“मिर्च मसाला” : महिलाओं के प्रतिरोध और संघर्ष की गाथा

सिनेमा : आइए बेहतरीन फिल्मों को जानें-3
यूं तो भारत में औरतों के संघर्ष और नारीवाद पर बहुत सारी फिल्में बनी हैं और पिछले एक दो वर्षों में तो कई अच्छी फिल्में अलग अलग विषयों पर आई हैं, लेकिन जिस शिद्दत और गहराई से ‘मिर्च मसाला” शोषण और दमन के विरूद्ध उठ खड़े होने को दर्ज करती है, वह कम ही फिल्मों में नजर आता है। …बता रहे हैं साथी अजीत श्रीवास्तव…
मिर्च मसाला

मिर्च मसाले का हमारे जीवन में और खास तौर से महिलाओं के जीवन में क्या स्थान होता है? क्या “मिर्च मसाला” उत्पीड़ित और दमित महिलाओं के प्रतिरोध का प्रतीक बन सकता है और उनका हथियार बन सकता है?
1985 में आई केतन मेहता की फिल्म “मिर्च मसाला” हिन्दी सिनेमा में महिलाओं के प्रतिरोध और उनके संघर्ष को दर्ज करने वाली सबसे सशक्त फिल्म का नाम है। इस फिल्म में स्मिता पाटील के अभिनय को फोर्ब्स पत्रिका ने 2013 में “अभिनय की 25 सबसे सशक्त प्रस्तुतियों” में शामिल किया था।
फिल्म में कहानी 1940 के दशक की दिखाई गई है। सामंती बंधनों में जकड़ा एक पिछड़ा गाँव है जो सूबेदार (नसीरुद्दीन शाह) के रहमोकरम पर दिन काट रहा है। गाँव का मुखिया हालांकि साधन सम्पन्न आदमी है, लेकिन कमजोर व्यक्तित्व का और सामंती सोच में यकीन रखने वाला व्यक्ति है। गाँव में ज़्यादातर आदमी निरक्षर और सामंती सोच वाले हैं। लड़कियों को स्कूल जाने की अनुमति नहीं है। गाँव में एक शिक्षक है जो गांधीवादी है और गाँव का एकमात्र आदमी है जो कुरीतियों के खिलाफ बोलता हुआ दिखता है।
सूबेदार गाँव की हर चीज पर, यहाँ तक कि गाँव की औरतों पर भी, अपना अधिकार समझता है और जिस चीज पर उसकी नजर गड़ जाए, उसे कैसे भी हासिल कर लेता है। उसी गाँव में रहने वाली सोनबाई (स्मिता पाटिल) पर भी सूबेदार का दिल आ जाता है लेकिन सोनबाई मजबूत व्यक्तित्व और स्वाभिमानी महिला है, वह सूबेदार को थप्पड़ मार देती है। सूबेदार अपने सैनिकों को उसके पीछे छोड़ देता है और अंततः सोनबाई एक मसाला कारखाने में शरण लेती है।
मसाला कारखाने की औरतें शुरू में तो चाहती हैं कि सोनबाई सूबेदार के सामने समर्पण कर दे लेकिन उन्हें समझ में आता है कि ये मामला यहीं पर खत्म नहीं होगा। सोनबाई के साथ मिल कर कारखाने की औरतें संघर्ष करती हैं और फैक्टरी में बन रहा मिर्च का पाउडर उनका हथियार बन जाता है।
इस केंद्रीय कथानक के अलावा भी फिल्म में एक साथ कई छोटी छोटी कहानियाँ चल रही होती हैं। मसलन मुखी के भाई की एक निचली जाति की लड़की से प्रेम, मुखी की पत्नी का अपनी बेटी को स्कूल भेजने के लिए संघर्ष, कारखाने के अंदर औरतों के बीच बनते बिगड़ते रिश्ते, गाँव के इकलौते शिक्षक का संघर्ष आदि आदि। इस सारी कहानियों में एक बात हर जगह मौजूद है और वो यह कि शोषण और दमन के खिलाफ गुस्सा और नफरत।
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इस फिल्म की खूबसूरती यही है कि इसमें इस गुस्से को घटनाओं और संवादों से ज़्यादा किरदारों की आँखों और उनके चेहरे के भावों के जरिये चित्रित किया गया है। गुस्से और संघर्ष को इस प्रकार पर्दे पर शक्ल लेते देखना एक अलग अनुभव है। फिल्म का हर किरदार इतने बेहतरीन तरीके से बुना गया है कि फिल्म देखते हुए आप अनायास ही उसकी दुविधा, उसके दुख और उसके गुस्से से जुड़ जाते हैं।
यूं तो भारत में औरतों के संघर्ष और नारीवाद पर बहुत सारी फिल्में बनी हैं और पिछले एक दो वर्षों में तो कई अच्छी फिल्में अलग अलग विषयों पर आई हैं, लेकिन जिस शिद्दत और गहराई से ‘मिर्च मसाला” शोषण और दमन के विरूद्ध उठ खड़े होने को दर्ज करती है, वह कम ही फिल्मों में नजर आता है।
इस फिल्म के किरदार और घटनाएँ इतने वास्तविक हैं, और इतनी बारीकी से उन्हें बुना गया है कि आप इस फिल्म को देखते हुए अपने अंदर कई सारे सवालों को उठते हुए देखेंगे। जब आपके आस पास समाज में बहुत कुछ गलत हो रहा हो तो आपको एक पक्ष चुनना ही पड़ता है, फिल्म देखते हुए आप बार बार इस बात को महसूस करेंगे।
-अजीत श्रीवास्तव