आज का दौर और शहीदे आज़म भगत सिंह

”आँधी और तूफान में अपने पैरों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है।“
-शहीदे आज़म भगत सिंह

आज हम एक ऐसे दौर में हैं, जब पूँजीवादी लूट, दमन और झूठ-फ्राड भरे विचारों की पूरी आँधी बह रही है। धूल-रख-गर्द से सच को ढ़ंकने, विचारों को कुण्ठित करने की मुहिम तेज हो गयी है। कहीं भगत सिंह ‘यंग्री यंग मैन’ के रूप में निरूपित हो रहे हैं, तो सत्ता प्रतिष्ठानों से लेकर कतिपय ताकतें भगत सिंह को पगड़ी पहनाकर पंथी घोषित कर रही हैं। भगत सिंह के सच्चे वारिस भी तमाम मतिभ्रम के शिकार होने से नहीं बच पा रहे हैं। ऐसे में शहीदे आज़म की उक्त बात सच साबित हो रही है कि ऐसे में ”अपने पैरों पर खड़ा रहना कोई बच्चों का खेल नहीं है।“

यह दौर एक गम्भीर विचार-मंथन का दौर है। ऐसे में पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर विचारों में दृढ़ता और व्यवहार में विरादराना लचीलेपन के साथ यथार्थ से जूझा जा सकता है, आगे की सही सुसंगत दिशा निरूपित की जा सकती है।

अपने मूल विषय पर चर्चा की शुरुआत शहीदे आज़म की इस महत्वपूर्ण बात से करना प्रासंगिक होगा कि ”दुर्भाग्य से भारतीय क्रान्ति का बौद्धिक पक्ष हमेषा दुर्बल रहा है।“ यह बात यहाँ इसलिए और प्रासंगिक है क्योंकि उक्त पंक्ति को भगत सिंह के वारिसों द्वारा भी बार-बार दुहराने के बावजूद बहुधा इसके मर्म को वास्तविक अर्थ में समझने का अभाव रहा है। इसलिए किसी और सन्दर्भ में कही भगतसिंह की इस बात को उपरोक्त कथन से जोड़कर देखने-समझने की जरूरत है कि ”जो आदमी प्रगति के लिए संघर्ष करता है, उसे पुराने विष्वासों की एक-एक बात की आलोचना करनी होगी, उस पर अविश्वास करना होगा और उसे चुनौती देनी होगी। इस प्रचिलित विश्वास के एक-एक कोने में झांक कर उसे विवेक पूर्वक समझना होगा।“ वे ‘ड्रीमलैण्ड की भूमिका’ में लिखते हैं कि ”…इसे पढ़िये, इसकी आलोचना कीजिये, इस पर सोचिए और इसकी सहायता से अपनी समझदारी कायम करने की कोशिश करिये।“

भगतसिंह की गलत छवि बनाने की साजिश पुरानी है

आज यह स्थापित हो चुका है कि भारतीय मुक्ति संग्राम की दो धाराओं में भगतसिंह क्रान्तिकारी धारा के प्रतीक पुरुष थे। अपनी शहादत के पूर्व तक भगतसिंह वैचारिक परिपक्वता और क्रान्तिकारी कार्यक्रम की स्पष्ट समझ के साथ गाँधी जी के समान्तर खड़े हो चुके थे। इसके बावजूद बड़े ही साजिशाना तरीके से भगतसिंह और उनके सथियों व उस क्रान्तिकारी धारा को ‘बन्दूक और पिस्तौल से आजादी लाने वाले’ युवा शहीदों के रूप में ही स्थापित की जाती रही। यह यूँ ही नहीं है कि उनकी शहादत के पच्चीस साल बाद 1981 से ही उनके महत्वपूर्ण वैचारिक लेख व दस्तावेज बौद्धिक और क्रान्तिकारी बिरादरी के पास पहुंचने शुरू हुए।

हालांकि, भगतसिंह के सहयोद्धाओं जितेन्द्र नाथ सान्याल, शिव वर्मा, अजय घोष, भगवानदास माहौर, सदाषिव मलकापुरकर, यशपाल आदि ने तथा सोहनसिंह जोष, राजाराम शास्त्री आदि समकालीनों ने अपने संस्मरणों द्वारा विविध पहलुओं को उजागर किया था, गोपाल ठाकुर ने उनके वैचारिक पहलू को रेखांकित किया, लेकिन 80 के दशक से जब विभिन्न सामग्री व दस्तावेज सामने आने लगे, मुख्यतः उसी के बाद से वास्तविक धुंध छंटनी शुरू हुई।

