सबसे ख़तरनाक़ है औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता

मूलभूत श्रम अधिकारों को छीन लेगी यह श्रम संहिता
मोदी-1 सरकार ने मजदूरों पर हमलों की जो शुरुआत की थी, मोदी-2 कार्यकाल में उसने आक्रामक रूप से तेज रफ्तार पकड़ ली है। लंबे संघर्षों के दौरान हासिल श्रम कानूनों को मालिकों के हित में बदलने की कोशिशें लगातार जारी है। सरकार मौजूदा 44 केंद्रीय श्रम कानूनों को खत्म करके जिन 4 संहिताओं में बदल रही है- उनमें सबसे ख़तरनाक़ है – ‘औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता’।
इसके मूल में है- देशी-विदेशी कंपनियों को रखने-निकालने की खुली छूट के साथ बेहद सस्ते दाम पर मजदूर उपलब्ध कराना।
प्रचण्ड बहुमत-प्रचण्ड हमले
दरअसल, मुनाफे की अन्धी हवस में कार्पोरेट जगत लगातार आर्थिक ‘सुधारों’ की माँग करता रहा है। 1990 के दशक में शुरू ‘उदारीकरण’ की नीतियों को लागू करने के साथ ही लम्बे संघर्षों के दौरान हासिल सीमित श्रम क़ानूनी अधिकारों को छीनने का क्रम लगातार आगे बढ़ता रहा। इस दौरान केन्द्र व राज्यों की सभी रंगरोगन की पार्टियों की सरकारों ने इसे गति दी।
कुछ परिस्थितिगत कारणों से मनमोहन सरकार की यह गति धीमी पड़ने पर थैलीशाहों ने पानी की तरह रुपये बहाकर नरेन्द्र मोदी की सरकार बनवाई। पाँच साल मोदी सरकार उसी कर्ज को चुकाने के लिए पूरे जी-जान से जुटी रही। लेकिन अधिकारों की बलि चढ़ाकर भी मेहनतकशों ने मोदी को प्रचण्ड बहुमत से फिर सरकार बनाने पर मुहर लगा दी। इसीलिए मोदी-2 सरकार ने आते ही मालिकों की पहले से ज्यादा बेशर्म सेवाएं करने और मज़दूरों का निर्मम क़त्लेआम बढ़ा दिया।
मज़दूरों को पंगु बनाने वाली चार संहिताएं
1- मज़दूरी पर श्रम संहिता
2- औद्योगिक संबंधों पर श्रम संहिता
3- सामाजिक सुरक्षा व कल्याण श्रम संहिता
4- व्यवसायिक सुरक्षा एवं कार्यदशाओं की श्रम संहिता।
इनमें से मज़दूरी पर श्रम संहिता संसद के दोनों सदनों से पारित हो चुका है और राष्ट्रपति की मुहर भी लग चुकी है। जबकि व्यावसायिक सुरक्षा पर संहिता संसद से पारित होने की प्रक्रिया में है। (‘मेहनतकश’ में देखें)। बाकी दो भी पारित होने को तैयार हैं।
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मज़दूर वर्ग पर सबसे घातक हमला औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता के तहत किया जा रहा है। यह बेहद खतरनाक होने के साथ अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के प्रावधानों का भी उल्लंघन करता है।
प्रमुख श्रम क़ानून होंगे ख़त्म
ट्रेड यूनियन अधिनियम 1926, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 और औद्योगिक रोजगार (स्थाई आदेश) अधिनियम 1946 को मिलाकर औद्योगिक संबंधों पर संहिता बना है। ये वे श्रम क़ानूनी अधिकार हैं, जिनसे मज़दूरों का सबसे अधिक वास्ता पड़ता है।
लम्बे संघर्षों के दौरान हासिल अब तक के सारे श्रम क़ानूनों में ये क़ानून ही मज़दूरों को ज्यादा सुरक्षा कवच प्रदान करते रहे हैं। औद्योगिक विवाद उठाने और एक हद तक ही सही, संघर्ष और कुछ हासिल करने का जरिया यही क़ानून रहे हैं। इनमें से कई प्रावधान दूसरे-तीसरे तरीके से बदल कर लागू भी किये जा चुके हैं।
