“गमन” : प्रवासी मेहनतकशों के दर्द की दास्तान
सिनेमा : आइए सार्थक फिल्मों को जानें-6
कोरोना/लॉकडाउन के बीच पलायन का जो दर्द समाज के पटल पर उभरा है, उसने भारत-पाक विभाजन की त्रासदी को उभारकर सामने ला दिया है। ऐसे में प्रवासी मेहनतकशों पर बनी फिल्म “गमन” की याद आना स्वाभाविक है। “सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यों है, इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है ” की याद के साथ साथी अजीत श्रीवास्तव की बात…
कौन लोग हैं वे, जो रेलगाड़ियों में भर भर कर रोज दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों की ओर जा रहे होते हैं? कौन लोग हैं वे जो इन चमकते हुए शहरों में फल- सब्जी, दूध बेचने से लेकर साफ सफाई के काम, गोदामों और दुकानों में काम करने से लेकर रिक्शा और टॅक्सी चलाने के काम रोज ब रोज किया करते हैं? कौन लोग थे वे जो कोरोना के संकट के समय में दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों से सैकड़ों मील दूर अपने गावों की ओर पैदल ही निकल पड़े थे? ये वही लोग हैं, जिनके पसीने के दम से शहरों की चमक कायम होती है।
1978 में आई मुजफ्फर अली की फिल्म “गमन” इन्हीं मेहनतकश लोगों के दर्द, दुविधा और संघर्षों की दास्तान है।
फिल्म का नायक ग़ुलाम अली यूपी के एक गाँव का बेरोजगार नौजवान है। उसकी जमीन गाँव के ठाकुर ने हथिया ली है। गाँव में रोजगार है नहीं और उसके घर में बीमार माँ और उसकी पत्नी है, जो छोटे मोटे काम करके घर का खर्च चला रही हैं। मुंबई में रहने वाले अपने दोस्त लल्लूलाल तिवारी के कहने पर गुलाम बंबई (मुंबई) चला जाता है और पहले तो टॅक्सी की सफाई और बाद में टैक्सी चलाना शुरू कर देता है।
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लल्लू की भी और उसके साथ के दूसरे प्रवासियों की भी अपनी अपनी कहानियाँ और समस्याएं हैं। कुल मिलाकर लाख मेहनत करने के बावजूद इन लोगों के पास इतने पैसे नहीं हो पाते कि परिवार को अपने पास बुला सकें, एक छत का इंतजाम कर सकें या फिर घर वापस ही जा सकें।
मूल कहानी के अलावा भी कई कहानियाँ साथ साथ चल रही होती हैं और इन प्रवासियों की समस्याओं की हकीकत हमारे सामने रख रही होती हैं।
ग़ुलाम अली के घर में उसकी माँ और बीवी ग़ुलाम का इंतजार कर रही होती हैं। लल्लू की प्रेमिका यशोधरा और लल्लू एक कोने की तलाश में ज़िंदगी खपा रहे हैं, जहाँ दो पल वे अकेले सुकून के साथ बिता सकें। यशोधरा के पिता बीस साल टैक्सी चलाने के बाद दिमागी संतुलन खो चुके हैं। यशोधरा का भाई यशोधरा को सऊदी भेज कर पैसे बनाना चाहता है। यशोधरा के मना करने पर लल्लू और यशोधरा को उसका भाई अपने चाचा के साथ मिल कर मार देता है।
ग़ुलाम बंबई आने के बाद देखता है कि इस शहर की मशीनी भागदौड़ के बीच किस तरह इंसान संवेदना खोता जा रहा है। किसी इंसान के गाड़ी से कट कर मरने पर मुसाफिरों को उस इंसान के मरने की नहीं बल्कि लेट होने की चिंता हो रही होती है। ग़ुलाम के उस्ताद की जब दुर्घटना में मौत हो जाती है तो साथी ड्राइवर उसके नाम से नहीं बल्कि उसकी गाड़ी के नंबर से उसकी सूचना देते हैं।
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मशहूर गीत “सीने में जलन आँखों में तूफान सा क्यों है, इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है” जब बज रहा होता है, तो टैक्सी चलाते ग़ुलाम के चेहरे के भाव और मशीनी अंदाज में भाग रहे लोगों के दृश्य इस ग़ज़ल के शब्दों में अर्थ भर रहे होते हैं।
ग़ुलाम की टैक्सी में बैठने वाली सवारियाँ अक्सर पैसे वाले लोग होते हैं और उनके संवाद ग़ुलाम के मन में चल रहे भावों के साथ मिल कर जो कंट्रास्ट पैदा करते हैं, वह अपने आप में एक दास्तान है।
फिल्म में कैमरा वर्क भी जबरदस्त है, जब एक ही फ्रेम में ऊंची ऊंची इमारतें और झुग्गियाँ और उनके ऊपर हवा में गुम होता हवाई जहाज दिखाई देते हैं, तो अपने आप में यह दृश्य शोषण और गैरबराबरी की सारी कहानी बयान कर देता है।
ग़ुलाम जब रास्ते में शादी का दृश्य देखता है तो उसके दिमाग में अपनी शादी की तस्वीरें चलने लगती हैं और जब वह लोगों को नाचते देखता है तो उसके दिमाग में चल रहे गाँव के ताजिये के जुलूस के दृश्य फ्रेम दर फ्रेम हमारे सामने आते हैं।
फिल्म के आखरी दृश्य में ग़ुलाम सामान बांध कर घर जाने के लिए स्टेशन जाता है, काफी देर तक वह चेहरे पर दुविधा लिए खड़ा है, और ट्रेन चल देती है। परछाइयों के कदम स्टेशन के बाहर की तरफ जा रहे होते हैं और ग़ुलाम के भी।
इस फिल्म को बने चालीस साल से ऊपर हो चुके हैं, पर मेहनतकश तबके के हालात अभी भी वैसे ही हैं, आज भी नौजवान रेलगाड़ियों में भर भर कर इस शहरों की ओर जाने को मजबूर हैं और ये निर्मम और अजनबी शहर उनके जीवन को निचोड़ कर आज भी उसी तरह जगमगाये जा रहे हैं।
इस फिल्म को देखिए और महसूस करिए कि कैसे बहुत सारा वक़्त बीत जाने के बाद भी उनका दर्द और उनकी दुविधा ठीक वैसी की वैसी ही बनी हुई है। फिल्म को यू ट्यूब सहित दूसरे प्लेटफार्मों पर देखा जा सकता है।
-अजीत श्रीवास्तव