यही वह दौर था जब कम्युनिस्ट धारा ‘ससोधनवाद’ और ‘अतिवाम’ की दो धाराओं के घात-संहात से सही क्रान्तिकारी धारा के जद्दोजहद में आगे बढ़ रही थी। टूट-फूट-बिखराव से उभरते हुए कई कम्युनिस्ट संगठन भगतसिंह के वस्तुपरक व समेकित मूल्यांकन और उसकी रौषनी में क्रान्ति के प्रष्नों से नये रूप में जूझने लगे थे। इनसे जुड़े वाम युवा संगठनों द्वारा भगतसिंह और उनके साथियों की पुस्तिकाओं के प्रकाशन द्वारा भगतसिंह और उनके साथियों की वस्तुपरक आलोचनात्मक दृष्टि, द्वन्द्वात्मक प्रणाली, क्रान्तिकारी वाम धारा के अग्रणी और भारतीय क्रान्ति के प्रतीक पुरुष के रूप में स्थापित करने और उसकी रौषनी में कामों को नयी दिषा देने में जूट गये थे। हालांकि 70 के दषक में पंजाब में जन आन्दोलन के सही राह पर चलते हुए एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट संगठन भगत सिंह की विरासत को ही आगे बढ़ते हुए नौजवान भारत सभा के बैनर तले काम कर रहा था।

80 के दषक में विरेन्द्र सन्धु सम्पादित दस्तावेज व लिखित जीवनी, चमनलाल व जगमोहन सिंह द्वारा सम्पादित दस्तावेज, इतिहासकार बिपिन चन्द्रा द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका सहित ‘मैं नास्तिक क्यों’ और फिर ‘ड्रीम लौण्ड की भूमिका’ तथा इतिहासकार सुमित सरकार, इरफान हबीब, हरबंस मुखिया आदि द्वारा नये रूप में इतिहास की स्थापना से भगतसिंह की धारा में भगवती चरण बोहरा, सुखदेव, विजय कुमार सिन्हा, बटुकेष्वर दत्त सहित ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ’ की वैचारिक भूमिका और क्रान्तिकारी परम्परा स्थापित हुई। इसी दिषा में मनमंथ नाथ गुप्त व शिव वर्मा द्वारा प्रकाशित दस्तावेज, भगत सिंह की जेल नोटबुक का प्रकाषन, हंसराज रहबर और विष्णु प्रभाकर द्वारा लिखित जीवनियां और तामाम क्रान्तिकारी संगठनों के सतत प्रयास व कठिन उद्यम ने भी सत्ताधारियों द्वारा फैलाई धुंध को छांटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

इन महत्वपूर्ण तथ्यों के मद्देनजर ही वस्तुपरक मूल्यांकन की दिशा में हमें आगे बढ़ना होगा।

इतिहास के विकास क्रम में भगतसिंह

कोई भी परिघटना इतिहास के विकास क्रम की ही परिणति होती है। भगत सिंह भी अपने समय में जारी मुक्तिकामी संघर्ष में क्रान्तिकारी आन्दोलन के लगातार विकसित और परिश्कृत होने के क्रम में उसके शीर्ष पर पहुँचे थे। साथ ही उस वक्त का मौजूदा वैष्विक समर और वैचारिक वैज्ञानिक जीवन दृष्टि को भी आत्मसात कर परिपक्वता हासिल कर सके थे। तभी तो एक तरफ खुद विषुद्ध आर्यसमाजी पृष्ठिभूमि से यात्रा कर नास्तिक और द्वन्द्वात्मक भैतिकवादी बने तो दूसरी तरफ धर्म आधारित आतंकवादी क्रान्तिकारी आन्दोलन को जन संगठन पर आधारित कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन, पार्टी निर्माण की सुस्पष्ट सोच तक पहुंच सके और समाजवादी क्रान्ति का लक्ष्य प्रतिपादित किया। ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ उसकी चरम परिणति थी।

