जबरदस्त महँगाई के खिलाफ जर्मनी, फ्रांस से लेकर  रोमानिया तक पूरे यूरोप की जनता सड़कों पर

मुद्रास्फीति रिकॉर्ड स्तर तक पहुंचा गया है। लोगों के लिए जरूरत की वस्तुएं खरीदना मुश्किल हुआ है। ऐसे में जनता के पास विरोध में सड़कों पर उतरने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है।

पिछले हफ्ते जब ब्रिटेन में अपनी आर्थिक योजना की आलोचना के बाद इस्तीफा देने वाली प्रधानमंत्री लिज़ ट्रस की कुर्सी एक और धनकुबेर ऋषि सुनक को सौंपने की तैयारी चल रही थी, तब उन्हीं दिनों रोमानिया में लोग जीवन-यापन की बढ़ती लागत से परेशान होकर बिगुल व ड्रम बजाते सड़कों पर उतर रहे थे। पूरे फ्रांस में लोग मुद्रास्फीति की दर के अनुरूप अपने वेतन में वृद्धि की मांग को लेकर सड़कों पर विरोध प्रदर्शन कर रहे थे। उधर पूर्वी यूरोप में चेक गणराज्य में लोग ऊर्जा संकट से निबटने में अपनी सरकार की कोताही का कड़ा विरोध जता रहे थे तो जर्मनी में कीमतें बढ़ने के बाद बेहतर वेतन की मांग को लेकर पायलट हड़ताल कर रहे थे।

समूचे यूरोप में गर्मियां खत्म होने के बाद आसन्न सर्द दिनों की तैयारी में जुटे लोग महंगाई की मार से परेशान हैं। जीवन की बुनियादी जरूरतों व रोजमर्रा की चीजों की कीमतों में तेजी से गुस्सा लोग सड़कों पर उतर रहे हैं और इससे राजनीतिक उथल-पुथल की आशंकाएं तेज हो चली हैं। ब्रिटेन में कंजरवेटिव पार्टी द्वारा अपना नेता बदलना इसी का उदाहरण है। लेकिन बदलाव के बावजूद किसी के पास फिलहाल इस संकट से उबरने का कारगर रास्ता नजर नहीं आता। यही वजह है कि नए ब्रितानी प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने भी अपनी आर्थिक योजना की घोषणा 17 नवंबर तक टाल दी है जिसे पहले वह अगले सोमवार यानी 31 अक्टूबर को लाने वाले थे। जिन दिनों ऋषि सुनक 10, डाउनिंग स्ट्रीट में पहुंचने की तैयारी कर रहे थे, उसी समय तमाम आर्थिक विश्लेषक ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के मंदी की चपेट में आने की गहरी आशंका जतला रहे थे।

लिज़ ट्रस की आर्थिक योजना ने ब्रिटेन के वित्तीय बाजार में जो गहरी उथल-पुथल मचाई, उससे उनकी अपनी कुर्सी पलट गई। जाहिर है कि पूरे यूरोप में यह एहसास तो बैठ ही गया है कि आर्थिक संकट से कारगर तरीके से निबटा न गया तो राजनीतिक नेताओं के लिए बड़ा जोखिम है।

यूक्रेन पर रूसी हमले को नौंवा महीना शुरू हो चुका है। इस लड़ाई के नतीजे में यूरोप में तेल व गैस के साथ-साथ खाद्य पदार्थों की कीमतों में भी बहुत तेजी आई है। इसका खासा असर आम लोगों के रहन-सहन पर पड़ा है। ऊर्जा कीमतों ने यूरो मुद्रा का इस्तेमाल करने वाले 19 देशों में मुद्रास्फीति को 9.9 फीसदी के रिकॉर्ड स्तर तक पहुंचा दिया है। लोगों के लिए जरूरत की वस्तुएं खरीदना मुश्किल हुआ है तो जाहिर है कि उनके पास विरोध में सड़कों पर उतरने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है।

पिछले हफ्ते फ्रांस के अलग-अलग शहरों में एक लाख से ज्यादा लोगों ने सड़कों पर प्रदर्शन किया। वेतन बढ़वाने के लिए इस तरह का दबाव डलवाने के अलावा लोगों के पास कोई चारा नहीं बचा है।

रिस्क कंस्लटेंसी फर्म वेरिस्क मैपलक्राफ्ट के अनुसार यूक्रेन युद्ध की परिणति यूरोप में नागरिक अशांति में बढ़ोतरी के रूप में हुई है। यूरोपीय नेताओं ने यूक्रेन का खुलकर समर्थन किया है, उसे हथियार भेजे हैं और सस्ते रूसी तेल व गैस पर अपनी अर्थव्यवस्थाओं की निर्भरता कम करने के बयान दिए हैं। लेकिन यह सब इतनी सहजता से हो नहीं पाया है और नतीजा यह हुआ है कि उनकी नीतियों को लोगों का समर्थन छीजने लगा है।