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औद्योगिक सम्बन्धों पर श्रम संहिता घातक क्यों
इस संहिता से मालिकों को किसी भी मज़दूर को कभी भी रखने-निकालने व सेवा शर्तों को बदलने की खुली छूट मिल रही है। यूनियन बनाने व हड़ताल करने पर बंदिशें लगाने के साथ तरह-तरह से मज़दूर आन्दोलनों पर दमन के लिए कई दंडात्मक प्रावधान हैं। श्रम अधिकारियों के पहले से ही सीमित अधिकार और कम हो रहे हैं और श्रम न्यायालय को भी खत्म करने की तैयारी है।

‘रखने और निकालने’ की खुली छूट
- संहिता 300 से कम संख्या वाले संस्थानों को छँटनी, ले-ऑफ, आंशिक या पूर्ण बन्दी के लिए अनुमति के झंझट से मुक्त करती है, यानी ‘रखो और निकालो‘ का खुला अधिकार होगा।
- 40 से कम कामगारों को काम पर रखने वाली इकाइयां 14 प्रमुख श्रम कानूनों के दायरे से बाहर हो जाएंगी।
- छँटनी या इकाई बंदी के लिए नोटिस की अवधि एक माह से बढ़ाकर तीन महीने होगी (जो लागू भी हो चुकी है), यानी मज़दूरों को तीन माह का औसत वेतन देकर बाहर करना आसान, कोई और मुआवज़ा नहीं।
- कामगारों को तीन साल के भीतर छँटनी पर आपत्ति जताने की सीमा बांध दी गयी है, जबकि पहले इसकी कोई सीमा नहीं थी।
- स्थायी आदेश कानून में संशोधन करके सेवा शर्तें बदलने की छूट दी जा रही है।
- स्थायी नौकरी की जगह फिक्स्ड टर्म के तहत सीमित अवधि का रोजगार मिलेगा।
- ट्रेनी व कौशल विकास के बहाने फोक़ट के मज़दूर रखने की मनमानी छूट मिल रही है।
यूनियन बनाने पर हमला
नये संहिता के तहत श्रमिकों के लिये ट्रेड यूनियन बनाना या हड़ताल पर जाना मुश्किल बनाया गया है। कई बाधाओं के साथ संगठित क्षेत्र में सिर्फ कर्मचारियों को यूनियन बनाने की मंजूरी होगी और किसी बाहरी व्यक्ति को श्रम संगठन का अधिकारी नहीं बनाया जा सकता। केवल असंगठित क्षेत्र में दो बाहरी प्रतिनिधि ट्रेड यूनियन के सदस्य हो सकते हैं।
हड़ताल करना दण्डनीय अपराध
श्रमिक संगठनों के लिए हड़ताल करना, हड़ताल का नेतृत्व करना या हड़तालियों की मदद करना पूरी तरह से गैर-कानूनी हो जाएगा। जिसके तहत 25 से 50 हजार रुपए का जुर्माना व एक महीने की सजा का भी प्रावधान है।
श्रम न्यायालय खत्म होंगे
श्रम अदालत समेत विभिन्न तरह के मध्यस्थता मंच को खारिज करने का प्रस्ताव है। लेकिन औद्योगिक पंचाट बने रहेंगे। मजदूर की बर्खास्तगी पर कोर्ट में केवल रिकार्ड वाले सबूत ही मान्य होंगे। श्रम अधिकारी फैसिलेटर होगा।
मालिको के लिए रजिस्टर रखने के नियम में ढील, श्रम अधिकारी द्वारा निरीक्षण की जगह इंटरनेट पर स्वतः प्रमाणित करेंगी कंपनियां। कंपनी द्वारा दी गई रिपोर्ट मान्य होगी।
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भ्रम को पहचानो
मज़दूर वर्ग पर हमले का यह खतरनाक दौर है। एक तरफ सीमित कानूनी अधिकारों को खत्म किया जा रहा है, वेतन घट रहे हैं, महँगाई बढ़ रही है; दूसरी ओर बड़े ही सुनियोजित तरीके से जाति-मजहब, गाय, लवज़ेहाद, दंगे-फसाद, कश्मीर, पाकिस्तान आदि में उलझाया जा रहा है।
ऐसे में भरमाने और समाज को बांटने वाले मुद्दों से अलग हटकर ही अपने हक़-हक़ूक़ पर हो रहे हमलों का मुक़ाबला किया जा सकता है।
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