सावित्रीबाई फुले के जन्मोत्सव पर सबरंग मेला

3 जनवरी, 2020 को गुडगाँव के फिरोज गाँधी कॉलोनी, पार्क नंबर-3 में विविध आयोजन
गुडगाँव। भारत की पहली महिला शिक्षक और महान शिक्षाविद सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। ‘शिक्षा के साथी’ के सहयोग से ‘सावित्रीबाई फुले जन्मोत्सव समिति’ द्वार 3 जनवरी, 2020 को धर्म, जाति और लिंग आधारित भेदभाव को मिटाकर, सबके लिए सामान और वैज्ञानिक शिक्षा की ओर क़दम बढ़ाते हुए ‘सबरंग मेला’ का आयोजन हो रहा है। उनके जन्मोत्सव के आयोजन का यह तीसरा वर्ष है।
बच्चों की विभिन्न प्रस्तुतियों ले साथ गुडगाँव के फिरोज गाँधी कॉलोनी, पार्क नंबर-3 में होने वाले इस सबरंग मेला के आयोजकों द्वारा जारी आमंत्रण, पोस्टर के साथ पर्चा यहाँ प्रस्तुत है। प्रस्तुत पर्चा यह बताता है कि आज के समय में ज्ञानज्योति सावित्रीबाई फुले क्यों प्रासंगिक हैं, उनकी शिक्षा क्षेत्र में महान योगदान को ना केवल आज याद करने, बल्कि उसको लागू करना आज क्यों ज़रूरी है!
‘सावित्रीबाई फुले जन्मोत्सव समिति’ द्वार जारी पर्चा
सावित्रीबाई का जन्मदिवस क्यों मनाते हैं?
मौजूदा दौर में सावित्रीबाई जैसे महान लोगों के जीवन और संघर्ष को याद करना हमारे लिए महत्वपूर्ण है। आज हम अपनी शिक्षा, नौकरी, पर्यावरण और ज़मीन को बचाए रखने के लिए संघर्षरत है। सावित्रीबाई और उनके साथियों की लड़ाई भी मानव जीवन के इसी सम्मान और अधिकार के लिए थी।
भारत की पहली महिला शिक्षाविद
मराठी दंपति सावित्रीबाई और ज्योतिराव फुले ने शिक्षा पर उच्च जाति के पुरुषों के कब्जे के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने भारत में लड़कियों और तथाकथित निचली जातियों के लिए पहला स्कूल खोला। उन दिनों, समाज में छुआ-छुत बहुत ज्यादा था और उनके पढ़ने-लिखने/ शिक्षित होने सम्मानजनक काम करने पर रोक थी। किसी भी जाति की महिला की पढ़ाई लिखाई पर भी रोक था। फुले दम्पति ने अपने स्कूलों में, अपने साथियों के साथ मिलकर, प्राचीन ब्राह्मण ग्रंथों के बजाय आधुनिक विज्ञान और सामाजिक विज्ञान को पढ़ाया और ऐसे लेख लिखे, जो आज भी हमारे लिए प्रेरणा की स्रोत हैं।
उनके साथियों में फातिमा शेख का नाम सबसे पहले आता है। सावित्रीबाई और फातिमा को मिलकर समाज की उस सड़ी गली सोच का सामना करना पड़ा जो सबके लिए समान और वैज्ञानिक शिक्षा के अधिकार को नाजायज़ मानता था। रास्ते में चलते वक़्त सावित्रीबाई के ऊपर कचरा फेका जाता था। उनकी साड़ी दुर्गंध से भर जाती और स्कूल पहुंच कर वह दूसरी साड़ी पहनकर बच्चों को पढ़ाती थी।
फातिमा और उनके भाई उस्मान शेख ने फुले दंपत्ति को हर तरह का सहयोग दिया। फातिमा ने फुले दम्पति के साथ मिलकर स्कूल खोले और पढ़ाया भी। हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों के पिछड़े सोच वाले लोगों द्वारा उनका विरोध किया गया। लेकिन लड़कियों को उनके मार्गदर्शन में अध्ययन करना इस हद तक पसंद था कि उनके माता-पिता पढ़ाई के प्रति लड़कियों के समर्पण की ही शिकायत करने लगे! उनके छात्र-छात्राओं ने पढ़ाई में सरकारी स्कूल के लडके-लड़कियो को भी पछाड़ दिया।
सावित्रीबाई का निधन 1897 में पुणे में प्लेग के दौरान गरीब और बीमार मरीजों की सेवा करते हुए हुआ। दूसरी ओर फातिमा शेख के योगदान को रेखांकित करने में हमारा इतिहास विफल रहा।
शिक्षा में योगदान से इतर, सावित्रीबाई ने विधवा और बेसहारा गर्भवती महिलाओं के लिए बालहत्या प्रतिबंधक गृह स्थापित किया और ऐसी ही एक ब्राह्मण विधवा के लड़के को गोद भी लिया। अपने जीवनसाथी ज्योतिराव की मृत्यु के बाद उन्होंने खुद उनकी चिता को अग्नि दी, जो आज भी अकल्पनीय है, साथ ही उनके द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज के संघर्ष को आगे बढ़ाया। उन्होंने अंतरजातीय विवाह का खुलकर समर्थन किया। पुणे के प्लेग के दौरान उन्हें अपनी जान का डर नहीं था। यह समझना आसान है कि क्यों उन्हें ‘ज्ञान ज्योति’ के साथ साथ ‘क्रांति ज्योति’ के नाम से भी जाना जाता है।

आज हमारे बच्चों को कैसी शिक्षा मिल रही है?
