जब मज़दूर आन्दोलन इंक़लाबी तेवर लेने लगा

आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें – 6

इतिहास का यह वह दौर था, जब पूरे देश में मज़दूर आन्दोलन नये आवेग से आगे बढने लगा था और वैचारिक परिपक्वता लेने के साथ इंक़लाबी तेवर के साथ सांगठनिक शक्ल लेने लगा था। ट्रेड यूनियनों के बनने से लेकर एटक तक का गठन होना, मई दिवस मनाने की परम्परा की शुरुआत और तमाम श्रम कानूनी अधिकारों को हासिल करने का यह महत्वपूर्ण दौर था। किसानो, छात्रों-युवाओं के आन्दोलन नये रूप में विकसित होने लगे थे। आगे पढ़ें…

धरावाहिक छठीं किस्त

पहली क़िस्त– आओ देश के मज़दूर इतिहास को जानें!

दूसरी क़िस्त – जब अमानवीयता की हदें भी पार हुईं

तीसरी क़िस्त– मज़दूर इतिहास : मजदूरों ने ली शुरुआती अंगडाई

चौथी क़िस्त– इतिहास में यूँ विकसित हुईं यूनियनें

पाँचवीं क़िस्तइतिहास: दमन के बीच संघर्षों का आगे बढ़ता दौर

मज़दूर वर्ग की क्रन्तिकारी चेतना के विकास का महत्वपूर्ण दौर

मज़दूर होशियार ओ किसान होशियार
मालिक के अत्याचार अब नहीं करेंगे स्वीकार
होशियार, होशियार, होशियार…!

1920 का दशक इतिहास में भारी उथल-पुथल भरा रहा है। एक तरफ 1917 में सोवियत क्रान्ति दुनियाभर की मेहनतकश अवाम के लिए एक नए दौर का आगाज़ था। इसने साम्राज्यवाद व पूँजीवाद पर वैचारिक और व्यवहारिक दोनो धरातलों पर श्रेष्ठता साबित की और मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी निर्माण के नित नये कीर्तिमान स्थापित किए। साथ ही प्रथम विश्वयुद्ध की विभीषिका ने भी दुनियाभर में जारी मुक्तिकामी संघर्षों का नया आयाम दिया। भारत में रौलेटऐक्ट के आने और जालियावाला बाग काण्ड के खूनी ताण्डव, असहयोग आन्दोलन से पूरे देश में एकीकृत आन्दोलन का शानदार उभार और गाँधी जी द्वारा अचानक उसे वापस लेने से जनमानस में पैदा गुस्सा और निराशा ने एक नयी सुगबुगाहट पैदा कर दी थी।

यह वह दौर था, जब पूरे देश में मज़दूर आन्दोलन नये आवेग से आगे बढने लगा था और सांगठनिक शक्ल लेने लगा था। ट्रेड यूनियनों के बनने से लेकर एटक का गठन होना, मई दिवस मनाने की परम्परा की शुरुआत और तमाम श्रम कानूनी अधिकारों को हासिल करने का यह महत्वपूर्ण दौर था। किसानो, छात्रों-युवाओं के आन्दोलन नये रूप में विकसित होने लगे थे। एक सर्वभारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनाने की जद्दोजहद आगे बढ़ रही थी।

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दमन के बीच देश का मुक्तिकामी संग्राम नयी करवटें ले रहा था। अपनी तमाम कमजोरियों के बावजूद सैद्धान्तिक और आन्दोलनात्मक बहसें गुणत्मक रूप से आगे बढ़ने लगी थीं। क्रान्तिकारी आतंकवादी कार्यदिशा के गर्भ से क्रान्तिकारी जनदिशा और धर्म आधारित सोच वैज्ञानिक भैतिकवादी सोच की दिशा में विकसित होने लगी थी।

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यही वह दौर था जब साम्प्रदायिक ताक़तें भी पनपने लगी थीं और मज़दूर आन्दोलन को इस घातक परिस्थिति से भी जूझना पड़ रहा था।