1920 का दशक इतिहास में भारी उथल-पुथल भरा रहा है। एक तरफ 1917 में सोवियत क्रान्ति दुनियाभर की मेहनतकश अवाम के लिए एक नए दौर का आगाज़ था। इसने साम्राज्यवाद व पूँजीवाद पर वैचारिक और व्यवहारिक दोनो धरातलों पर श्रेष्ठता साबित की और मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी निर्माण के नित नये कीर्तिमान स्थापित किए। साथ ही प्रथम विष्वयुद्ध की विभीषिका ने भी दुनियाभर में जारी मुक्तिकामी संघर्षों का नया आयाम दिया। भारत में रौलेटऐक्ट के आने और जालियावाला बाग काण्ड के खूनी ताण्डव, असहयोग आन्दोलन से पूरे देष में एकीकृत आन्दोलन का शानदार उभार और गाँधी जी द्वारा अचानक उसे वापस लेने से जनमानस में पैदा गुस्सा और निराषा ने एक नयी सुगबुगाहट पैदा कर दी थी। जिसने ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के गठन का भी आधार मजबूत किया।

यही वह समय है जब पूरे देश में मज़दूर आन्दोलन नये आवेग से आगे बढने लगा था और सांगठनिक शक्ल लेने लगा था। ट्रेडयूनियनों के बनने से लेकर एटक का गठन तक का होना, मई दिवस मनाने की परम्परा की शुरुआत और कम्पनशेसन एक्ट, ट्रेड यूनियन एक्ट सहित तमाम श्रम कानूनी अधिकारों को हासिल करने का यह महत्वपूर्ण दौर था। किसानो, छात्रों-युवाओं के आन्दोलन नये रूप में विकसित होने लगे थे। एक सर्वभारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनाने की जद्दोजहद आगे बढ़ रही थी। दमन के बीच देश का मुक्तिकामी संग्राम नयी करवटें ले रहा था। अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद सैद्धान्तिक और आन्दोलनात्मक बहसें गुणत्मक रूप से आगे बढ़ने लगी थीं। क्रान्तिकारी आतंकवादी कार्यदिशा के गर्भ से क्रान्तिकारी जनदिषा और धर्मआधारित सोच वैज्ञानिक भौतिकवादी सोच की दिशा में विकसित होने लगी थी, जिसे महत्वपूर्ण मुकाम पर भगतसिंह और उनके साथियों ने पहुंचाया।

यह गौरतलब है कि जहाँ युगान्तर, अनुशीलन से लेकर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन और गदर पार्टी की क्रान्तिकारी परम्परा को ही विकसित करते हुए भगतसिंह और उनके साथी वैज्ञानिक समाजवाद तक की यात्रा पूरी कर सके, तो वहीं, उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट नेतृत्व से सीखते हुए मौलिक चिन्तन व अध्ययन से देश की तत्कालीन ठोस परिस्थितियों के सटीक मुल्यांकन द्वारा क्रान्ति की आम दिषा निर्धारित की। विकास के इसी क्रम में भगतसिंह ने अपने अन्तिम दस्तावेजों में क्रान्ति के लिए पेशेवर क्रान्तिकारियों पर आधारित एक कम्युनिस्ट पार्टी और उसके नेतृत्व में जन सेना और जन संगठन बनाने की दिशा प्रतिपादित की। गाँधी और कांग्रेस के समकक्ष उपनिवेश के खिलाफ मुक्ति की एक सुसंगत सोच व राष्ट्रवाद की सही समझदारी स्थापित करते हुए वैज्ञानिक समाजवाद को ही वास्तविक विकल्प के रूप में में वे विकसित कर सके।

