जहाँ से मज़दूर आंदोलन आगे जायेगा !

क्या देश का मज़दूर आंदोलन आगे बढ़ रहा है? पिछले एक दशक में देश के अलग-अलग प्रदेशों में छोटे बड़े बहुत सारे कारखानो और उद्योगों में मज़दूरों ने जबरदस्त संघर्ष किया है। लेकिन कुल मिलाकर मज़दूर आंदोलन आगे बढ़ रहा है कि नहीं इस सवाल का कोई निश्चित उत्तर आम संघर्षशील मज़दूरों के पास उपलब्ध नहीं है। हम इस लेख मे इस महत्वपूर्ण सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं।

यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए कि देश के पुराने औद्योगिक इलाकों में आज मज़दूर आंदोलन मूलतः बंद कंपनियों के मज़दूर आंदोलन तक सीमित हो गया है। कोलकाता, कानपुर, मुंबई जैसी जगहों के आसपास के औद्योगिक इलाकों में अभी यही स्थिति बनी हुई है। आज मज़दूर आंदोलन के नए-नए केंद्र विकसित हो रहे हैं। नए औद्योगिक इलाकों का मज़दूर आंदोलन ही आज भारत के मज़दूर आंदोलन में नेतृत्वकारी भूमिका निभा रहा है। प्रस्तुत लेख में, हम नए औद्योगिक इलाकों के मज़दूर आन्दोलन के बारे में ही अपनी चर्चा को केंद्रित करेंगे।

नये दौर का मज़दूर उभार : उम्मीदों के बीच जीवंत समस्याएं

सन् 2016 के 18 व 19 अप्रैल को बेंगलुरु के गारमेंट मज़दूरों ने दो दिन के लिए बेंगलुरु के पूरे गारमेंट उद्योग को ठप कर दिया था। मुद्दा था 10 फरवरी, 2016 के भारत सरकार के श्रम और रोजगार मंत्रालय का एक फैसला। जिसके तहत 58 साल उम्र (रिटायरमेंट) के पहले मज़दूर अपने पीएफ का पूरा पैसा नहीं निकाल सकता। बेंगलुरु के एक लाख गारमेंट मजदूरों ने केंद्र सरकार को अखिल भारतीय स्तर पर अपना फैसला वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया था।

पिछले एक दशक में किसी विशेष क्षेत्र के संघर्ष मे मज़दूरों की यह सबसे बड़ी जीत थी। मज़दूरों के संघर्ष के कारण केंद्र सरकार को पीएफ फंड से निकासी सम्बन्धी मज़दूर विरोधी उस फैसले को वापस लेना पड़ा था। लेकिन यह भी स्पष्ट कर लेना चाहिए कि बेंगलुरु के गारमेंट मजदूरों का संघर्ष वर्तमान परिप्रेक्ष में एक अपवाद है। इसी तरह से मुन्नार के चाय मज़दूरों का संघर्ष या गुड़गांव के मारुति मज़दूरों का संघर्ष भी एक अपवाद ही है।

मुन्नार के ‘कानन देवान हिल्स प्लान्टेसन’ के 5000 महिला मज़दूरांे ने अपने 13 दिन के जुझारु संघर्ष के दम पर केरल के मुख्यमन्त्री को त्रिपक्षीय वार्ता में शामिल होने के लिए मजबूर कर दिया था और अपनी प्रमुख माँग 20 फीसदी बोनस हासिल कर लिया था।

ठेका और स्थाई मज़दूरों को मिलाकर लगभग ढाई हजार मज़दूरों को कंपनी से निकाल देना और एक मैनेजर की मौत को सामने रखकर 13 मज़दूरों को आजीवन कारावास में धकेल देने के बावजूद हरियाणा मे मारुति सुजुकी ग्रुप की चारों कंपनी में प्रबंधन को आखिर मज़दूर यूनियन को स्वीकार करना पड़ा। इसी तरह से गुड़गांव, रुद्रपुर, पुणे, अहमदाबाद, वड़ोदरा, चेन्नई, तिरुवाल्लुर के नए औद्योगिक इलाकों में पिछले एक दशक में जो मज़दूर आंदोलन हुए उसमे कुछ-कुछ कारखानों में मजदूरों को छोटी-छोटी जीत भी मिली है।

लेकिन, संघर्षों मे जीत हासिल करने के बाद प्रबंधन के साथ उन जुझारु और स्वतन्त्र यूनियन के नेताओ का जिस तरह का रिश्ता बनता है, उससे दो-तीन साल के अंदर ही उन यूनियनों (जहाँ ऐसी कोई जुझारू युनियन बनना सम्भव हुआ) का जुझारूपन, मज़दूर हित के प्रति समर्पित रहना और स्वतंत्रता – तीनो ही खतरे में पड़ रहा है। सिर्फ कारखाने स्तर का नेतृत्व ही नहीं बल्कि आम मज़दूर भी इस तरीके से सोचने लग रहे हैं कि- ‘अगर संघर्षों से मिली हुई सुविधाएं बचा के रखना है तो संघर्ष के रास्ता को छोड़ना ही बेहतर है।’ दूसरी कंपनी के मज़दूरों के संघर्ष में साथ देने का मुद्दा कमजोर पड़ने लग जाता है। जबकि दोनों ही सोच मज़दूरो के हित के विपरीत है।

