भारत में किसानों की अंतहीन दुर्दशा की कहानी : दो बीघा जमीन
सिनेमा : आइए सार्थक फिल्मों को जानें-7
“दो बीघा जमीन” भारतीय सिनेमा की उन शुरुआती फिल्मों में से है जिन्होंने समानांतर सिनेमा की नींव डाली और सिनेमा को जनता के दुख तकलीफ और जरूरी मुद्दों को उठाने के लिए इस्तेमाल किया। …’60 के दशक की इस फिल्म के बारे में जानिए साथी अजीत श्रीवास्तव से…
इस कृषि प्रधान देश में किसान होना किसी अभिशाप से कम नहीं है। जब देश गुलाम था तब भी और आजाद होने के बाद भी। भले ही सरकारें बदली हैं, लेकिन किसान शोषित होने को और आत्महत्या करने को मजबूर है। देश का यही मेहनतकश तबका पूरे देश का पेट भरता है, लेकिन इसकी समस्याओं की कोई सुनवाई नहीं होती।
1953 में आई बिमल रॉय की फिल्म “दो बीघा जमीन” किसानों की इसी अंतहीन दुर्दशा की कहानी है और आधी सदी से ज्यादा बीत जाने बावजूद इस फिल्म के जरिए उठाई गई समस्याएं और किसानों की पीड़ा आज भी वैसी की वैसी ही देखी जा सकती है।
यह फिल्म एक किसान शंभू महतो (बलराज साहनी) की कहानी है। शंभू के पास दो बीघा जमीन है। इसी दो बीघा जमीन पर शंभू और उसके परिवार के गुजर बसर का जिम्मा है। गाँव में अकाल पड़ा हुआ है। अकाल का मतलब होता है कि किसान कर्ज में डूब जाएगा। यही शंभू के साथ भी होता है।
गाँव का जमींदार अपनी जमीनों को कारखाना बनाने के लिए बेचना चाहता है। इसी जमीन के बीच में शंभू की दो बीघा जमीन का टुकड़ा भी है और जमींदार को पूरा भरोसा है कि वह जमीन के इस टुकड़े को किसी न किसी तरह हथिया ही लेगा। अब जमींदार शंभू से उसका कर्ज चुकाने या अपनी जमीन उसे सौंप देने के लिए कहता है।
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घर का सारा समान और पत्नी की कान की बाली बेचकर शंभू कर्ज के 65 रुपये चुकाने जाता है तो पता चलता है कर्ज की रकम अब 235 रुपये हो चुकी है और जमींदार ने उसके पिता द्वारा वर्षों तक की गई बेगारी को कर्ज में से घटाया ही नहीं। मामला कोर्ट में जाता है और शंभू को कोर्ट से फैसला मिलता है कि तीन माह के अंदर वह 235 रुपये चुकाये वरना उसकी जमीन नीलाम कर दी जाएगी।
शंभू को उस रकम का इंतज़ाम करने के लिए कलकत्ता जाना पड़ता है और पहले वह कुली का काम करता है और बाद में हाथ-रिक्शा चलाने लगता है। तमाम दिन हाड़ तोड़ मेहनत के बाद और दुनिया भर की मुसीबतों को सहने के बाद जब तीन महीने की अवधि खतम होने वाली होती है तो जल्दी से जल्दी पैसे जुटाने के चक्कर में शंभू का एक्सीडेंट हो जाता है और उसको खोजते उसकी पत्नी शहर आ जाती है और उसका भी एक्सीडेंट हो जाता है।
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सारे जुटाए हुए पैसे इलाज में खर्च होते हैं और जब परिवार गाँव वापस आता है तो उसकी जमीन नीलाम हो चुकी है। शंभू अपनी जमीन से एक मुट्ठी मिट्टी लेना चाहता है, पर चौकीदार वह भी छीन लेता है और अब खाली हाथ शंभू और उसका परिवार भूमिहीन मजदूर मे तब्दील हो चुके हैं।
“दो बीघा जमीन” भारतीय सिनेमा की उन शुरुआती फिल्मों में से है जिन्होंने समानांतर सिनेमा की नींव डाली और सिनेमा को एक माध्यम की तरह इस्तेमाल करके जनता के दुख तकलीफ और जरूरी मुद्दों को उठाने के लिए इस्तेमाल किया। साथ ही यह फिल्म आने वाले कई दशकों तक समानांतर सिनेमा के साथ साथ व्यावसायिक सिनेमा में कहानियों को प्रेरित करने वाली ट्रेंड सेटर फिल्म भी साबित हुई।
फिल्म की खूबसूरती इसकी स्पष्ट सामाजिक व राजनीतिक समझ की वजह से है। फिल्म का नायक गरीब जरूर है पर उसका आत्मबल और उसके जीवन मूल्य बहुत ऊंचे हैं। वह चोरी के पैसों से दवाई नहीं खरीद सकता। वह अपनी जमीन भले न बचा पाए, पर वह कोई गलत काम नहीं करेगा। बिना किसी कोरी भावुकता के फिल्मकार ने उसकी समस्याएं परदे पर दिखाईं हैं, लेकिन उससे कोई बेचारगी नहीं पैदा होती, बल्कि इस सिस्टम से नफरत पैदा होती है।
यह फिल्म इस लिए भी महत्वपूर्ण है कि इसके जरिए आप 1960 के दशक के भारत को, उस समय के गाँव को, आजादी के बाद के उदारतापूर्ण जीवन मूल्यों को और सबसे बढ़कर किसानों के भूमिहीन सर्वहारा में तब्दील होने की ऐतिहासिक परिघटना को देख सकते हैं।
अदालतों का पक्षपातपूर्ण न्याय, जमींदारों की खून चूस लेने वाली प्रणाली, किसानों के ऊपर कर्ज का मकड़जाल, गावों के बदतर हालत और शहरों के मेहनतकश वर्ग की संघर्षपूर्ण स्थिति, सभी कुछ बेहद जीते जागते रूप में इस फिल्म के जरिए आपके सामने मौजूद होता है।
इस मामले में यह फिल्म उस जमाने के हालात का एक जीता जागता दस्तावेज है, और जिन समस्याओं को यह फिल्म उठाती है, वे आज भी किसी न किसी रूप में मौजूद हैं, और इसीलिए इसे जरूर देखा जाना चाहिए।
-अजीत श्रीवास्तव