जब अमानवीयता की हदें भी पार हुईं

आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें – 2
मज़दूर वर्ग का शानदार इतिहास बेइन्तहां संघर्षों और कुर्बानियों से भरा पड़ा है। जिसमें जीत और पराजय की अनगिनत कहांनियां हैं। भारत में उद्द्योगों का विकास अंग्रेजी गुलामी के दौर में हुआ, इसलिए मज़दूरों के शोषण व दमन का दौर और भी भयावह रहा। …इस श्रृंखला की इस दूसरी कड़ी में आइए उस दौर के अपने पुरखों के हालात को जानते हैं…
दूसरी क़िस्त
पहली क़िस्त में पढ़ें– आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें!
वो भयानक दौर
जिधर देखिए सिसकियों का फसाना,
कोई जीते जी मौत का निशाना,
ये किस माँ की ममता का घर जल गया,
सुहागिन अभागिन सजन के बिना,
कोई लाश रोये कफन के बिना।
-राज इंकलाब
19वीं सदी में बाल अमानवियता की एक बानगी

‘‘भारत में औद्योगिक जीवन का स्थाई चरित्र गुलामी है। …बहुत समय नहीं बीता है एक प्रतिष्ठित व्यक्ति जो पहले एक स्कूल का अध्यापक था, उसने बताया कि उसके पास वाले घर में ही बड़ी संख्या में बच्चों की जबर्दस्ती भर्ती की जाती थी। कभी-कभी रात में उनकी दर्द भरी आवाजें सुनाई देती थीं, उससे वह बहुत परेशान था। …जब जाँच पड़ताल की गयी तो पता चला कि वह गोटा (चमकीला लैश) लगाने का कारखाना था, जहाँ कम उम्र के बच्चों को घण्टों काम पर लगाया जाता और जब वे बुरी तरह से थक कर नींद के कारण कार्यस्थल पर ही लुढ़क जाते तो उनका मालिक कोड़े लगाकर उन्हें जगाता था…।’’
यह है औपनिवेशिक दौर में 19वीं सदी में बाल अमानवियता की एक बानगी जिसे उस वक्त दीवान चमन लाल प्रस्तुत करते हैं।
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दरअसल देश में जब कल-कारखाने लगे तो एक तरफ तो मालिकों के मुनाफे की बरसात हो रही थी। दूसरी तरफ मामुली दिहाड़ी पर व भयानक परिस्थितियों में खट रहे थे मज़दूर। उस दौर में पुरुष ही नहीं महिलाओं और बाल मजदूरों तक से 15 से 16 घण्टे तक लगातार काम कराना आम बात थी। स्थिति इतनी भयावह थी कि 5 से 6 साल तक के अल्प आयु बच्चों को भी काम में झोंक दिया जाता था। मशीनों पर दुर्घटनाएं आम बात थीं। शारिरिक विकलांगता और मौत तक के लिए कोई मुवाजे की व्यवस्था नहीं थी। हालात ये थे कि असहनीय काम के बोझ से जब मज़दूर शारिरिक रूप से टूट जाते थे तब उनकी जगह दूसरी टोली लगा दी जाती थी, जैसे पहिए का दांता टूटने पर दूसरे पहिया से बदल दिया गया हो।
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हाड़-तोड़ मेहनत और जीवन जीने लायक दिहाड़ी भी नहीं
इतनी हाड़-तोड़ मेहनत के बाद जीवन यापन लायक पगार भी नहीं मिलती थी। 1892 में पश्चिम बंगाल की जूट मिल में बाल मज़दूरों को सप्ताह में एक रुपया, कुशल मकैनिक को सप्ताह में 5 से 7 रुपए व अकुशल मज़दूरों को साप्ताहिक 14 आना 6 पैसे से लेकर 3 रुपए तक की पगार मिलती थी। 1877 में मुंबई प्रांत के सूती कपड़ा मिलों में मासिक वेतन पुरुषों की 12 रुपए, महिलाओं की 9 व बाल मज़दूरों को महज 5 रुपए थी। जबकि 1890 तक कानपुर में मज़दूरी 12 पैसे प्रतिदिन थी।
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रहने के लिए जानवर से भी बदतर स्थितियाँ

