों के आगे बढ़ने की ही कहानी बयां करते हैं।

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सरकारी दमन के बावजूद तेज हुईं रेल मज़दूरों की हड़तालें

railways workers strike in british india के लिए इमेज परिणाम

वर्ष 1907 में रेल मज़दूरों ने कई हड़ताल किये। इनमें 1 मई 1907 को मुंबई में प्रबन्धन की दमनकारी नीतियों के खि़लाफ रेलवे वर्कशाप के तीन हजार मज़दूरों का काम बन्द आन्दोलन काफी अहम है, क्योंकि कुछ रियायतें हासिल करने में वे कामयाब हुए थे। इसी वर्ष ईस्ट इण्डिया रेलवे के मज़दूरों ने बड़ी हड़ताल संगठित की, जो आसनसोल से शुरू होकर इलाहाबाद, टुंडला तक फैल गयी। गार्ड व ड्राइबरों की इस हड़ताल से रेल का चक्का जाम हो गया।

सरकारी दमन तेज हो गया तो आन्दोलन और विस्तारित होकर बंगाल-नागपुर अंचल तक फैल गया। ‘यह ब्रिटश शासन को बड़ा झटका था, ऐसा झटका जिसने पराक्रमी की नींव खोखली कर दी।’ जीत के साथ हड़ताल समाप्त हुई।

इस वर्ष के अन्त में ईस्ट बंगाल रेलवे के इंजन चालकों, फायरमैन और ब्रेकमैन ने उच्च वेतनमान के लिए हड़ताल की जो भारी दमन के बाद असफल रही। 600 रेल कर्मियों को नौकरी गंवानी पड़ी। लेकिन कुछ ही समय बाद रेलवे वर्कशाप के आठ हजार मज़दूरों की हड़ताल ने आंसिक जीत हासिल की।

लगातार बढ़ते इन आन्दोलनों ने हुक्मरानों को विवश किया और उन्होंने मज़दूर स्थितियों की जाँच-पड़ताल के लिए कई कमीशनें गठित कीं। इनमें ‘टेक्सटाइल फैक्ट्री लेबर कमेटी’ तथा ‘फैक्ट्री लेबर कमीशन’ महत्वपूर्ण हैं, जिन्होंने कई सिफारिशें पेश कीं। बाद में 1912 के फैक्ट्री ऐक्ट का यही आधार बना।

तिलक की गिरफ्तारी और मज़दूरों की पहली राजनीतिक हड़ताल

कोर्ट में तिलक

बात सन् 1908 की है। देश के प्रखर राष्ट्रवादी नेता बालगंगाधर तिलक को 24 जून 1908 में गिरफ्तार कर उनपर फर्जी मुकदमा चलाया गया और 22 जुलाई 1908 को 6 साल की सजा दे दी गयी। मुम्बई और देश के मज़दूरों ने गिरफ्तारी के समय से ही इसका जबर्दश्त विरोध किया और सजा मिलने पर पहली बार देश के मज़दूर राजनीतिक हड़ताल पर उतर पड़े।

29 जून को तिलक को जब अदालत लाया गया तो वहाँ मौजूद हजारों मेहनतकश जनता के साथ पुलिस का जबर्दश्त मुठभेड़ हुआ। आन्दोलन यहाँ से आगे बढ़ता गया। 17 जुलाई को संघर्ष ने तब व्यापक रूप ले लिया जब मुम्बई के कई मिलों के मज़दूर काम बन्द करके प्रदर्शन में शामिल हो गये। लगभग बीस हजार मज़दूरों ने मुम्बई के औद्योगिक क्षेत्र में जुलूस निकाला। 18 जुलाई को पुलिस गोलीकाण्ड के बावजूद 19 जुलाई को यह और फैल गया। लगभग 60 मिलों के 65 हजार मज़दूर शामिल हो गये।

20 जुलाई को पुनः गोलीकाण्ड के बाद यह आन्दोलन औद्योगिक मज़दूरों के साथ मेहनतकशों के दूसरे तबके तक फैल गया। अब एक हजार गोदी मज़दूरों के साथ छोटे व्यवसाई व दूसरे ग़रीब मजूर भी शामिल हो गये। बौखलाए गोरे शासकों ने पाँच मज़दूरों को गिरफ्तार करके आनन-फानन में सजा दे दी। लेकिन मज़दूरों का कारवां थमने वाला नहीं था।

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6 साल की सजा के लिए 6 दिन की हड़ताल

