सिनेमा : आइए सार्थक फिल्मों को जानें-8
विभाजन के दर्द को उकेरती फिल्म “गर्म हवा” धार्मिक नफरत का, धार्मिक बंटवारे का, इस बंटवारे के समाज पर घिनौने प्रभाव का और इन सब की वजह से पैदा होने वाली जटिलताओं, दुविधा, दुश्वारियों और विभाजन के नासूर बन चुके जख्म की जीती जागती दास्तान है। …जानें फिल्म के बारे में साथी अजीत श्रीवास्तव के साथ!
1947 में हुआ विभाजन इस महादेश के इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी है और ये बंटवारा महज किसी कागज के नक्शे पर खिंची लकीर नहीं था, बल्कि इसने करोड़ों देशवासियों के परिवारों और दिलों के बीच भी एक अनजाने अंदेशे, एक अनिश्चित भविष्य और खौफनाक डर की लकीर खींच दी थी।
विभाजन की इस त्रासदी को साहित्य और सिनेमा में दर्ज करने की कोशिश अनेक लेखकों और फ़िल्मकारों ने की है, लेकिन 1973 में बनी एम एस सथ्यू की फिल्म “गर्म हवा” इस त्रासदी की सबसे ईमानदाराना और यथार्थपरक कोशिश का नाम है।
यह फिल्म बंटवारे और बंटवारे की वजहों और बंटवारे के बाद के हालत को लेकर जिन सवालों से जूझती है, वे आधी सदी बीत जाने के बाद भी उतने ही प्रासंगिक हैं और आज भी उनका हल खोजे जाने की और उन जख्मों के लिए मरहम की तलाश उतनी ही जरूरी है।
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ये फिल्म केवल सवाल ही नहीं उठाती बल्कि उनके जवाब तलाशने में मदद भी करती है। साथ ही इसमें सिर्फ विभाजन से उपजे अंदेशे और दुख तकलीफों की ही बात नहीं की गई है, बल्कि उनसे जूझते हुए लोगों का इंसानियत में अथाह भरोसा और अटूट उम्मीदें भी आपके सामने रखने की जिम्मेदाराना कोशिश की गई है, और इसीलिए ये फिल्म विभाजन और धार्मिक बंटवारे पर बनी अभी तक की सबसे बेहतरीन फिल्म मानी जा सकती है।
फिल्म की कहानी भले ही सलीम मिर्जा (बलराज साहनी) के इर्द गिर्द घूमती है, लेकिन ये सिर्फ एक आदमी की कहानी नहीं है। ये टूटते हुए परिवारों, बिखरते हुए रिश्तों, मरते हुए भाईचारे की कहानी है, और साथ ही इंसानियत में भरोसे और जिंदगी की जद्दोजहद और बेहतरी के लिए संघर्ष की भी कहानी है।

सलीम मिर्जा और उनका परिवार जूते के कारोबार में लगे हैं, विभाजन के बाद पैदा हुए हालात में उनके भाई हलीम मिर्जा पाकिस्तान चले जाते हैं और सलीम अमन कायम होने की उम्मीद में अपने बेटे, बेटी और बूढ़ी माँ के साथ हिंदुस्तान में रह जाते हैं। विभाजन के बाद पैदा हुए अनिश्चितता के माहौल मे कारोबार में एक के बाद एक संकट आना शुरू हो जाते हैं, कर्ज मिलना बंद हो जाता है और अंततः कारोबार हाथ से निकल जाता है।
मुल्क का विभाजन बेटी की सगाई और शादी में बाधा बन जाता है और अंततः उसे आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ता है, और बेटा बेरोजगारी का दंश झेलने को मजबूर है। इन प्रतिकूल परिस्थितियों में बार बार सलीम पर दबाव बनता है कि वे भी औरों की तरह अपना मुल्क छोड़ कर पाकिस्तान चले जाएँ लेकिन सलीम की उम्मीद कायम रहती है।

उनकी हवेली हाथ से निकल जाती है क्योंकि वह हलीम के नाम पर है और हलीम के पाकिस्तान चले जाने की वजह से शत्रु संपत्ति मान कर उसे नीलाम कर दिया जाता है। सलीम को एक अदद किराये का मकान ढूँढने में तमाम दुश्वारियों का सामना केवल इसलिए करना पड़ता है कि सिर्फ मुसलमान होने की वजह से कोई उसे मकान देने को तैयार नहीं। बूढ़ी माँ को सिर्फ एक बार अपनी हवेली में आना है ताकि वह चैन से अपनी अंतिम सांस ले सके।
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इन तमाम दुश्वारियों से जूझने के बाद तंग आकर जब सलीम मुल्क छोड़ने का फैसला कर ही लेते हैं तो अंतिम दृश्य में दिखाया गया है कि कैसे एक छोटी सी घटना फसाद में तब्दील हो जाती है, और लंबे समय से सलीम मिर्जा के भीतर चल रही दुविधा का अंत होता है और उनके अंदर उन हालात के खिलाफ पल रहा गुस्सा उन्हें हालात से संघर्ष की ओर ले जाता है।
सलीम मिर्जा न केवल अपने बेटे को बेरोजगारी और गैर बराबरी के खिलाफ चल रहे आंदोलन में शामिल होने की इजाजत दे देते हैं बल्कि खुद भी बीवी को वापस भेज उसी आंदोलन में शामिल होते दिखाई पड़ते हैं। इस रूप में यह फिल्म किसी काल्पनिक अंत की ओर ले जाने की जगह संघर्ष के व्यावहारिक और यथार्थवादी समाधान की ओर जाकर समाप्त होती है।
संक्षेप में, यह फिल्म धार्मिक नफरत का, धार्मिक बंटवारे का, इस बंटवारे के समाज पर घिनौने प्रभाव का और इन सब की वजह से पैदा होने वाली जटिलताओं, दुविधा, दुश्वारियों और विभाजन के नासूर बन चुके जख्म की जीती जागती दास्तान है। फिल्म यू ट्यूब सहित विभिन्न प्लेटफार्मों पर मौजूद है और इसे जरूर देखा जाना चाहिए।
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