हमारी शिक्षा प्रणाली हमें हमें खुद को पहचानना नहीं सिखाती, बल्कि केवल ऊपर से थोपे गए हुकुम और निर्देशों का पालन करना सिखाती है। यही कारण है कि ऊँचे वेतन वाली नौकरी और सम्मानजनक काम पर केवल मुट्ठी भर धनिक व्यक्तियों का ही कब्जा है। सावित्रीबाई के समय में भी, शिक्षा और सत्ता पर मुट्ठी भर पंडितों और राज परिवार के पुरुष सदस्यों का कब्जा था और औरतें और मेहनतकश लोग सिर्फ उनकी सेवा करते थे। उस समय में, शिक्षा आम जनता का कानूनी अधिकार नहीं था। आज भारतीय संविधान सभी को शिक्षा का अधिकार देता है। इसके बावजुद हममे से कई लोग भेदभावपूर्ण शिक्षा व्यवस्था का शिकार हैं। आज इस देश में :
- ज्यादातर स्कूलों में पर्याप्त साधन या शिक्षक नहीं हैं, जबकि पद खाली हैं।
- सरकार द्वारा प्रस्तावित ‘नई शिक्षा नीति’ की आड़ में ग्रामीण क्षेत्रों मे स्कूलों को बंद करने और शहरों और कस्बों में स्कूलों की संख्या कम करने की बात कही जा रही है।
- शिक्षा नीति में कई समस्याओं से जुड़े पहलू है जिनपर ध्यान नहीं दिया गया है, विशेष रूप से लिंग, जाति और धर्म से जुड़े शिक्षा सम्बंधित पहलुओं पर ध्यान न देना या शारीरिक रूप से विकलांगों के लिए कोई योजना ना होना इत्यादि।
- शिक्षा का निजीकरण यानी स्कूलों में शैक्षणिक मापदंड और फीस को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करना, शिक्षण में स्थायी नौकरियों को ख़त्म और शिक्षा क्षेत्र में कॉर्पोरेट और राजनेताओं को घुसने की पूरी अनुमति दिया जा रहा है।
- पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा पढ़ाई छोड़ने वाले स्कूली बच्चे भारत में हैं। जहां स्कूल जाने वाली लड़कियों को यौन उत्पीड़न, शौचालय की कमी, जल्दी शादी आदि के कारण स्कूल छोड़ना पड़ता है, वहीं लड़के छोटी-मोटी नौकरी के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ने को मजबूर हैं।
- कोठारी आयोग के अनुसार भारत की जीडीपी का कम से कम 6% हिस्सा शिक्षा के लिए उपयोग होना चाहिए, जबकि वर्तमान में केवल 2.7% राशि का उपयोग किया जाता है। पड़ोसी देशों में सिर्फ बांग्लादेश और म्यानमार इसमें थोड़े पीछे है।
ये आंकड़े दिखाते हैं कि कैसे हमारी व्यवस्था ने सावित्रीबाई और उनके साथियों के एक नए और बेहतर भारत बनाने के सपने को बर्बाद कर दिया है।
हमारी अर्थव्यवस्था, हमारी बेरोजगारी
दूसरी ओर हम एक भयावह आर्थिक संकट से गुजर रहे हैं। भूखमरी के मामले में हमारा देश 2014 में 55वे स्थान से गिरकर इस साल 117 देशों में 102वे स्थान पर है। इस मामले में भी हमारी स्थिति अपने पड़ोसी देशों से काफ़ी ख़राब है। क़रीब 21% भारतीय, यानि 36 करोड़ लोग दिन में तीन वक़्त का भोजन नहीं कर सकते। आर्थिक रूप से भारत दुनिया का सबसे असमान देश है।
