फिल्मों में दिलीप कुमार दमित-मेहनतकश की पीड़ा के प्रतीक भी थे

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“सबको मिले मेहनत के मुताबिक अपना अपना हिस्सा”

बीते 7 जुलाई को अभिनेता दिलीप कुमार के निधन से फिल्म जगत का एक युग खत्म हो गया। वरिष्ठ समीक्षक दिनेश श्रीनेत बताते हैं कि दिलीप कुमार कई फिल्में में मज़दूरों और समाज के शोषित वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, ज्यादातर फिल्मों में वे उनकी आवाज़ बनकर उभरते हैं।…

दिलीप कुमार को याद करते हुए साथी दिनेश श्रीनेत

दिलीप कुमार : दुनिया से हारा हुआ इंसान या एक विद्रोही नौजवान

दिलीप कुमार कौन सी छवि हमारे मन में बसती है? दुनिया से हारे, प्रेम में शिकस्त खाए, समाज से ठुकराए हुए इंसान की? या एक विद्रोही नौजवान जो समाज के सबसे निचले तबके और दबे-कुचले लोगों की आवाज बन जाता है।

actor dilip kumar career wife family salary wiki net worth property know  everything - सैंडविच स्टॉल में सिर्फ 36 रुपये कमाते थे दिलीप कुमार, 22 साल  छोटी सायरा बानो से की शादी,
(11 दिसंबर, 1922 – 7 जुलाई 2021) 

दिलीप कुमार ने जब बांबे टॉकीज के जरिए भारतीय फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखा था तो स्टूडियो सिस्टम धीरे धीरे खत्म हो रहा था और स्टार बन रहे थे। बड़े पर्दे पर अभिनेताओं की छवि से फिल्मों की सफलता-असफलता तय होने लगी थी। सफल होने के बावजूद दिलीप कुमार ने उस समय एक बार में सिर्फ एक फिल्म करने का बड़ा फैसला किया था। उन्होंने अपने दूसरे समकालीन अभिनेताओं के मुकाबले कम मगर बड़ी सावधानी से अपनी बनी-बनाई छवि से अलग किस्म की फिल्में भी करनी शुरू कीं।

ठीक यही वक्त था जब ख़्वाजा अहमद अब्बास और शैलेंद्र की मित्रता और उनकी प्रतिभा के माध्यम से राज कपूर रोमांटिक कहानियां चुनने के बावजूद अपने लिए एक नेहरूवियन सोशलिस्ट की छवि गढ़ रहे थे। गौर करें तो दिलीप कुमार के खाते में ऐसी कई फिल्में हैं जिनमें वह मजदूरों और समाज के शोषित वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। उससे बड़ी बात यह कि ज्यादातर फिल्मों में वे उनकी आवाज़ बनकर उभरते हैं। यह अलग बात है कि प्रेम में हारे हुए आत्महंता से अलग एक बगावती नौजवान की इस छवि पर अधिक चर्चा नहीं हुई।

इंसान का इंसान से हो भाई चारा, यही ‘पैगाम’ हमारा

‘पैगाम’ (1959) में वे एक युवा इंजीनियर बने हैं और फैक्टरी में हुई एक दुर्घटना के बाद वे मजदूरों के साथ मिलकर एक ट्रेड यूनियन बनाते हैं। फिल्म में दुर्घटना के बाद मजदूरों को पहली बार वे जिस तरह संबोधित करते हैं उसे देखा जाना चाहिए। वे कहते हैं, “साथियों रुंदू और उसके मासूम बच्चों के साथ धोखा किया गया है। यही धोखा जो आज उसके साथ हुआ है कल तुम्हारे साथ हो सकता है, मेरे साथ हो सकता है, आपके साथ हो सकता है, हममें से किसी के साथ भी हो सकता है…”

पैग़ाम ( Paigham ) 1959 || HD बॉलीवुड हिंदी फिल्म || दिलीप कुमार,  वैजयंतीमाला, राज कुमार - YouTube

यह वो वक्त था जब जवाहर लाल नेहरू एक नए भारत का निर्माण कर रहे थे और देश एक बेहतर भविष्य के सपने देख रहा था। स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की भावना में ही देश का विकास देखा जा रहा था। फिल्म के संवाद में इसी आशावादिता की झलक दिखाई देती है।

वे कहते हैं, “दोस्तों आज ज़माना बदल गया है, आज हम एक आज़ाद मुल्क में रहते हैं, यहां इंसान की ज़िंदगी की कुछ कीमत है, उसका कुछ मोल है, आज इस देश के बड़े बड़े कारखानों में मजदूर को हिकारत की नजर से नहीं बल्कि इज्जत की नज़र से देखा जाता है, उसको नौकर नहीं बल्कि बराबर का साथी समझा जाता है।”

