कोरोना संकट के बहाने काम के घंटे 12 करने की तैयारी

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मानवीय आपदा का भी उपयोग मालिकों के हित में करने पर आमादा है मोदी सरकार

मोदी सरकार कोरोना संकट का हवाला देकर फैक्ट्री एक्ट 1948 में बदलाव करके काम के घंटे 8 से बढाकर 12 करके मालिकों को रियात देने की तैयारी में है। मालिकों के कहना हैं की लॉकडाउन के चलते ठप्प पड़े उत्पादन को बढ़ाने के लिए कम मज़दूरों से ज़्यादा काम निकालने की जरूरत है। असल में मालिकों का पूर्व नियोजित एजेंडा है की मज़दूरों से उनके सारे हक़ छीनकर गुलामों जैसा काम करवाया जाए।

राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन 15 अप्रैल में आगे बढ़ाने की संभावना के साथ कंपनियों के हित में सरकार कई क़दम उठाने जा रही है। उनमे से ही एक काम के घंटे बढ़ाने वाला मज़दूर विरोधी यह क़दम है।

यह गौरतलब है कि पूँजीपतियों के ‘हायर एंड फायर’ (यानी जब चाहो काम पर रखो, जब चाहो निकाल दो) की निति पर मोदी सरकार तेजी से काम कर रही है। तमाम विरोधों के बावजूद उसने लम्बे संघर्षों से हासिल 44 श्रम कानूनों को ख़त्म करके 4 संहिताएँ बना चुकी है, इनमें से वेतन संहिता क़ानूनी रूप ले भी चुकी है। बाकि 3 संहिताएँ पारित होने की प्रक्रिया में है।

कोरोना संकट के बहाने काम के घंटे 8 से बढ़कर होंगे 12

हिंदुस्तान टाइम्स में छपी ख़बर के मुताबिक केंद्र सरकार कारखानों में लंबी फेरबदल की अनुमति देने के लिए 1948 के कानून में बदलाव पर विचार कर रही है। उसका तर्क है कि इससे कारखानों को कम श्रमिकों और उच्च माँग का सामना करने में मदद मिलेगी।

यह परिवर्तन कंपनियों को एक सप्ताह में 8 घंटे, छह दिन (या 48 घंटे) के वर्तमान स्वीकृत मानदंड को बदलकर सप्ताह के 12 घंटे, छह दिन (72 घंटे) तक का समय बढ़ाने की अनुमति देगा।

इससे सम्बद्ध दो वरिष्ठ अधिकारियों के अनुसार, कारखाना अधिनियम, 1948 में संशोधन के लिए एक प्रस्ताव “सक्रिय विचार” के तहत है। अधिनियम की धारा 51 में कहा गया है कि “किसी भी वयस्क श्रमिक को किसी कारखाने में प्रति सप्ताह 48 घंटे से अधिक काम करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।” हालांकि इस अधिनियम में ओवरटाइम के प्रावधान हैं, जो कि असाधारण परिस्थितियो के लिए है।

अभी ओवरटाइम तीन महीने में अधिकतम 120 घंटे ही कराया जा सकता है, ओवरटाइम के प्रत्येक घंटे के लिए, सामान्य दर को दोगुना देने का प्रावधान है।

नौकरशाह समर्थन जुटाने, कानून बदलने में भिड़े हैं

काम के घंटे बढ़ाने के प्रस्ताव को उपभोक्ता मामलों के सचिव पवन अग्रवाल और गुरुप्रसाद महापात्र, उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग के सचिव सहित वरिष्ठ अधिकारियों के एक समूह द्वारा समर्थन किया जा रहा है।

वरिष्ठ नौकरशाहों के ग्यारह सशक्त समूहों में से एक, “खाद्य और दवा जैसे आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता के लिए आपूर्ति श्रृंखला और रसद प्रबंधन की सुविधा” द्वारा 8-10 से 12 घंटे की दैनिक शिफ्ट में संशोधन के लिए जोर दिया जा रहा है।

श्रमिकों की ज़रूरत 33 फीसदी होगी कम

मालिकों का ही यह कहना है कि श्रमिकों की आवश्यकता को यह योजना 33% तक कम कर देगा। यानी काम के घंटे बढ़ाने मात्र से 33 फीसदी श्रमिकों की कटौती निश्चित है। हालाँकि यह संख्या और ज्यादा होगी।

कोरोना से ज्यादा काम के बोझ से मरो

आंकड़ो के अनुसार 23 मार्च से 10 अप्रैल तक 12 करोड़ नौकरियां खत्म हो चुकी हैं, और ये आंकड़ा और भी बढ़ेंगे। महामारी के चलते लॉकडाउन में अब मज़दूरों को चुनने के लिए अनेकों विकल्प दिए जा रहे है – जैसेकी हम भूखमरी से मरे की काम पर जाकर कोरोना से की ज़्यादा काम से ही मर जाये।

अस्त व्यस्त हुई अर्थव्यवस्था को मज़दूरों के हित में ठीक करने के लिए अगर सरकार जमा पूँजी न लगाए, तो चरम पर चढ़ती बेरोज़गारी और मज़दूरों की बेइंतहा शोषण को नहीं रोक पाएंगे।

मोदी सरकार की दीर्घकालिक योजना का हिस्सा

स्पष्ट है कि काम के घंटे बढ़ाने के लिए यह सरकार की दीर्घकालिक परियोजना का हिस्सा है- यानी कम श्रमिक से कम भुगतान के साथ अधिक काम लेने और मनमर्जी निकालने की दिशा में मोदी सरकार का एक और मज़दूर विरोधी क़दम। वह भी कोविड-19 जैसी विश्वव्यापी महामारी के दौर में, मानवीय आपदा का इस्तेमाल मज़दूरों के सीमित अधिकार में एक और हमले के तौर पर करने से भी वह बाज नहीं आई।

आर्थिक सुस्ती और महामारी से बढ़ाते बेरोजगारी से राहत देने की जगह मोदी सरकार देशी-विदेशी मुनाफ़ाखोर कंपनियों को राहत देकर मालिकों की वफ़ादारी में लगातार सक्रियता दिखा रही है।

इसकी एक बड़ी वजह यह है कि मज़दूरों के एक बड़े हिस्से के दिमाग में यह बैठा हुआ है कि मोदी जो भी करे सब ठीक है! वफादारों की यह जमात जबतक समझने को तैयार होगी, तबतक बहुत कुछ तबाह हो चुका होगा!