भाषाई वैमनस्य, मजदूरों के प्रति घृणा व पुलिसिया जुल्म को उकेरती फिल्म “विसरन्नई (इंटेरोगेशन)”

यह फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है और जिस तरह विश्वसनीय तरीके से इसने पुलिसिया दमन और पुलिसिया जुल्म की कहानी को पर्दे पर उतारा है, वह वाकई साहस का काम है।

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विसरन्नई (इंटेरोगेशन)

2016 में आई फिल्म विसरन्नई (Interrogation) भारत में पुलिसिया जुल्म और सत्ता व पुलिस के घिनौने गठजोड़ की दिल दहला देने वाली कहानी है। इस फिल्म को पूरा देख पाना वाकई हिम्मत का काम है। यह फिल्म एक सच्ची घटना पर आधारित है और जिस तरह विश्वसनीय तरीके से इसने पुलिसिया दमन और पुलिसिया जुल्म की कहानी को पर्दे पर उतारा है, वह वाकई साहस का काम है।

हम सभी वाकिफ हैं कि भारत में पुलिस किस तरह काम करती है और अगर उसे सत्ता तंत्र अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर रही हो और उसे खुली छूट मिली हुई हो तो वह किस कदर निर्मम और क्रूर बन जाती है, यही इस फिल्म का केंद्रीय कथानक है। अगर आप कमजोर दिल के हैं और पर्दे पर पूरी नंगई के साथ पुलिसिया टार्चर को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो यह फिल्म आपके लिए नहीं है।

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फिल्म चार तमिल प्रवासी मजदूरों, पांडी, अफजल, मुरूगन और कुमार  की कहानी है, जो आंध्रा के गुन्टूर में काम करते हैं और झुग्गियों में रहते हैं। एक हाई प्रोफाइल चोरी के मामले में पुलिस को जल्दी केस फाइल करना है और इसके लिए किसी न किसी से अपराध कुबूल करवाना है, इसलिए वे इन चारों को उठा ले जाते हैं और वह जुर्म इनसे कुबूल करने को कहते हैं जो इन्होंने किया ही नहीं है।

इसके बाद अमानवीय यातना का दौर शुरू होता है और ये चारों जुर्म कुबूल करने से मना करते हैं। हद से ज्यादा यातना के बाद ये जुर्म कुबूल कर लेते हैं लेकिन कोर्ट में मुकर जाते हैं और यहाँ उनकी मदद करता है मुत्तुवेल नमक तमिल पुलिस अधिकारी, जो इनकी सच्ची कहानी जज को अनुवाद करके बताता है और इस एहसान के बदले में इनसे केके नामक हाई प्रोफाइल आडिटर के किडनैपिंग में मदद करने को कहता है। के के सरेंडर करने के लिए आया है और मुत्तुवेल को उसे सरेंडर से पहले ही किडनैप करके तमिलनाडु ले जाना है।

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मुत्तुवेल अनधिकृत रूप से ये किडनैपिंग करने आया है क्योंकि उसे उसके डीएसपी ने इस काम पर लगाया है ताकि सत्ता पक्ष विपक्षी पार्टी के नेता पर के के से हासिल जानकारी के जरिये दबाव बना सके।  विपक्षी पार्टी  इस बात से घबरा कर ए सी पी से के के का टार्चर करवाती है और इस दौरान के के की मौत हो जाती है। पुलिस उसे आत्महत्या का केस बना देती है।

अब इन मजदूरों के ऊपर डीएसपी का शक जाता है कि इन्होंने के के की मौत का सच जान लिया है और अब इन्हें ठिकाने लगाना पड़ेगा। इन्हें एक पुराने केस में फंसा कर एनकाउंटर में मारने का प्लॉट तैयार किया जाता है। मुथुवेल अब तक इस निर्ममता और सिद्धान्तहीनता से तंग आ चुका होता है और वह इन मजदूरों की मदद करने का प्रयास करता है। “ऊपर” से आदेश आता है कि यह पुलिस अधिकारी भी अब खतरा बन चुका है और इसका मुंह भी बंद करवाना जरूरी हो गया है।

इस फिल्म में तमिल और तेलगु भाषियों के आपसी वैमनस्य, मजदूरों के प्रति स्वाभाविक घृणा, पुलिस विभाग  के जटिल तंत्र, उनकी सत्ता पक्ष और विपक्ष के साथ निष्ठाएँ और इन सबके ऊपर पुलिस के अंदर मर चुकी इंसानियत को इतने स्वाभाविक और विश्वसनीय तरीके से पर्दे पर उतारा गया है, कि आप बार बार सिहर उठते हैं।

फिल्म में कोई एक विलेन या कोई एक नायक नहीं है बल्कि अदृश्य शासन तंत्र जिस बारीकी से कठपुतलियों की तरह सारे पात्रों को नचा रहा है, वही इस फिल्म के केंद्र में है। इस शासन तंत्र के सामने इंसानियत और मानवाधिकार तथा सही गलत जैसी कोई चीज अस्तित्व में ही नहीं है। इसके लिए हर पात्र महज इसकी स्वार्थ पूर्ति का एक माध्यम है। बहुत कम फिल्में इतने जटिल विषय को इतनी बारीकी से निभा पाती है।

विसरन्नई (इंटेरोगेशन) को 72 वें वेनिस इन्टरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में एमनेस्टी इंटेरनेशनल इटैलिया अवार्ड और 63 वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में सर्वश्रेष्ठ फिल्म सहित कई पुरस्कार प्राप्त हुए थे। अभी इस फिल्म को यू ट्यूब पर देखा जा सकता है।

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