तूफानी विचार यात्रा

भगतसिंह का पूरा चिन्तन बेहद अल्प समय में तूफानी गति वाली विचार यात्रा है। किताब और भौतिक जगत से अध्ययन की जबर्दश्त भूख वैचारिक विकास की अहम कड़ी थी। कूका व कूकी विद्रोह हो, 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम या गदर आन्दोलन, शहीद कर्तार सिंह सराभा हों या काकोरी के शहीद, तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक धटनाएं हों या धर्म, जाति, अछूत समस्या अथवा बढ़ती साम्प्रदायिकता, हर सवाल पर हस्तक्षेप करते हुए आगे बढ़ते जाना भगत सिंह व उनके साथियों की कुषाग्र बुद्धि और बढ़ती परिपक्वता का ही प्रमाण है। समकालीन युवा नेताओं जवाहर लाल नेहरू व सुभाष चन्द्र बोस का ससम्मान मूल्यांकन, लाला लाजपत राय के प्रति श्रद्धा और उनसे समझौताहीन तीखे वैचारिक संघर्ष, गाँधी जी से गहन संघर्ष जारी रखना आदि सूसंगत राजनीतिक कर्म की बानगी मात्र है। ”महात्मा गांधी ने लाट पंजाब के साथ पत्र-व्यवहार कर लगान कम करवाने का यत्न किया था, लेकिन जनाब, सिर्फ पत्र-व्यवहार से सर झुकाने वाली सरकार यह नहीं है।“ व्यग्यात्मक तीखी टिप्पणी का नमूना मात्र है। बम के दर्शन में तो उन्होंने गाँधी की सोच की बखिया उधेड़ दी है। उनकी जेल नोटबुक विचार यात्रा और परिपक्वता का दर्पण है।

जनदिशा में नायाब प्रयोग

जिस वक्त भगतसिंह की पीढ़ी क्रान्तिकारी आन्दोलन में कदम रख रही थी, कांग्रेस की सुधारवादी राजनीति के बरअक्स ‘युगान्तर’, ‘अनुशीलन’ आदि की धारा ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ तक पहुँची थी जहाँ मूलतः आतंकवादी कार्यदिशा हावी थी। दूसरी ओर गदर पार्टी का प्रयोग और उसका सकारात्मक-नकारात्मक रूप समने था। भगतसिंह ने इस पूरी क्रान्तिकारी धारा को आत्मसात किया तत्कालीन परिस्थितियों में जन दिशा के अद्भुत प्रयोग किये। नौजवान भारत सभा का गठन इस कड़ी में एक नयी शुरुआत थी। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं का इस्तेमाल, विचारों के प्रचार के लिए अदालत के प्लेटफाॅर्म का खूबसूरत उपयोग, भूख-हड़ताल को जनान्दोलन बनाने जैसे कई प्रयोग किये, तो लाला जी की मौत का बदला लेते हुए भी उसका प्रचारात्मक उपयोग किया। ‘नौजवान भारत सभा’ और फिर ‘हिन्दुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ’ के घोषणा पत्रों में जनदिशा की पूरी सोच को उपस्थित किया। साथ ही मज़दूरों किसानों के संश्रय, छात्रों-युवाओं की भूमिका आदि को भी खूबसूरती से निरूपित किया।

मज़दूर व किसान आन्दोलनों पर

भगतसिंह स्पष्ट करते हैं कि ”क्रान्ति राष्ट्रीय हो या समाजवादी, जिन शक्तियों पर हम निर्भर हो सकते हैं वे हैं किसान और मज़दूर।“ इसीलिए उनकी निगाह तत्कालीन चल रहे मज़दूरों व किसानों के आन्दोलन पर लगातार लगी रही। यह दौर इन आन्दोलनों के एक नये उभार का दौर था। 1928 में बारदोली, कानपुर, मेरठ व पंजाब में किसानों के सत्याग्रह आन्दोलन उठ रहे थे, तो लिलुआ रेलवे बर्कषाप, टाटा की जमषेदपुर मिलों, जमषेदपुर में सफाई कर्मियों और बम्बई की कपड़ा मिलों में हड़तालें चल रही थीं।

‘किरती’, जिसके सम्पादक मण्डल में भगतसिंह थे, ने जून, 1928 में लिखा कि-

”1928 में हिन्दुस्तान में फिर प्राण धड़कते नजर आने लगे हैं। …उधर सत्याग्रह की धूम है और इधर हड़तालों का भी कम जोर नहीं। बड़ी खुशी इस बात की है कि फिर प्राण जगे हैं और पहले-पहल ही किसानों और श्रमिकों का युद्ध छिड़ा है। इस बात का भी आने वाले बड़े भारी आन्दोलन पर असर रहेगा। वास्तव में तो यही लोग हैं कि जिन्हें आजादी की जरूरत है। किसान और मज़दूर रोटी चाहते हैं और उनकी रोटी का सवाल तबतक हल नहीं हो सकता जबतक यहाँ पूर्ण आजादी न मिल जाये। वो गोलमेज कान्फ्रेंस या अन्य ऐसी किसी बात पर रुक नहीं सकते।“ इसी लेख में दृष्टि देखिए ”…सबसे अधिक सेवा करने वाले भाईयों को हम भंगी-भंगी कहकर पास न फटकने दें और उनकी गरीबी का लाभ उठाकर थोड़े-से पैसे देकर काम कराते रहें और बेगार भी खूब घसीटें। खूब! आखिर उन्हें उठना ही था।… हम चाहते हैं कि सभी किसान और मज़दूर संगठित हों और अपने अधिकारों के लिए यत्न करें।“