जबकि बेंगलुरु की गारमेंट मज़दूर, मुन्नार के चाय मज़दूर, गुड़गांव के मारुति मज़दूरों का संघर्ष आज के भारत का पूरे मज़दूर आंदोलन के संदर्भ में अपवाद है। फिर भी यह संघर्ष आम मज़दूरों की इच्छा या सोच के विपरित नहीं है। यह संघर्ष वर्तमान मज़दूर आंदोलन के बीच होते हुए भी भविष्य के आंदोलन का प्रतिनिधित्व कर रहा है। साथ ही साथ वर्तमान में आम मज़दूरों की कमज़ोरियां और मजबूरियां भी प्रकट कर रहा है।

इन आंदोलनों की सबसे बड़ी कमज़ोरी इसमें है कि एक समय बाद मज़दूर वर्गीय संघर्ष के रास्ते से भटक रहा है। कोई स्थायी समझ या संगठित ताक़त मज़दूर आंदोलन के भीतर पैदा करने में ये आंदोलन नाकामयाब हो रहे हैं। लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है?

स्वतन्त्र यूनियनों की महत्ता व सीमाएं

आज के समय की स्वतंत्र यूनियनें एक हद तक अपनी स्वतंत्रता बरकरार रखने एवं कंपनी के अंदर अपनी नीति व माँगें मनवाने और ‘जरूरी समझौता’ करने में सफल हो रही हैं। लेकिन दो मुद्दों में मजदूरों की असहाय स्थिति प्रकट हो रही है –

(1) ट्रेड यूनियनों की प्रदेश स्तर या अखिल भारतीय स्तर पर जो भी गतिविधि हो रही है (जोकि मूलतः स्वीकृत केंद्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा किया जा रहा है) उसमें मज़दूर अपनी भूमिका मूलतः नहीं देख पा रहा है। कुछ-कुछ कार्यक्रमों में जैसे कि – एक या दो दिवसीय अखिल भारतीय मज़दूर हड़ताल में आम मज़दूर का एक बड़ा हिस्सा स्वतःस्फूर्तता के साथ भाग लेने के बावजूद इन कार्यक्रमों की कोई निरंतरता न रहने का कारण, और प्लान्ट या इलाकाई स्तर पर दमन के खिलाफ हर रोज के गतिविधियों में उन नेताओ की कोई भूमिका न होने के कारण – केंद्रीय रूप में पूँजीपतियों के खिलाफ एकता व कार्रवाई करने की जो इच्छा मज़दूरों के अंदर है, वह कोई भी रूप ग्रहण नहीं कर पा रहा है;

(2) मज़दूर अपनी ज़िदगी और कारखाना स्तर के संघर्षों पर अंतरराष्ट्रीय और देश के पूँजीपति वर्ग की राजनीतिक नीतियां और कार्यकलाप का असर देख पा रहा है। इससे राजनीतिक संघर्षों का महत्व एक हद तक समझ पा रहा है। लेकिन वर्तमान मे हो रही राजनीतिक गतिविधियों के साथ अपनी वर्गीय राजनीतिक सक्रियता को जोड़कर ना देख पाने और समझ पाने के कारण एक जबरदस्त अस्थिरता और भ्रम की स्थिति बनी हुई है। मज़दूर वर्ग के हित का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी या ताक़तें आज संसदीय व्यवस्था में उपस्थिति नहीं है, फिर भी आम मज़दूर बदलाव के लिए बस संसदीय चुनाव को एकमात्र रास्ते के रूप में देख रहे हैं। मज़दूरो की समझदारी व संगठित ताक़त के अभाव के कारण देश में श्रम कानूनों में मज़दूर विरोधी भयंकर बदलाव के बावजूद भारत के मज़दूर वर्ग ने पूँजीपतियों के खिलाफ कोई प्रतिरोध खड़ा नहीं किया।

आज मज़दूर आन्दोलन के समक्ष खड़ी कुछ समस्याएं व चुनौतियाँ

आज देश का मज़दूर आन्दोलन तमाम गम्भीर समस्याओं व चुनौतियों को झेल रहा है। पूर्व में कही गई बातों के साथ हम कुछ अन्य महत्वपूर्ण बातों को सोचने के सवाल के रूप में यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं-