22 जुलाई को आँधी-तूफान भरे मौसम में जब तिलक को 6 साल की सजा दी गयी तो मज़दूर डंटे रहे। फिर शुरू हुआ 23 से 28 जुलाई का 6 साल की सजा के लिए 6 दिन का मज़दूरों का पहला व्यापक राजनीतिक हड़ताल। इस दिन एक लाख मज़दूरों ने हड़ताल में भागेदारी निभाई। 24 जुलाई को मज़दूरों की हथियारबंद पुलिस और सेना से मुठभेड़ हुई। दमन के बावजूद जुलूस-प्रदर्शन और हडताल का यह सिलसिलला आगे बढ़ता रहा और व्यापक रूप लेता रहा।

हड़ताल के अन्तिम दिन, 28 जुलाई को अन्य तबकों के साथ घरेलू कामगारों का तबका भी इसमें शामिल हो गया। लगभग दो सौ मज़दूरों का बलिदान, सौकड़ों के घायल और गिरफ्तारी के बावजूद मज़दूरों की यह पहली राजनीतिक हड़ताल सफलता पूर्वक सम्पन्न हुई। सबसे बड़ी बात यह थी कि इस हड़ताल में सभी तबकों और मज़हब के लोगों ने भागेदारी निभाई।

रूस में मज़दूर वर्ग की क्रान्ति और
भारत में मज़दूर आन्दोलना का नया दौर

वर्ष 1917 में जब पूरी दुनिया का आवाम विश्व युद्ध की चपेट में भयानक त्रासदी झेल रहा था, तब सोवियत रूस के मज़दूरों ने क्रान्ति की और दुनिया में पहले मज़दूर राज्य की स्थापना हुई। इससे पूरी दुनिया के मज़दूरों में एक नये जोश का संचार हुआ। शोषण व दमन की चक्की में पिस रहे भारतीय मज़दूर भी नये उत्साह से लबरेज हुए। मज़दूर आन्दोलन व्यापक जनाधार हासिल करते हुए आगे बढ़ने लगा।

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रौलेट ऐक्ट, जालियांवाला नरसंहार और मज़दूर आन्दोलन

इस वक्त साम्राज्यवादी दुनिया में गम्भीर आर्थिक संकट पनप रहा था। बर्तानवी हुकूमत युद्ध का बोझ भारत जैसे गुलाम मुल्कों के कंधों पर डाल रहे थे। दमन के लिए सन् 1919 में ख़तरनाक रौलेट ऐक्ट बना, जिसका पूरे देश में भारी विरोध हुआ। इस बीच गोरी सरकार ने दमन के नये कीर्तिमान स्थापित किये। 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर के जालियांवाला बाग में देश की निहत्थी जनता पर भयामक कहर बरपा हुआ। हजार से ज्यादा आम जन को गोलियों से खत्म करके गोरे हुक्मरानों ने संघर्ष को रोकने की कोशिश की। लेकिन इसने पूरे देश में संघर्ष को और तेज कर दिया।

इन्हीं मौजूदा हालात में देश के मज़दूर वर्ग ने अपने संघर्ष को न केवल जारी रखा, अपितु आगे बढ़ाया। मज़दूरों ने आर्थिक संघर्षों के साथ ही राजनीतिक संघर्षों से भी अपने को जोड़ना शुरू किया, साथ ही संगठनबद्ध होने की दिशा में भी आगे बढ़े। उस वक्त देश के वायसराय द्वारा लंदन भेजा गया रिपोर्ट भी इस बात को स्वीकार करता है कि सरकारी व निजी, दोनो तरह के उद्योगों में औद्योगिक अशांति कायम है।

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1919-20 की प्रमुख हड़तालों की अगर बात करें तो उनमें झांसी के ग्रेट पैनीसुलर रेलवे की मज़दूर हड़ताल, मद्रास बाकिंघम मिल के साथ ही जमालपुर, मुंबई, कोलकता, शोलापुर, अहमदाबाद, रंगून तक में आन्दोलनों की बाढ़ आ गयी थी।

4 नवंबर 1919 से लेकर 1920 के काल तक देश के विभिन्न भागों में और उद्योगों में कार्यरत मजदूरों की संख्या जो कभी न कभी हड़ताल पर रहती थी इनकी संख्या 475000 थी। यह संख्या केवल महत्पूर्ण हड़तालों की ही थी (आर के दास ने अपने ग्रंथ द लेवल मूवमेंट इन इंडिया)। अगर सभी हडतालो को एक साथ जोड़ दिया जाए तो 1920 के शुरू के 6 महीनों में 200 हडताले हुई थी जिनमें 15लाख मजदूरों ने हिस्सा लिया था (रजनी पाम दत्त)। 1920 के उत्तरार्ध में केवल बंगाल में ही 110 हडताले हुई थी (सुमित सरकार)।