अपने अन्तिम दौर में लिखे दस्तावेज में वे साफ तौर पर कहते हैं कि ”हमें याद रखना चाहिए कि श्रमिक क्रान्ति के अतिरिक्त न किसी और क्रान्ति की इच्छा करनी चाहिए और न ही वह सफल हो सकती है।“ इसी दस्तावेज में वे बुनियादी कामों में ”ट्रेड यूनियनों पर कब्जा करना और नयी टेªड यूनियनों व संगठनों को जुझारू रूप में स्थापित करना“ और ”दस्तकारों की समितियाँ, मज़दूरों और बौद्धिक काम करने वालों की यूनियनें हर जगह स्थापित की जाये“ बताते हैं।

धर्म, साम्प्रदायिकता और जातिवाद पर सतत हमला

1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिन्दू-मुस्लिम एकजुट संघर्ष का नायाब उदाहरण पेश हुआ। अंग्रजों ने इसका सबक निकाला और साम्प्रदायिक बंटवारे की जबर्दष्त जमीन तैयार कर दी। भगतसिंह का दौर इस दिशा में एक खतरनाक मुकाम पर था। यही वह समय था, जब ‘हिन्दू महासभा’ और ‘राश्ट्रीय स्वंय सेवक संघ’ की पौध आरोपित हुई। उधर ‘मुस्लिम लीग’ भी विस्तार लेने लगा था। आन्दोलनों को भटकाने के लिए धार्मिक कट्टरपंथियों का सहारा लेकर ब्रिटिष हुक्मरान साम्प्रदायिक दंगों को हवा दे रहे थे। इसका रूप उस वक्त कैसा था, इसको भगत सिंह व सथियों की शहादत के तत्काल बाद कानपुर में भयानक दंगे के रूप में देखा जा सकता है, जिसे रोकने के प्रयास में गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हो गये। जाहिरातौर पर यह शहादत से पैदा होने वाले जनान्दोलन को रोकने के लिए कुटिल साजिश थी।

भगतसिंह ने साम्प्रदायिकता पर लगातार चोट की। वे लिखते हैं कि ”इन ‘धमों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि ये धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। …इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है।“ उन्होंने सम्प्रदायिक दंगों की जड़ ‘आर्थिक’ बताते हुए साफ किया कि ”लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। ग़रीब मेहनतकश और किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए।“ उन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में धर्म को निजी आस्था और इसे राजनीति से अलग करने की बात कही। अन्धविश्वासों और समाज में प्रचलित कूप्रथाओं पर लगातार तीखा प्रहार किया और जनमानस में वर्ग आधारित वैज्ञानिक सोच के प्रचार-प्रसार पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि ”निरा विश्वास और अन्धविश्वास खतरनाक है, इससे मस्तिस्क कुण्ठित होता है और आदमी प्रतिक्रियावादी हो जाता है।“ अपने अन्तिम दस्तावेज में स्पश्ट किया कि ”हमें अन्धविश्वासों, भावनाओं, धार्मिकता या तटस्थता के आदर्शों से खेलने की जरूरत नहीं है।“

समाज में जड़ जमाए जातिगत विभेद पर भी भगतसिंह ने तीखे प्रहार किये- ”30 करोड़ की जनसंख्या वाले देश में जो 6 करोड़ अछूत कहलाते हैं, उनके स्पर्ष मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जायेगा! उनके मन्दिरों में प्रवेष से देवगण नाराज हो उठेंगे! कुएँ से उनके द्वारा पानी निकालने से कुआँ अपवित्र हो जायेगा!“ वे आह्वान करते हैं ”उठो! अछूत कहलाने वाले असली जनसेवकों उठो! …तुम असली सर्वहारा हो…संगठनबद्ध हो जाओ। …उठो और वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ बगावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा। सामाजिक आन्दोलन से क्रान्ति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रान्ति के लिए कमर कस लो। तुम ही तो देश के मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो, सोये हुए शेरों! उठो, और बगावत खड़ी कर दो।“