1- आज के मज़दूर आंदोलन के केंद्र में ठेका मज़दूरों के दमण-शोषण का सवाल, उनके अधिकारों का सवाल, संगठित होने का प्रश्न- उपेक्षित है। पिछले एक दशक में अलग-अलग प्रदेश में हुए महत्वपूर्ण मज़दूर संघर्षो के पहले चरण में ठेका मज़दूरों के साथ स्थायी मज़दूरों की एकता स्पष्ट रूप से सामने आयी। लेकिन उन संघर्षों में संयुक्त नेतृत्व के हिस्से के रूप मंे ठेका मज़दूर नेतृत्व में नही आया। इसलिए जैसे ही संघर्ष संकट में फंसा, ठेका मज़दूरो के हित, अधिकार और उनके संगठित होने का सवाल पीछे चला गया। कंपनी आधारित यूनियन बनाने के सवाल पर अभी तक पहल और नेतृत्व स्थायी मज़दूरो ने ही की है। संघर्ष इस तरीके से चलने के कारण ठेका मज़दूरों मे स्थायी मज़दूरों के प्रति एक अविश्वास बढ़ता गया है। आज के दौर के मज़दूर आन्दोलन की यह एक खास समस्या है।

2- भारत जैसे देश में, सामाजिक गैर बराबरी – जाति आधारित, धर्म आधारित, लिंग आधारित भेदभाव अभी बहुत ज्यादा बना हुआ है। यह मज़दूर आन्दोलन के विकास में बाधक है। यह समाज में एक सामान्य जनवादी चेतना के विकास में भी बाधक है। इसलिए हर तरह की सामाजिक गैर बराबरी के खिलाफ आज के संघर्षांे व गतिविधियों में शामिल होना मज़दूर आन्दोलन के विकास के संदर्भ से भी एक महत्वपूर्ण कर्तव्य बनता है।

3- भारतीय समाज में फासीवादी आन्दोलन (धर्म-जाति-लिंग-नस्ल आधरित उन्माद) एक जन आंदोलन के रूप में जिस तरह विकसित हो रहा है, उसके साथ अंतर्राष्ट्रीय और देश के पूँजीपतियों के मुनाफे का क्या स्वार्थ बना हुआ है, इस सच को ज्यादा से ज्यादा मज़दूरों तक पहुँचाने का काम आज के मज़दूर आन्दोलन के विकास के काम का एक ज़रूरी हिस्सा बन चुका है। पिछले 2 दशक में भारत के मज़दूरों की औसत वास्तविक मज़दूरी लगातार घटती चली गई है। यह एक सोची समझी योजना के हिसाब से पूँजीपति वर्ग द्वारा की गई है, साम्राज्यवादियांे की इसमें अहम भूमिका है। आज के अगुआ मज़दूरों को पूँजीपति वर्ग द्वारा संगठित मज़दूरों से किये जा रहे इस अति-शोषण के साथ, फासीवादी आन्दोलन के रिश्ते को अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए। पूँजीपतियों द्वारा किये गये भयंकर दमन और अति-शोषण से पैदा हुई चेतना और संघर्ष को कमज़ोर और भ्रमित कर देने के लिए 1990 के दशक से ही भारत का पूँजीपति वर्ग आरएसएस-भाजपा जैसी ताकतों को मजबूत समर्थन दे रहा है, ताकि देश मे धर्म के नाम पर दंगा-फसाद बढ़ जाये, जाति आधारित भेदभाव यथासम्भव बढ़े।

स्वतःस्फूर्त आन्दोलनों को संगठित वैचारिक रूप देने की जरूरत

इन कठिन परिस्थिति में देश के अलग-अलग औद्योगिक इलाकों में संघर्षशील, जुझारू, ईमानदार मज़दूरों के संघर्ष की पहल बार-बार अलग-अलग रूप मे ही सही, दिखाई दे रही है। इन संघर्षों के आगे बढ़ने की मुख्य चुनौती यह है कि संघर्ष से निकले हुए समझदार और परिपक्व नेताओं की चेतना और एकता का विकास आने वाले समय में कैसे हो पाएगा? पूँजीवादी व्यवस्था का खात्मा जरूरी भी है और संभव भी है – यह सोच समाज में पूरी तरह से कमजोर हो जाने के कारण पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर ही छोटे-मोटे सुधार के लिए संघर्ष करने का वैचारिक आधार शक्तिशाली हो चुका है। लड़ाई पुराने अधिकारों को बचाने तक ही सीमित कर दी गयी है। इसे तोड़ने के लिए आज के मज़दूर नेताओं में एक नये समाज के लिए सपना, संकल्प, चिंतन और संघर्ष आवश्यक है।

पूँजीवादी व्यवस्था आज पूरे विश्व में गहरे संकट में फंसी हुई है। इस व्यवस्था की कमजोरियों को और साथ-साथ इसके बने रहने के कारण को जानना पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ मज़दूर आंदोलन को परिचालित करने के लिए जरूरी है। इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था के खात्मे के लिए निष्ठावान हर व्यक्ति और संस्था के लिए आज के मज़दूर आंदोलन में भूमिका निभाना ज़रूरी कर्तव्य बना रहेगा। साथ ही अगुआ मज़दूरों को भी इस भूमिका को समझना होगा।

मज़दूर आन्दोलन के अगुआ मज़दूरों की जिम्मेदारी आज काफी बढ़ गयी है। उन्हें आज के मज़दूर आंदोलन की पूँजीवाद विरोधी चेतना को उन्नत करने की पहल को भी आगे बढ़ाना होगा।

‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका, मार्च-अप्रैल, 2019 में प्रकाशित

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