भगत सिंह व एचएसआरए का दौर और मज़दूर आन्दोलन

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उथल-पुथल भरे इस दौर में ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ और बाद में ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (एचएसआरए) का भी गठन हुआ, जिसने युवाओं का क्रान्तिकारीकरण किया और मज़दूर आन्दोलन को बल प्रदान किया।
गोरे हुक़्मरानों ने 1928 में मज़दूर अधिकारों पर बड़ा हमला बोला और दो और काले कानून ‘पब्लिक शेफ्टी बिल’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट’ पेश किये। तमाम विरोधों के बावजूद यह संसद में पारित होने की प्रक्रिया में आ गया। इसकी मुख़ालफत करते हुए एचएसआरए की ओर से शहीदे-आज़म भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने असंबली में बम धमाका करके बहरे कानों को सुनाने का काम किया था।

1928 में बारदोली, कानपुर, मेरठ व पंजाब में किसानों के सत्याग्रह आन्दोलन उठ रहे थे, तो लिलुआ रेलवे बर्कशाप, जमशेदपुर में टाटा मिलों व सफाई कर्मियों और बम्बई की कपड़ा मिलों में हड़तालें चल रही थीं। ‘किरती’, जिसके सम्पादक मण्डल में भगतसिंह थे, ने जून, 1928 में लिखा कि-

”1928 में हिन्दुस्तान में फिर प्राण धड़कते नजर आने लगे हैं। …उधर सत्याग्रह की धूम है और इधर हड़तालों का भी कम जोर नहीं। बड़ी खुशी इस बात की है कि फिर प्राण जगे हैं और पहले-पहल ही किसानों और श्रमिकों का युद्ध छिड़ा है। इस बात का भी आने वाले बड़े भारी आन्दोलन पर असर रहेगा। वास्तव में तो यही लोग हैं कि जिन्हें आज़ादी की जरूरत है। किसान और मज़दूर रोटी चाहते हैं और उनकी रोटी का सवाल तबतक हल नहीं हो सकता जबतक यहाँ पूर्ण आजादी न मिल जाये। वो गोलमेज कान्फ्रेंस या अन्य ऐसी किसी बात पर रुक नहीं सकते।“

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वे लिखते हैं ”…सबसे अधिक सेवा करने वाले भाईयों को हम भंगी-भंगी कहकर पास न फटकने दें और उनकी गरीबी का लाभ उठाकर थोड़े-से पैसे देकर काम कराते रहें और बेगार भी खूब घसीटें। खूब! आखिर उन्हें उठना ही था।… हम चाहते हैं कि सभी किसान और मज़दूर संगठित हों और अपने अधिकारों के लिए यत्न करें।“

अपने अन्तिम दौर में लिखे दस्तावेज में भगत सिंह साफ तौर पर कहते हैं कि ”हमें याद रखना चाहिए कि श्रमिक क्रान्ति के अतिरिक्त न किसी और क्रान्ति की इच्छा करनी चाहिए और न ही वह सफल हो सकती है।“ इसी दस्तावेज में वे बुनियादी कामों के तौर पर वे बताते हैं कि ”ट्रेड यूनियनों पर कब्जा करना और नयी ट्रेड यूनियनों व संगठनों को जुझारू रूप में स्थापित करना“ और ”दस्तकारों की समितियाँ, मज़दूरों और बौद्धिक काम करने वालों की यूनियनें हर जगह स्थापित की जाये“।

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मई दिवस की शानदार परम्परा

सन् 1886 में शिकागो, अमेरिका के मज़दूरों द्वारा आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम और आठ घण्टे मनोरंजन की माँग के साथ हुए ऐतिहासिक आन्दोलन व दमन के बाद 1 मई को मई दिवस मनाने की परम्परा शुरू हुई, जो सन् 1889 में अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस घोषित हुआ।

यूँ तो भारत में 1862 में हावड़ा के रेल मज़दूरों ने 8 घण्टे काम की माँग को लेकर कामबन्दी की थी। फिर भी भारत में मई दिवस मनाने की पहल देर से शुरू हुई।