मौजूदा संकट से उबरने का तुरत-फुरत समाधान किसी के पास नहीं है, ब्रिटेन इसका उदाहरण है, और कई विश्लेषक तो यह भी कह रहे हैं मुद्रास्फीति अगले साल इससे भी ज्यादा तंग करने वाली है। ऐसा हुआ तो लाखों लोग गरीबी की चपेट में धकेले जा सकते हैं। इसका मतलब यह भी है कि आर्थिक दबाव और यूक्रेन में युद्ध के प्रति लोकप्रिय समर्थन के बीच के रिश्ते की असली परख अब होने वाली है।

यूरोक्षेत्र के 19 देशों में से फ्रांस में मुद्रास्फीति की दर सबसे कम 6.2 फीसदी चल रही है, लेकिन वहां भी पिछले हफ्ते रेल व परिवहन कर्मचारियों, हाईस्कूल अध्यापकों व सार्वजनिक अस्पतालों के कर्मचारियों ने भी तेल कर्मचारी यूनियनों के वेतनवृद्धि में मांग को लेकर हड़ताल के आह्वान का साथ दिया।

कुछ ही दिन बाद रोमानिया की राजधानी बुखारेस्ट में हजारों लोगों ने ऊर्जा, भोजन व अन्य जरूरी वस्तुओं की कीमतों को लेकर रैली निकाली। चेक गणराज्य में पिछले महीने भी राजधानी प्राग में पश्चिम समर्थक-गठंबधन सरकार के इस्तीफे की मांग को लेकर बड़ा प्रदर्शन हुआ था जिसमें लोगों ने रूस के खिलाफ यूरोपीय संघ द्वारा लगाई गई पाबंदियों का विरोध किया था। उन्होंने सरकार पर आरोप लगाया था कि वह लोगों की तकलीफों को कम करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठा रही है। इस हफ्ते के शुरू में प्राग में फिर एक प्रदर्शन हुआ, उसमें उतने लोग तो नहीं जुटे, लेकिन शायद इसकी एक वजह यह भी थी कि इस बार प्रदर्शन सप्ताह के कार्यदिवस में था। सितंबर वाली रैली सप्ताहंत में थी।

चेक गणराज्य में फिलहाल तो इस विरोध की परिणति राजनीतिक रूप से नहीं दिखाई दी है और सत्तारूढ़ गठबंधन वहां इस महीने संसद के ऊपरी सदन के चुनावों की एक-तिहाई सीटें जीतने में कामयाब रहा है। लेकिन यह कवच कब तक कायम रहेगा, कहना मुश्किल है।

ब्रिटेन में मुद्रास्फीति की दर 10 फीसदी को पार कर चुकी है और यह चार दशकों में सबसे ज्यादा है। वहां हाल के महीनों में रेल कर्मचारी, नर्स, बंदरगाह कर्मचारी, वकील व तमाम अन्य श्रेणियों के कर्मचारी हड़ताल कर चुके हैं। यूरोप के कई देशों में पिछले दिनों एयरपोर्ट कर्मचारियों व पायलटों की हड़ताल के कारण उड़ानें बाधित रह चुकी हैं, कुछ जगहों पर ट्रेनों के चक्के जाम रहे हैं। कुछ जगहों पर नाटो के खिलाफ प्रदर्शन हुए तो ब्रिटेन में पिछले हफ्ते एक बड़ा प्रदर्शन फिर से यूरो में शामिल होने की मांग के साथ भी हुआ।

पिछले हफ्ते के अंत में जर्मनी के छह शहरों में हजारों लोगों ने बड़ी कीमतों से निबटने में सरकारी मदद के उचित वितरण की मांग को लेकर प्रदर्शन किया था। बर्लिन, डुसलडर्फ, हैनोवर, स्टुटगार्ट, ड्रेस्डेन व फ्रैंकफर्ट में इस तरह के प्रदर्शन हुए।

गनीमत यही है कि यूरोप में फिलहाल गर्मी के लंबा खिंच जाने से अक्टूबर अंत में भी सर्दी अभी उतनी नहीं पड़ रही है जितनी आम तौर पर पड़ जाती है। इससे वहां घरों को गर्म रखने के लिए गैस की मांग ने जोर नहीं पकड़ा है। लेकिन जब ऐसा अंततः होगा तो लोगों में बेचैनी बढ़ेगी और राजनीतिक स्थिरता पर भी असर तो पड़ेगा ही, ख़ास तौर पर ऐसे दौर में जब राजनीतिक रूप से भी यूरोप हाल के कई दशकों की तुलना में इस समय सबसे ज्यादा बंटा हुआ नजर आ रहा है।

न्यूजक्लिक से साभार

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