1922-26 के दौर में आर्थिक मंदी के असर से वेतन कटौती व छंटनी तेज होने पर आर्थिक तंगी व बेरोजगारी बढ़ने से संघर्ष का संचालन कठिन परिस्थितियों में हुआ। फिर भी, संघर्ष जारी रहा। 1923 की मुम्बई हड़ताल के दौरान कपड़ा मिल की सबसे सशक्त यूनियन, गिरनी कामगार संध का जन्म हुआ। इस दौर में जहाँ ट्रेड यूनियन ऐक्ट, 1926 बना, वहीं प्रबन्धकों द्वारा हड़ताल विरोधी यूनियनों के गठन की नयी प्रवृत्ति सामने आयी।

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कानपुर में मज़दूर आन्दोलनों का उभार

कानपुर के मज़दूरों में जागृति थोड़ी देर से पैदा हुई, लेकिन एक बार कमर कसने के बाद वे आगे ही बढ़ते गये। कानपुर एलगिन मिल के एक श्रमिक पं. कामदत्त व लाला देवी दयाल के प्रयासों से सन् 1918 में कानपुर मज़दूर सभा गठित हुई, जिससे सभी प्रकार के मज़दूर जुड़े। सन् 1919 में कानपुर मज़दूर सभा ने 11 सूत्री माँगों के साथ शानदार हड़ताल की और 25 फीसदी वेतन बढ़ोत्तरी, 10 घण्टे कार्यदिवस तथा दो आने प्रति रुपया की दर से बोनस के साथ जीत हासिल किया। कानपुर के मज़दूर आन्दोलन को आगे बढ़ाने में राधा मोहन गोकुलजी, सत्यभक्त, मौलाना हसरत मोहानी, का. शौकत उस्मानी आदि की महती भूमिका रही है।

मज़दूर आन्दोलन का गाँधीवादी माॅडल

एक दूसरी प्रवृत्ति के तौर पर ‘अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन’ के बैनर तले 1920 की हड़ताल और संघर्ष के तौरतरीके के रूप में सामने आयी। इस गाँधीवादी माॅडल में पंच निर्णय के फैसले की अवधारणा बनी। इसके तहत मालिकों की भूमिका बढ़ गयी और उनके संगठन अहमदाबाद मिल ऑनर्स एसोसिएशन के रहमोकरम पर बहुत कुछ टिक गया। यहाँ तक कि मिल प्रबन्धन भी मज़दूर प्रतिनिधि बन सकता था और नगर पालिका का इसी हैसियत से चुनाव भी लड़ सकता था। यूनियन का चन्दा भी प्रबन्धन वेतन से काटकर देता था।

ग़ौरतलब है कि 1917 में अहमदाबाद के मिल मालिकों ने मज़दूरों को दिया जा रहा प्लेग बोनस बंद करने का निर्णय लिया था। दूसरी और प्रथम विश्व युद्ध के कारण महँगाई काफी बढ़ रही थी। श्रमिको ने प्लेग बोनस समाप्त करने के एवज में उनकी मजदूरी में 50 फीसदी वृद्धि करने की मांग की थी। फरवरी-मार्च 1918 में गाँधीजी ने मिल मालिको और मजदूरों के बीच मध्यस्ता करना प्रारंभ किया। उन्होंने प्रथम बार भूख हड़ताल के हथियार को संघर्ष के रुप में इस्तेमाल किया।

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पूरे देश में मज़दूर आन्दोलनों को देखते हुए गाँधी ने श्रम विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से निपटाने और श्रमिकों की चेतना ओर मोड़ने के उद्देश्य से 1920 में अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन की स्थापना की गई थी। पूरे देश के मज़दूर आन्दोलनों से यह कटा रहा, यहाँ तक कि उसी दौर में बने मज़दूरों के पहले महासंघ एटक के स्थापना सम्मेलन में भी गाँधी जी शामिल नहीं हुए थे।

. . .फर्जी मुक़दमों और दमन के बीच संगठित आन्दोलन कैसे आगे बढ़ा?…

(क्रमशः जारी. . .)

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