प्राप्त तथ्यों के आधार पर, हमारे देश में ’मई दिवस’ 1923 में पहली बार मनाया गया था। सिंगारवेलु चेट्ट्टियार देश के कम्युनिस्टों में से एक तथा प्रभावशाली ट्रेड यूनियनिस्ट और मज़दूरों के नेता थे। उन्होंने अप्रैल 1923 में भारत में मई दिवस मनाने का सुझाव दिया था। उन्होंने फिर कहा कि सारे देश में इस मौके पर मीटिंगे होनी चाहिए। मद्रास (चेन्नई) में मई दिवस मनाने की अपील की गयी। इस अवसर पर वहाँ दो जनसभाएँ भी आयोजित की गईं तथा दो जुलूस निकाले गए। पहला उत्तरी मद्रास के मज़दूरों का हाईकोर्ट ‘बीच’ पर तथा दूसरा दक्षिण मद्रास के ट्रिप्लिकेन ‘बीच’ पर निकाला गया।

सिंगारवेलू ने इस दिन ‘मज़दूर किसान पार्टी’ की स्थापना की घोषणा की तथा उसके घोषणा पत्र पर प्रकाश डाला। कांग्रेस के कई नेताओं ने भी मीटिंगों में भाग लिया। सिंगारवेलू ने हाईकार्ट ‘बीच’ की बैठक की अध्यक्षता की। जबकि दूसरी बैठक की अध्यक्षता एस. कृष्णास्वामी शर्मा ने की तथा पार्टी का घोषणा पत्र पी.एस. वेलायुथम द्वारा पढ़ा गया। इन सभी बैठकों की रिपोर्ट कई दैनिक समाचार पत्रों में छपी। उस वक़्त मास्को से छपने वाले वैनगार्ड ने इसे भारत में पहला मई दिवस बताया।

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1923 में चेट्टियार ने मई दिवस सम्बोधन में कहा था कि ”1 मई विश्व के तमाम मज़दूरों के लिए एक पवित्र दिन है। भारत के मज़दूरों को भी इस प्रकार से मई दिवस मनाना चाहिए कि दुनिया के अन्य भागों के मज़दूर उनके सहयोग को पहचान सकें और हम खुद अपनी शक्ति का औचित्य साबित कर सकें। हमें मज़दूर कार्यालय के लिये नींव के पत्थर की स्थापना करनी चाहिए, ताकि आने वाले वर्षों में यह भव्य कार्यालय बन सके और देश के शोषित-पीड़ित मज़दूरों के लिए एक शक्ति का श्रोत बन सके। उनको वास्तव में यह महसूस हो कि वे एक ही वर्ग के हैं।

मई दिवस का आगे बढ़ता सिलसिला

1925 में लंदन में रह रहे भारतीय नाविकों ने तो 1926 में लाहौर के तांगा मज़दूरों ने मई दिवस की परम्परा को आगे बढ़ाया।

1927 में मज़दूरों के पहले ट्रेड यूनियन महासंघ एटक के अहवान पर कोलकता, चेन्नई व मुम्बई में तमाम प्रतिबन्धों को झेलकर भी इसे श्रमिक दिवस के रूप में मनाया गया।

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1927 में मद्रास (चेन्नई) में सिंगारवेलु की पहल पर मई दिवस पुनः मनाया गया। इस अवसर पर उन्होंने मज़दूरों तथा अन्य लोगों को दोपहर की दावत दी। शाम को एक विशाल जूलुस निकाला गया, जिसने बाद में एक जनसभा का रूप ले लिया। इस बैठक की अध्यक्षता डा. पी. वारादराजुलू ने की। कहा जाता है कि तत्काल लाल झंडा उपलब्ध न होने के कारण सिंगारवेलु ने अपनी लड़की की लाल साड़ी का झंडा बनाकर अपने घर पर लहराया।

1928 में कोलकता में मईदिवस प्रतिबन्धित होने के बावजूद मज़दूरों ने इसे उत्साह से मनाया। एक मील लम्बे जुलूस के बाद एक विशाल जनसभा भी आयोजित हुई।