रहने की स्थितियां तो और भी वीभत्स थीं। बगैर शौचालय और रोशनदान वाले कमरों में एक से अधिक परिवार खचाखच भरे रहते थे। भयावहता के बारे में टैक्सटाल फैक्टरी लेबर कमेटी तक लिखती है कि-
‘‘भारतीय मज़दूरों और उनके परिवारों के …घर बहुत ही कम हवादार, सीलन भरे, अंधेरे और भीड़भाड़ भरे थे। पूरी आबादी संकरी गलियों में बसी थी, जिनमें घरों का मल-मुत्र और गंदे पानी की नालियां बजबजा रही थीं। नालियों से उठने वाली दुर्गंध से चारों तरफ संपूर्ण वातावरण बदबू भरा था। …लगभग इसी तरह की परिस्थितियं लगभग सभी औद्योगिक केंद्रों की थीं।’’
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बिनौला बीनने वाले मज़दूरों की स्थिति और भयावह थी। इसको बयां करती है मुम्बई के एक वरिष्ठ ब्वायलर निरिक्षक की यह रिपोर्ट- ‘‘बिनौला बीनने का समय आठ माह का होता है। इसमें से पाँच माह मजदूर 5 बजे सुबह से रात 10 बजे तक कार्य करते हैं और अन्य तीन महीने मज़दूर दिन-रात काम करते हैं। इनमें ज्यादातर महिला मज़दूर हैं… अधिकतर महिलाएं पूरे सप्ताह दिन-रात काम करती हैं। मेरी जानकारी में कहीं भी बच्चों की दो पाली नहीं होती। अतः उनको 24 घण्टों में से 23 घण्टे अवश्य ही कार्य करना होता है।’’
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शोषण-दमन के लिए मालिकों ने बनाया था अपना संगठन
मज़दूरों के शोषण-दमन के लिए मालिकों ने अपना संगठन बनाया। इस शुरुआती दौर में ‘असम प्लांटेशन लेबर इमीग्रेशन एक्ट’, ‘मद्रास प्लांटर्स लेबर एक्ट’, ‘मास्टर एंड सर्वेंट एक्ट’, ‘द वर्कमैंस ब्रीज ऑफ़ काॅन्ट्रैक्ट एक्ट’ आदि कुछ ऐसे कानून बने जिनका मूल उद्देश्य मजदूरों की भर्ती व शोषण करने में सहायक हों। कठोर व अमानवीय कार्य स्थितियों से पलायन करने वाले मज़दूरों को मालिकों द्वारा दंडित करने के ये खुले हथियार बन गये थे। इसी कड़ी में कर्मचारी अनुबंध भंग अधिनियम 1860 बना। इस कानून के तहत कर्मकार नियोजक की मर्जी के बगैर नौकरी नहीं छोड़ सकता था। यही नहीं, इस अधिनियम से मालिकों को मज़दूरों द्वारा अवज्ञा करने पर आर्थिक दंड देने और जेल भेजने का भी अधिकार मिल गया था।
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दयनीय हालत में मेहनतकश अप्रवासी भारतीय

बर्तानवी गुलामी के दौर में देश के गरीब मेहनतकशों की एक बड़ी आबादी को दूसरे देशों में भेजा गया। इनमें से कुछ को खुशहाली का पाठ पढ़ा कर तो कइयों को तो धोखा देकर समुद्र पार दूर देश पहुँचा दिया जाता था। जिनकी दारुण भरी जिन्दगी और रक्त रंजित इतिहास की असीम गाथाएं भरी पड़ी हैं।
सन् 1830 में भारतीय मज़दूरों की पहली खेप फ्रांसीसी उपनिवेश बूर्बा द्वीप भेजने से जो सिलसिला शुरू हुआ वह लगातार बढ़ता ही गया। हालात ये बने कि सन् 1834 से 1837 के बीच 17,000 से ज्यादा मज़दूर विदेश भेजे जा चुके थे। उन्नीसवीं सदी के अंत तक भारतीय प्रवासी मज़दूरों की संख्या 70 लाख तक पहुँच गयी थी।
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इनके दारुण कथा का बयान 15 जून 1938 का बाम्बे गजट यूं करता है-
‘‘इन ठगे गये मज़दूरों को नौकरी का भुलावा देकर घर से बहका कर लाया जाता। जलप्रोतों में भरकर उनकों गंतब्यों को भेजा जाता, तभी से वह अपने काम लेने वाले मालिक के अधीन हो जाते, मानो उनका जन्म ही गुलामी में हुआ है। उन्हें ऐसे उपनिवेश में भेजा जाता जहाँ दास प्रथा समाप्त हो गयी थी लेकिन वे दास बना दिये जाते।’’
मज़दूरों की जीवन स्थितियों की एक बानगी

आइए, 19वीं सदी के अपने मज़दूर भाइयों के निम्न जीवन स्थितियों की एक बानगी देखें, जो 1883 के ईस्ट इण्डिया के घोषणापत्र (चार्टर) पर पुनर्विचार के लिए राजा राम मोहन राय द्वारा की गयी बहस बताती है-
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प्रश्न– किसानों और मज़दूरों को आम तौर पर दिये जाने वाले वेतन की दर क्या है?
उत्तर– लोहार जैसे दस्तकारों को कोलकता में 10 से 12 रुपए और साधारण काम करने वाले सामान्य मज़दूरों को 5 से 6 रुपए प्रति माह मिलता है। भवन निर्माण वाले कारीगरों को 5 से 7 रुपए व सामान्य मज़दूर को साढ़े तीन से चार रुपए प्रति माह तक वेतन मिलता है। छोटे कस्बों में मज़दूरी की दर उससे कम और ग्रामीण इलाकों में उससे भी कम है।
प्रश्न– वे किस प्रकार के भोजन पर जीवन निर्वाह करते हैं?
उत्तर– बंगाल में अधिकांश मज़दूर चावल, कुछ सब्जी, अचार और मछली खाकर जीवित रहते हैं। मैने गरीब मज़दूरों को अक्सर केवल नमक और चावल ही खाते देखा है। ऊपरी प्रांतों के अधिकांश मज़दूर चावल के स्थान पर बाजरा व अन्य मोटे अनाज का आंटा प्रयोग करते हैं।
प्रश्न– वे किस प्रकार के मकानों में रहते हैं?
उत्तर– बंगाल के ऊपरी हिस्से में उत्तरी व पश्चिमी भाग में वे मिट्टी के मकानों में रहते हैं। बंगाल के पूर्वी व तराई वाले भाग में घास, फूस, चटाई और बांस से बनाए घरों में रहते हैं।
प्रश्न– वे कैसे कपड़ों का प्रयोग करते हैं?
उत्तर– सर्वाधिक गरीब लोग अपनी इज्जत ढ़ंकने के लिए कमर से नीचे भाग में एक कपड़ा लपेटे रहते हैं और बाकी शरीर नंगा रहता है…।
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यह तो उस दौर को समझने की महज कुछ बानगी मात्र है। ज़ाहिर है, इन्हीं परिस्थितियो में बगावतें फूटीं…
(क्रमशः जारी…)
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