भगतसिंह ने स्त्री-पुरुष भेदभाव पर भी चोट की और पार्टी में ‘स्त्री समिति’ बनाने का सुझाव देते हुए उनकी प्रारम्भिक जिम्मेदारी के तौर पर ”स्त्रियों को क्रान्तिकारी बनाना और इनमें से प्रत्यक्ष सेवा के लिए सक्रिय सदस्य भरती करना“ बताया।

एक सर्वभारतीय पार्टी और क्रान्ति का सवाल

अपने अन्तिम दिनों में लिखे महत्वपूर्ण दस्तावेज ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’ में भगत सिंह लिखते हैं कि ”…लेकिन जिस चीज का हमेशा ध्यान रहना चाहिए वह है आन्दोलन का उद्देश्य। जिन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए हम संघर्ष कर रहे हैं, उनके बारे में, हमें पूरी तरह स्पष्ट होना चाहिए। इस बात से अपने आन्दोलन की उपलब्धियों, सफलताओं और असफलताओं को आँकने में हमें सहायता मिलती है और अगला कार्यक्रम बनाने व तय करने में भी।“ आगे वे स्पष्ट करते हैं कि ”किसी क्रान्तिकारी पार्टी के लिए …कार्यक्रम बनाने के लिए अनिवार्य रूप से इन बातों के अध्ययन की जरूरत है- 1. मंजिल (लक्ष्य) या उद्देश्य। 2. आधार, जहाँ से शुरू करना है, यानी वर्तमान परिस्थिति। 3. कार्यक्रम, यानी साधन व दाँव-पेंच। जब तक इन तत्वों के सम्बन्ध में कुछ स्पष्ट संकल्प नहीं है, तब तक कार्यक्रम सम्बन्धी कोई विचार सम्भव नहीं है।“

क्रान्ति कैसी हो? ”सर्वहारा श्रमिक वर्ग की क्रान्ति, सर्वहारा के लिए।“ और ”यह तो विशेष सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों से पैदा होती है और एक संगठित पार्टी को ऐसे अवसर को संभालना होता है और जनता को इसके लिए तैयार करना होता है। क्रान्ति के दुसाध्य कार्य के लिए सभी शक्तियों को संगठित करना होता है।“ उन्होंने ‘पेशेवर क्रान्तिकारी’ से लैस क्रान्तिकारी पार्टी की बात की। उन्होंने गाँधीवाद, आतंकवाद, क्रान्ति पर स्पष्ट सोच रखते हुए कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की और तत्कालीन परिस्थिति के अनुरूप बुनियादी काम को सूस्पष्ट करते हुए बताया कि ”1. सामन्तवाद की समाप्ति। 2. किसानों के कर्ज समाप्त करना। 3. क्रान्तिकारी राज्य की ओर से भूमि का राष्ट्रीयकरण ताकि सुधरी हुई व साझी खेती स्थापित की जा सके। 4. रहने के लिए आवास की गारण्टी। 5. किसानों से लिये जाने वाले सभी खर्च बन्द करना। सिर्फ इकहरा भूमि-कर लिया जायेगा। 6. कारखानों का राष्ट्रीयकरण और देष में कारखाने लगाना। 7. आम शिक्षा। 8. काम करने के घण्टे जरूरत के अनुसार कम करना।“

भगत सिंह ने क्रान्ति के लिए ‘सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति’ और बुनियादी काम के तौर पर ‘वर्तमान परिस्थितियों’ के आकलन की बेहद अहम और बुनियादी बात की है। इसी आधार पर अपने दौर के लिए क्रान्ति के कार्यक्रम का मसविदा भी प्रस्तुत किया। यह माक्र्सवाद की बुनियादी शिक्षा है। आज हमें इसी जमीन पर खड़े होकर अतीत का समाहार करते हुए अपने इस दौर के लिए सर्वहारा वर्ग की मुक्ति का सुसंगत कार्यक्रम बनाना होगा। आन्दोलन के भीतर मौजूद तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर ”प्रचलित विष्वास के एक-एक कोने में झांककर उसे विवके पूर्वक समझना होगा।“