तबसे देश में मई दिवस का सिलसिला अनवरत जारी है – कहीं रस्म-अदायगी के रूप में तो कहीं संघर्षों के संकल्प दिवस के रूप में।

दमन और मुक़दमों से भी नहीं रुका मज़दूरों का कारवां

सन् 1927-39 के दौर में मज़दूर आन्दोलनों में एकबार फिर तेज उभार आया। इसमें वामपंथी विचार व नेतृत्व की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यह वही दौर था, जब दमनकारी ट्रेड डिस्प्यूट ऐक्ट और पब्लिक सेफ्टी बिल बना। दमन तेज हुआ और मज़दूरों के क्रान्तिकारी नेताओं को पेशावर षड़यंत्र केस, कानपुर बोल्सेविक षड़यंत्र केस, लाहौर षड़यंत्र केस, व मेरठ षड़यंत्र केस में फंसाया गया।

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1929 में मेरठ षड़यंत्र मुकदमें में 31 क्रान्तिकारियों पर मज़दूरों की ट्रेड यूनियन संगठित करने, हड़तालें संगठित करने, कम्युनिस्ट गतिविधियों में शामिल होने जैसे आरोपों में गिरफ्तार किया गया और 27 मज़दूर नेताओं को सजा हुई। यह मुक़दमा लगभग साढ़े चार साल तक चला, जिसमें 1 लाख 60 हजार पौण्ड की भारी रकम खर्च हुई। लेकिन ये दमन भी संघर्षों पर रोक नहीं लगा सके।

मेरठ षड्यंत्र केस में फंसाए गए मज़दूर व मज़दूर नेता जेल के बाहर

इस दौर में 1927 की बंगाल-नागपुर रेलवे खडगपुर के मज़दूरों की दो बड़ी हड़तालें काफी अहम हैं। आन्दोलन का मूल कारण तो रेल आधुनिकीकरण के बहाने छँटनी थी, लेकिन हड़ताल के दौरान मज़दूरों में आर्थिक माँगों के साथ साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की चेतना भी विकसित हुई। हर जगह सरकारी मशीनरी ने आतंक व दमन का सहारा लिया।

इसके बावजूद मज़दूर आन्दोलनों का अविराम क्रम आगे बढ़ता रहा। उस दौर में बंगाल के लिलुहा रेल मज़दूर हड़ताल, ग्रेट इण्डिया पेनिसुलर रेलवे में हड़ताल, निजाम गरनटीड स्टेट रेलवे की हड़ताल, बाम्बे बड़ौदा और सेण्ट्रल रेलवे के मज़दूर संघर्ष, गिरनी कामगार यूनियन (रेडफ्लैग) के नेतृत्व में मुम्बई कपड़ा मिल मज़दूरों की 1928 व 1929 की हड़तालें, बंगाल जूट मिल मज़दूरों की हड़ताल तथा टाटा आइरन एण्ड स्टील वर्क्स में 1928 की आम हड़ताल प्रमुख थे।

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जब मज़दूरों ने स्वतंत्र भारत गणराज्य का नारा बुलन्द किया

1928 में कोलकता में कांग्रेस का सम्मेलन चल रहा था। इसी दौरान मछुआरों की यूनियन के आह्वान पर बंगाल के जूट, रेलवे व अन्य मज़दूर संगठनों के लगभग 30 हजार मज़दूर, ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो’, ‘स्वतंत्र भारत गणराज्य अमर रहे’, ‘हमारे पास जंजीरों के अलावा खोने के लिए कुछ नहीं है’ जैसे क्रान्तिकारी नारों के साथ सभा स्थल गये और कांग्रेस के सामने पूँजीवादी और साम्राज्यवादी शोषण से छुटकारा और पूर्ण स्वतंत्रता स्थापित करने के लक्ष्य का प्रस्ताव रखा।

दुनिया का पूँजीवाद आर्थिक मंदी के दुश्चक्र में फँसा और संकट ठेला मजदूरों पर… अगली क़िस्त में पढ़ें. . .

(क्रमशः जारी. . .)

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