देश में नौकरियां लगभग ना के बराबर है। इस वक्त भारत में बेरोजगारी दर पिछले 40 वर्षों में सबसे अधिक है। इस साल, ऑटोमोबाइल सेक्टर में लाखों लोगों की नौकरी गई। यूपी में 25 हज़ार होमगार्ड बर्खास्त कर दिए गए। ठेका मजदूरों को रोज नौकरी से निकाला जा रहा है, जो नाम मात्र कि मजदूरी पर 12 घंटे काम करने पर मजबूर हैं। तेजी से बढ़ रहे निजीकरण की वजह से सार्वजनिक और निजी दोनो क्षेत्रों में स्थायी नौकरियां ख़त्म हो रही हैं। कठिन जिन्दगी जीने वाला मज़दूरों का एक बड़ा हिस्सा कमजोर तबकों, तथाकथित पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यक समुदायों का हैं। आर्थिक संकट और उनके जीवन में दमन और गैरबराबरी एक दूसरे के पूरक हैं।
जाति और धर्म के नाम पर नफ़रत फ़ैलाना – यह कैसी शिक्षा है ?
भारत में जाति और धर्म के नाम पर उन्माद बढ़ता जा रहा है। बच्चों को भी पीटकर मार डाला जाता है, उनके साथ बलात्कार किया जाता है। दलित महिलाओं और पुरुषों को सार्वजनिक तौर पर अपमानित किया जाता है, मारा पीटा जाता है। सामाजिक अपमान के कारण कई लोग आत्महत्या कर लेते हैं। मुसलमानों और ईसाइयों को मारा जाता है या झूठे आरोप लगाकर उनकी पिटाई की जाती है। इन मामलों में लगभग किसी भी दोषी को सजा नहीं मिलती।
2014 के बाद से पिछले 4 वर्षों में लगभग 280 ऐसी हत्याएं हुई हैं। जो लोग मारे गए वो हमारे जैसे गरीब भारतीय थे, जिन्होंने कोई गुनाह नहीं किया था। जो ईमानदारी से कड़ी मेहनत करके अपना जीवन जी रहे थे। ऐसी बेवजह नफ़रत हमारे जीवन की असली समस्याओं से हमारा ध्यान हटाती है।
हमारे सपने, हमारी आशाएं
इस स्थिति में हम सभी के लिए समान और वैज्ञानिक शिक्षा की सख़्त जरूरत महसूस करते हैं। एक ऐसी शिक्षा जो हमें अपने अधिकारों के बारे में बताए। जो किताबों, अखबारों, मोबाईल और टीवी पर फ़ैले झूठ को पकड़ना और उसका विरोध करना सिखाए।
क्या हम एक बेहतर भविष्य के लिए मिलकर काम कर सकते हैं और सपने देख सकते हैं?
रोकेया सखावत हुसैन 20वीं सदी की भारतीय महिला शिक्षाविद और सावित्रीबाई और फातिमा की सच्ची अनुगामी थीं। अपनी एक कहानी में उन्होंने शोषण की शिकार महिलाओं से पूछा, “आप अपना मुंह क्यों नहीं खोलती हैं?”
चुप रहने से इन्कार करते हुए, होठों पर संघर्ष के गीत लिए, एक बेहतर भविष्य के निर्माण के लिए हम हर साल एकत्रित होते हैं। सावित्रीबाई को हम आज भी हर साल याद करते हैं, क्योंकि उन्होंने और उनके साथियों ने चुप रहना स्वीकार नहीं किया।
जो अच्छा इंसान बनाये
असली शिक्षा वही कहलाये
लड़कियों का स्कूल बनाई
अमर रहे सावित्रीबाई
ज्ञान की मशाल जलाई
अमर रहे सावित्रीबाई
जो भी हो जैसा भी हो
असली शिक्षा सबकी हो
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