फिल्म में एक जगह दिलीप कुमार मिल के मालिक से कहते हैं, “जो धन मजदूरों के हिस्से का है उसे मजदूरों से छीन लेना जुर्म है।” मिल का मालिक पूछता है, “कौन सा धन? क्या उन लोगों ने इस मिल में रुपया लगाया है?” दिलीप कुमार कहते हैं, “उन्होंने रुपया लगाया नहीं है सेठ जी, उन्होंने रुपया पैदा किया है।”

यह फिल्म वर्कर्स की दो पीढ़ियों का प्रतिनिधित्व करती है। फिल्म में उनके बड़े भाई बने राज कुमार उस पीढ़ी के हैं जिनके मन में अपने अधिकारों के लिए कोई चेतना नहीं है, वे इसी बात से कृतज्ञ हैं कि फैक्टरी की वजह से उनका परिवार चल रहा है। उनके भीतर वफादारी का भाव है और वे भावनात्मक रिश्ते के धोखे में लगातार शोषित होते रहते हैं। वही दिलीप कुमार तार्किक हैं और सवाल उठाते हैं कि आखिर मिल जिसकी मेहनत से चल रही है उसका जायज हक और हिस्सा कहां है?

फिल्म ट्रेड यूनियन की जरूरत को बहुत सरल शब्दों में समझाती है। दिलीप कुमार कहते हैं कि ट्रेड यूनियन का मतलब यह नहीं कि मजदूर काम नहीं करना चाहता। “आज का मजदूर काम के लिए जान तक लड़ाने को तैयार है। मगर उस काम के बदले में वह इंसानों की तरह जीने का अधिकार मांगता है। उसी अधिकार की रक्षा के लिए यह यूनियन बनाई गई है।” इस फिल्म की बहुत बाद में आई बीआर चोपड़ा की ‘मजदूर’ से तुलना करें तो ‘पैगाम’ अपने डिस्कोर्स और स्पष्टवादी रवैये में ज्यादा बेहतर फिल्म साबित होती है।

Insaan se insaan ka ho bhaichara.. Paigham 1959_Manna Dey_ Pradeep_C  Ramchandra..a tribute - YouTube
सबको मिले मेहनत के मुताबिक अपना अपना हिस्सा

फिल्म का अंत इसके एक बेहद लोकप्रिय गीत से होता है,

नए जगत में हुआ पुराना
ऊँच नीच का किस्सा
सबको मिले मेहनत के
मुताबिक अपना अपना हिस्सा
सबके लिए सुख का बराबर हो बँटवारा
इंसान का इंसान से हो भाई चारा
यही पैगाम हमारा

चाय बागान मजदूर नेता ‘सगीना महतो’

Sagina Mahato (1970) - Directed by Tapan Sinha, Starring Dilip Kumar, Saira  banu and Anil Chatterjee in the lead roles. T… | Vintage bollywood, Cinema,  Real stories

सन् 1970 में आई ‘सगीना महतो’ भी दिलीप कुमार की एक अहम फिल्म है। यह वो समय था जब सारा देश मोहभंग से गुजर रहा था। सन् 1962 में चीन से युद्ध के साथ भारतीय राजनीति से मोहभंग आरंभ हो चुका था। 1967 में नक्सल आंदोलन के बीज पड़ चुके थे।

तपन सिन्हा ने सीधे अपनी बात कहने की बजाय ब्रिटिश राज के दौरान एक चाय बागान मजदूर नेता की कहानी को अपनी बात कहने का आधार बनाया। फिल्म में दिलीप कुमार ने भारत के उत्तर-पूर्वी पहाड़ियों में स्थित एक चाय बागान में काम करने वाला मजदूर सगीना महतो की भूमिका निभाई थी।

भारतीय चाय उद्योग के इतिहास में एक क्रांतिकारी सगीना महतो अंग्रेजों का सामना करता है और वह चाय बागान के मजदूरों का नेता बन जाता है। ‘सगीना महतो’ उसी मजदूर आंदोलन की सच्ची कहानी पर आधारित थी। सगीना महतो के किरदार में दिलीप कुमार मजदूरों के अधिकारों के लिए लड़ते हैं। उनकी मदद एक युवा कम्युनिस्ट नेता अमल करता है।

Sagina Mahato' director Tapan Sinha recalls how Dilip Kumar shed his method  acting for a single shot | Bengali Movie News - Times of India

‘सगीना महतो’ सफल रही और इसे मॉस्को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी इंट्री मिली थी। फिल्म को हिंदी में ‘सगीना’ के नाम से 1974 में निर्देशक तपन सिन्हा ने दोबारा बनाया। हालांकि हिंदी दर्शक शायद इसकी कहानी से खुद को कनेक्ट नहीं कर पाए और फिल्म का हिंदी संस्करण असफल रहा।

