भगतसिंह की विरासत के हमलावरों को पहचानों

शहीदे आज़म भगत सिंह के जन्म दिवस (28 सितम्बर) पर विशेष लेख

शहीदे आज़म भगत सिंह निर्विवाद रूप से सर्वप्रिय क्रान्तिकारी नेता के रूप में स्थापित हैं। इसी के साथ उनकी क्रान्तिकारी छवि को बिगाड़ने की कुत्सित साजिशें भी तेज हो गई हैं। यहाँ तक कि संघ पोषित तत्वों द्वारा उनकी शहादत दिवस 23 मार्च को वेलेंटाइन डे 14 फरवरी स्थापित करने तक के कुचक्र रचे जा चुके हैं। ऐसे में बरिष्ठ साहित्यकार सुधीर विद्यार्थी का यह आलेख आज बेहद प्रासंगिक है।

भगतसिंह की तस्वीर से छेड़छाड़

विगत अनेक वर्षों से शहीद भगतसिंह को याद करने का सिलसिला तेजी से चल पड़ा है। सारे राजनीतिक और सांस्कृतिक संगठन उनकी तस्वीर पर फूल-मालाएं चढ़ा रहे हैं। यहाँ तक कि कुछ समय पूर्व हिंदी सिनेमा ने भी इस क्रांतिकारी शहीद की छवि को बेचने के लिए एक साथ पाँच-पाँच फिल्में बना डालीं। दक्षिणपंथियों से लेकर मध्यमार्गी और वामपक्ष के भीतर भी भगतसिंह को लेकर अनेक तरह की हलचलें दिखाई पड़ जाती रहीं।

इस शहीद का जन्मशताब्दी वर्ष आते-आते तो उनके सिर पर लगा हैट उतार कर बाकायदा पगड़ी पहना दी गई। यह सब एक सोची-समझी साजिश के तौर पर हुआ।

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एक ओर जहाँ भगतसिंह को विचार की दुनिया से पूरी तरह काटकर उन्हें ’वंदेमातरम्’, ’भारतमाता की जय’ और ’इन्कलाब ज़िंदाबाद’ का उद्घोष कर ’मेरा रंग दे वसंती चोला’ गाते हुए हंसते-हंसते फांसी के फंदे में झूल जाने वाले राष्ट्रवादी नौजवान के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा तो दूसरी ओर भी उनके हाथ में अपने-अपने दलों के झण्डे थमाने में कोई हिचक नहीं दिखाई दी।
उत्तर भारत में विश्व हिंदू परिषद हिंदू हित चिंतक अभियान चलाती रही है जो अपने प्रचार में जिन पोस्टरों-चित्रों का इस्तेमाल करती है उनमें भगतसिंह, चन्दशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस को उग्र हिंदुत्व के नायक रहे विनायक दामोदर सावरकर के साथ दिखाती है। सावरकर के संग अन्य क्रांतिकारियों को रखे जाने का उद्देश्य यही है कि उन क्रांतिकारियों की विचार चेतना पर पर्दा डाल दिया जाए।

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इतिहास का कौन जानकार यह कह सकता है कि सावरकर को छोड़कर किस क्रांतिकारी ने हिंदू राष्ट्र की कल्पना के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट किए। क्या यह भगतसिंह और उनके साथियों की क्रांतिकारी प्रगतिशील विचारधारा से छेड़छाड़ नहीं है।

भगतसिंह जैसे मार्क्सवादी चेतना से सम्पन्न क्रांतिदृश्टा को विहिप के पोस्टर/वैनर पर रखे जाने के पीछे आखिर कौन-सा तर्क है जबकि विहिप के इस अभियान में जो सामग्री बाँटी जा रही है उसमें राममंदिर,रामसेतु,अमरनाथ श्राइन बोर्ड और गंगा आंदोलन के साथ ही गोधरा कांड के महिमामंडन जैसे हिंदुत्व प्रेरित मामले बहुत उग्र रूप में दर्शाए गए हैं। विहिप 51 लाख हिंदू हित चिंतकों के भर्ती अभियान को लेकर इन क्रांतिकारी शहीदों की विचार संपदा के साथ खिलवाड़ करने पर खुलेआम आमादा है।

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कौन नहीं जानता कि भगतसिंह ’मैं नास्तिक क्यों हूं’ जैसे पर्चे को लिखने वाले खालिस धर्मनिरपेक्ष थे और नेता जी सुभाष ने तो ’स्वतंत्रता संग्राम और वामपंथ’ तथा ’फारवर्ड ब्लाक ही क्यों’ जैसे आलेखों के जरिए अपने पक्ष और मन्तव्यों को स्पष्ट करने की सार्थक कोशिशें कीं।

भगतसिंह के साथ दूसरा बड़ा खतरा उस क्रांतिकारी चिंतक को प्रदर्शन की वस्तु और बिकाऊ माल में तब्दील कर देना है। यह कम खेदजनक नहीं है कि इस नासमझी के लिए वामपंथी कहे जाने वाले संगठन और लेखक भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। कुछ निहित स्वार्थों के चलते लोगों द्वारा भगतसिंह की स्मृति को बहुत निर्लज्ज तरीके से सत्ता का मोहताज भी बना दिया जा रहा है।

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भगतसिंह की धर्मनिरपेक्षता अथवा उनकी नास्तिक विचारधारा पर प्रहार करते समय उनके ’मैं नास्तिक क्यों हूं’ निबंध को नजरन्दाज करने का कोई अर्थ नहीं है। कुछ लोग जो इस क्रांतिकारी की छवि को देवत्व सौंप रहे हैं वे भी उस इतिहास और परम्परा का कम नुकसान नहीं कर रहे हैं।

(इस लेख के लेखक सुधीर विद्यार्थी ने भारत के क्रान्तिकारियों पर बेहद गम्भीर व शोधपरक काम किया है। भगत सिंह जैसे तमाम क्रान्तिकारियों की उनके द्वारा लिखी गई जीवनियाँ अपने आप में दस्तावेज हैं।)

इस श्रृंखला की अगली कड़ी भी हम प्रकाशित करेंगे

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