यह गौरतलब है कि भगत सिंह के दौर से लगभग 85 साल बाद जब हम यहाँ एक महत्वपूर्ण मसले पर मंथन कर रहे हैं, इंक़लाब के महत्वपूर्ण सवाल से जूझ रहे हैं, तब हालात बहुद बदल चुके हैं। उस दौर में आन्दोलन को सोवियत समाजवादी सत्ता और तत्कालीन समाजवादी निर्माण का प्रयोग बल दे रहा था और वह दौर संघर्षों के उभार का दौर था। तब दुश्मन सीधे सामने था और विष्व साम्राज्यवाद को चुनौती मिल रही थी। आज का मज़दूर वर्ग पराजय के दौर से गुजर रहा है। वक्ती तौर पर वैष्विक पूँजीवादी ताक़तें लगातार अपने बुनियादी संकटों के बावजूद हमलावर हैं। सम्राज्यवादी ताक़तों ने पिछली शताब्दी की क्रान्तियों और समाजवादी निर्माण के नायाब प्रयोगों का गहन अध्ययन किया है और इसे रोकने के तरह-तरह के हथियार विकसित किये हैं। एक प्रक्रिया में उसने विचारों का धुंध फैलाकर सांस्कृतिक वर्चस्व कायम किया है।

जैसा कि भगत सिंह ने आगाह किया था, सर्वहारावर्ग के नेतृत्वकारी आन्दोलन की कमजोरी का लाभ उठाकर 1947 में उपनिवेशवादी विरोधी संघर्ष ‘एक समझौते में’ समाप्त हो गया और ‘गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों’ के हाथ में सत्ता आ गयी। मेहनतकष वर्ग के साथ इस धोखे से देश एक पीड़ादायी दौर से गुजरने को अभिषप्त हो गया। लेकिन देश का सामाजिक-आर्थिक ढ़ांचा एक क्रमिक विकास में आगे बढ़ता रहा और तदोनुरूप वर्ग शक्ति संतुलन भी बदलता रहा। इसी प्रक्रिया में आज उत्पादन सम्बन्धों, सामाजिक-आर्थिक संरचना, राज्य सत्ता के चरित्र व कार्य प्रणाली में भारी बदलाव आ चुका है।

यह भी ध्यानतलब है कि आज पतनशील पूँजीवाद के संरक्षण में साम्प्रदायिकता और जातिवादी विभेद एक बटबृक्ष का रूप ले चुका है। मोबाइल, इण्टरनेट, वट्सऐप, फेसबुक के इस दौर में सोसल मीडिया पर वर्चास्व बना प्रतिगामी विचारों की सुनामी पैदा की जा रही है। मेहनतकष वर्गों के बीच नित नये हमलों का रूप विस्तारित होते जा रहे हैं।

देश में क्रान्ति, उसके लिए क्रन्तिकारी शक्तियों की एकता और उससे निर्मित एक सही क्रान्तिकारी पार्टी का गठन और वस्तुपरक क्रान्तिकारी कार्यक्रम के निर्धारण के लिए उपरोक्त बातों पर गहन मंथन आज का जरूरी कार्यभार बनता है।

निष्चित रूप से ऐसे हालात में भगतसिंह की प्रासंगिकता और ज्यादा बढ़ जाती है। नये दौर की क्रान्ति के लिए भगतसिंह व उनके साथियों के विचारों की रौशनी में उनके द्वारा प्रस्तावित कार्यक्रम के मर्म को समझना और तदोनुरूप आज के दौर की दिशा तय किया जाना ही समयाचीन है।

शहीदे आजम ने चेताया था कि ”यदि आज भी हमारी शक्ति बिखर रही है और क्रान्तिकारी शक्तियाँ एकजुट होकर न बढ़ सकीं तो ऐसा संकट आएगा कि हम उसे संभालने के लिए तैयार नहीं होंगे।“ इस चेतावनी की अनदेखी पर्याप्त हो चुकी है, आइए इसपर अमल करें।

10 thoughts on “आज का दौर और शहीदे आज़म भगत सिंह

Comments are closed.

भूली-बिसरी ख़बरे