Saala Main Toh Sahab Ban Gaya | Kishore Kumar, Pankaj Mitra | Sagina | Dilip  Kumar, Saira Banu - YouTube

‘मज़दूर’ : दौलत की अंधेरी रातों से/हम अपना सवेरा मांगेगे

आर्थिक उदारीकरण से करीब आठ साल पहले एक और फिल्म आई थी ‘मजदूर’ (1983) जिसके निर्माता बीआर चोपड़ा थे। यह फिल्म आज देखें तो एक साधारण अस्सी के दशक का बॉलीवुड ड्रामा लगती है मगर इसकी खूबी यह है कि ये आश्चर्यजनक ढंग से आधुनिक प्रबंधन के अमानवीय चेहरे को सामने लाती है।

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फिल्म में बाद में काफी ड्रामा है और वह अपने मूल विषय से काफी भटक जाती है। लेकिन इस देखकर यह समझ में आता है कि कैसे आधुनिक प्रबंधन मजदूरों और प्रबंधन के बीच संवाद की संभावनाएं एक-एक करके खत्म करता गया।

‘मजदूर’ में उदारीकरण से पहले मिल के प्रबंधन और मजदूरों के बीच एक मानवीय रिश्ता दिखाया गया है, इस पीढ़ी के मालिकों का प्रतिनिधित्व नजीर हुसैन करते हैं। मगर अगली पीढ़ी के सुरेश ओबेराय का मजदूरों से कोई भावनात्मक रिश्ता नहीं है। वह एक के बाद एक ऐसे कई कदम उठाता है। जिसमें नई मशीनें खरीदने के लिए मजदूरों का बोनस बंद करना, उनसे एक दूरी बनाकर रखना, वर्कर्स से बातचीत के सारे दरवाजे बंद करना शामिल है।

फिल्म के दूसरे हिस्से में जब दिलीप कुमार अपनी खुद की मिल खड़ी करते हैं तो मज़दूरों को शेयर होल्डर बनाते हैं। बस फिल्म यहीं तक उल्लेखनीय है, इसके आगे शायद उस दौर के व्यावसायिक दबाव रहे होंगे, जिनकी वजह से फिल्म का दूसरा हिस्सा बहुत नाटकीय हो गया है।

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इस फिल्म का एक गीत अपने समय में काफी लोकप्रिय हुआ था –

हम मेहनतकश इस दुनिया से
अपना हिस्सा मांगेंगे
एक बाग नहीं एक खेत नहीं
हम सारी दुनिया मांगेंगे
दौलत की अंधेरी रातों ने
मेहनत का सूरज छुपा लिया
दौलत की अंधेरी रातों से
हम अपना सवेरा मांगेगे
क्यों अपने खून पसीने पर
हक़ हो सरमायादारी का
मज़दूर की मेहनत पर हम
अब मज़दूर का कब्ज़ा मागेंगे
एक बाग नहीं एक खेत नहीं
हम सारी दुनिया मांगेंगे

“जब बीमारी फैली तो हमने दवाइयां छुपा लीं और उनके दाम बढ़ा दिए।

एक और फिल्म है ‘मशाल’ (1984) जिसमें दिलीप कुमार छोटी पूंजी की मदद से अखबार निकालने वाले एक ऐसे पत्रकार बने हैं, जो समाज में बदलाव लाने का सपना देखता है। फिल्म उनका राजनीतिक रुझान स्पष्ट नहीं करती मगर फिल्म के पहले हिस्से में वे एक ऐसे गांधीवादी आदर्शवादी नज़र आते हैं जो हृदय परिवर्तन में यकीन रखता है। अनिल कपूर उनके आदर्शों से प्रभावित होकर जब खुद सरोकारों वाली पत्रकारिता करने निकलता है तो फिल्म नाटकीय मोड़ लेती है और वही दिलीप दूसरे रास्ते पर चल पड़ते हैं।

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यह वसंत कानेटकर के मराठी नाटक ‘अंचुश्री झाली फूले’ पर आधारित थी। दिलीप भले गांधीवादी हों, फिल्म में अनिल कपूर जिस अखबार में काम करता है उसका एडीटर आलोकनाथ स्पष्ट रूप से वामपंथी दिखता है और उसके दफ्तर में कार्ल मार्क्स की तस्वीर भी लगी होती है। ‘मशाल’ की खूबी यह है कि दिलीप कुमार ने सत्तर और अस्सी के दशक में एक आदर्शवादी मध्यवर्गीय इंसान की टूटन और बिखराव को अपने अभिनय के जरिए बखूबी प्रस्तुत किया है।

वामपंथी रुझान वाले लेखक जिया सरहदी की फिल्म फुटपाथ (1953) में भी वे पत्रकार बने थे। फिल्म में एक जगह दिलीप कुमार का संवाद आज 2021 में बहुत प्रासंगिक हो उठा है। जब वे कहते हैं “जब लोग भूख से मर रहे थे तो हम उनके हिस्से का अनाज बेचकर अपने खजाने भर रहे थे। जब शहर में बीमारी फैली तो हमने दवाइयां छुपा लीं और उनके दाम बढ़ा दिए।”

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नया दौरश्रम के अवमूल्यन की कहानी

फिल्म ‘नया दौर’ (1957) में वे एक ऐसे व्यक्ति की भूमिका में सामने आते हैं जो पूंजीवाद के उस रूप से संघर्ष करता है जहां मशीनों के जरिए मुनाफा कमाने के लिए मानवीय श्रम करने वालों को हाशिए पर धकेल दिया जाता है। इस फिल्म में कामगारों के विस्थापन पर उनका एक प्रभावशाली संवाद है, “बाबू, हम तो सुनते आए हैं कि बड़े लोग बस्ती बसाते हैं, आप उजाड़ना चाहते हो क्या?” बसें आने के बाद से लोग तांगे वालों के साथ भिखारियों जैसा बर्ताव करने लगते हैं।

‘नया दौर’ श्रम के अवमूल्यन की कहानी कहती है और श्रम और श्रमिकों के महत्व को बड़ी खूबसूरती से एक लोकप्रिय शैली में समझाती है। हालांकि ‘नया दौर’ कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकलाती। यह फिल्म श्रमिकों को उनके संघर्ष के जरिए व्यवस्था में परिवर्तन लाता हुआ दिखाने की बजाय उसे एक समझौते की तरफ से जाती है। जिसमें पूंजीपति और श्रमिक दोनों मेलजोल से रहें।

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आम आदमी के विद्रोह की कहानी

इसके अलावा ‘राम और श्याम’ (1967), ‘दिल दिया दर्द लिया’ (1966), ‘गंगा जमना’ (1961) जैसी फिल्मों में भी दिलीप कुमार एक आम आदमी और सिनेमा की भाषा में कहें तो एक ‘अंडरडॉग’ के विद्रोह की कहानियां कहते हैं।

राज कपूर के रोमांटिक रिवोल्यूशनरी इमेज के मुकाबले दिलीप कुमार अपनी इन फिल्मों के जरिए खुरदुरे यथार्थ के ज्यादा करीब हैं। राज कपूर की तरह उनका संघर्ष अकेले का नहीं है। हर फिल्म में वे निजी तकलीफों से आगे बढ़कर परेशानहाल लोगों के बीच जाते हैं, उनकी आवाज़ बनते हैं और नेतृत्व का रास्ता चुनते हैं।

VIMAL THAKKER

ज्वार भाटा से अपना सफर शुरू करने वाले पद्मविभूषण से सम्मानित दिलीप कुमार की फिल्में-

सौदागर (1991), आग का दरिया (1990), इज्जतदार, कानून अपना अपना (1988), कर्मा (1986), धर्म अधीकारी (1986), मशाल (1984), दुनिया (1984), मज़दूर (1983), शक्ति (1982), विधाता (1982), क्रांती (1981), बैराग (1976), फिर कब मिलोगी (1974), सगीना (1974), अनोखा मिलन (1972), दास्तान (1972), कोशिश (1972), गोपी (1970), सगीना महातो (1970), आदमी (1968), साधु और शैतान (1968), संघर्ष (1968 फ़िल्म), राम और श्याम (1967), दिल दिया दर्द लिया (1966), लीडर (1964), गंगा जमुना (1961), मुगल-ए-आज़म (1960), कोहिनूर (1960), पैगाम (1959), मधुमती (1958), यहुदी (1958), मुसाफिर (1957), नया दौर (1957), आजाद (1955), देवदास (1955), इंसानियत (1955), उडन खटोला (1955), अमर (1954), फुटपाथ (1953), शिक्स्त (1953), आन (1952), दाग (1952), संगदिल (1952), दिदार (1951), हलचल (1951), तराना (1951), आरजू (1950), बाबुल (1950), जोगन (1950), अंदाज (1949 फ़िल्म), शबनम (1949 फ़िल्म), अनोखा प्यार (1948 फ़िल्म), घर की इज्जत (1948 फ़िल्म), मेला (1948 फ़िल्म), नदिया के पार (1948 फ़िल्म), शहीद (1948 फ़िल्म), जुगनू (1947 फ़िल्म), नौका डूबी (1947 फ़िल्म), प्रतिमा (1945 फ़िल्म), ज्वार भाटा (1944 फ़िल्म)

सिनेमा : आइए सार्थक फिल्मों को जानें

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