क्या यह मेहनतकश जनता को विभाजित करने का संविधान विरोधी क़दम नहीं है?
मोदी सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 (सीएए) पारित किया, इधर असम में राष्ट्रीयता नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के बाद देशव्यापी एनआरसी की कवायद शुरू हुई। एनआरआईसी का गजट नोटिफिकेशन हुआ। इसी के साथ एक अप्रैल से एनपीआर शुरू होने की तैयारी पूरी हो गई। इनको लेकर पूरे देश में विरोध व दमन के बीच काफी विभ्रम की स्थिति बनी हुई है। मेहनतकश जनता के लिए इसके क्या मायने हैं, इसे समझना जरूरी है।

मोदी सरकार का दोहरा एजेंडा
मोदी-दो सरकार ने पिछले 5 महीनों के कार्यकाल के दौरान दो एजेंडों को तेजी से एक साथ आगे बढाया और लागू किया। दोनों ही मेहनतकश जनता के ऊपर बड़ा और खतरनाक हमला है।
एक तरफ देशी-विदेशी मुनाफाखोरों के हित में लंबे संघर्षों के दौरान हासिल श्रम कानूनी अधिकारों को कमजोर करके चार संहिताओं को कानूनी रूप देने, स्थाई रोजगार की बुनियाद को ही नष्ट करने के लिए फिक्सड टर्म, नीम ट्रेनी आदि को कानूनी दर्जा देने, जनता के खून पसीने से खड़े रेलवे, बीपीएल, दूरसंचार, कोल क्षेत्र सहित ज्यादातर सरकारी सार्वजनिक उद्योगों को ओने-पौने दामों में अदानिओं-अम्बानियों को सौंपने, छँटनी-बंदी को बेलगाम करने, सरकारी कर्मचारियों को जबरिया अवकाश के बहाने निकालने आदि का काम तेजी पकड़ चुका है।
दूसरी तरफ तीन तलाक, असम में एनआरसी लागू करने, कश्मीर के टुकड़े करके व धारा 370 को समाप्त करके कश्मीर घाटी के 75 लाख लोगों को अनिश्चितकाल के लिए बंदी बनाने के क्रम में अब नागरिकता संशोधन अधिनियम, देशव्यापी एनआरसी और एनपीआर की प्रक्रिया तेज कर दिया है। इस प्रकार यह जनता में भयानक बंटवारे की खतरनाक योजनाओं को भी तेजी से अमलीजामा पहनाते हुए देश के संवैधानिक लोकतांत्रिक ढाँचे पर बड़ा हमला बोला है।
ऐसे में देश की जनता, विशेष रूप से मेहनतकश जनता, अब तक के सबसे खतरनाक बंटवारे की शिकार बन गई। मेहनतकश आवाम पर यह दोहरा हमला पूँजीपतियों के भारी मुनाफे की राह बनाने के साथ संघ की दीर्घकालिक योजनाओं को भी लागू करने का सबब है।

नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) है क्या?
भारतीय संसद में ने 11 दिसंबर 2019 को नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) 2019 पारित किया और 12 दिसंबर को राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद यह नागरिकता संशोधन अधिनियम 2019 (सीएए) है। सीएए धर्म के आधार पर नागरिकता देने को मंजूर करता है।
यह संविधान विरोधी और दमनकारी क्यों है?
संविधान विभिन्न समुदायों और क्षेत्रों के लिए स्वायत्तता के अधिकार के साथ एक संयुक्त संरचना सुनिश्चित करता है। विदेशों से लोगों को देश की जनसंख्या में शामिल करना देश की जनता के स्वायत्तता, संघवाद के अधिकार और सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने के संरक्षण के मद्देनज़र रखते हुए बनाया गया था।
यह भारतीय संविधान के प्रावधानों विशेषकर अनुच्छेद 14 व 15 के विरुद्ध है। जबकि नागरिकता कानून 1955, संशोधित 2004 में खुद ही पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान व अन्य देशों से आए शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान करने के प्रावधान मौजूद थे और इस कारण से सीएए 2019 लाने की कोई मजबूरी नहीं थी।
सीएए संविधान के धर्मनिरपेक्षता की सोच को आघात पहुंचाता है, नागरिकता देना धर्म को आधार पर बताता है और संप्रदायों के बीच भेदभाव करता है। यह जानबूझकर मुसलमानों को अल्पसंख्यक समुदायों से अलग-थलग ठहराता है। यह अंग्रेजो के खिलाफ चले लंबे स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा की भी हत्या करता है। सवाल यह है कि केवल तीन देश से ही आए हुए शरणार्थियों को नागरिकता क्यों, जबकि किसी भी प्रताड़ना से बचने के लिए किसी भी अप्रवासी को नागरिकता क्यों नहीं?

एनआरसी बना एनआरआईसी
एनआरसी का मुद्दा लाने से पहले मोदी सरकार द्वारा 31 जुलाई 2019 को एक ऑफिशियल गजट नोटिफिकेशन द्वारा देशभर में एनआरसी की जगह एनआरआईसी शब्द का उपयोग किया गया है। यानी एनआरसी नोटिफाइड है, लेकिन एनआरआईसी के नाम से।
गजट नोटिफिकेशन के साथ ही देश भर में एक नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन (एनआरसी) तैयार करने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। इस नोटिफिकेशन में कहा गया है कि सिटीजनशिप (रजिस्ट्रेशन ऑफ सिटीजन एंड यीशु ऑफ नेशनल आईडेंटिटी कार्ड्स) रूल्स 2003, जो बाजपेई सरकार द्वारा लाया गया था, उसके नियम 3 के उप नियम 4 के अनुसार यह तय किया गया है कि जनसंख्या रजिस्टर (पीआर) को तैयार और अपडेट किया जाए। साथ ही असम के अलावा पूरे देश में घर-घर गणना के लिए फील्ड वर्क किया जाए।
बैक डोर से एनआरसी आ चुकी है
मोदी कैबिनेट ने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) को अपडेट करने की मंजूरी दे दी है। इसके जरिए देशभर के नागरिकों का डेटाबेस तैयार किया जाएगा। इसके साथ ही सरकार ने 8700 करोड रुपए बजट भी आवंटित कर दिया है। अब 1 अप्रैल 2020 से राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) की कवायद होगी। वर्ष 2010 में एनपीआर के फार्म में 15 कॉलम थे, जिसे सुनियोजित रूप से बढ़ा दिया गया है।
इस बार एनपीआर में जो अतिरिक्त जानकारियां माँगी जाएंगी उनमें माँ-बाप की जन्म तिथि, माँ-बाप का जन्म स्थान, पिछला पता, पैन नंबर, आधार, वोटर कार्ड नंबर, ड्राइविंग लाइसेंस नंबर, मोबाइल नंबर है। साथ ही पिछली बार लीगई जानकारियां भी हैं, जिसमें नाम, परिवार के मुखिया से रिश्ता, माँ-बाप का नाम, पति-पत्नी का नाम, सेक्स, जन्मतिथि, वैवाहिक स्थिति, जन्मस्थान, राष्ट्रीयता, वर्तमान पता, निवास अवधि, स्थाई पता, व्यवसाय, शैक्षिक योग्यता शामिल है।
दस्तावेज मांगने का सच
सरकार का कहना है कि किसी भी तरह के दस्तावेज लोगों से नहीं माँगी जाएगी। लेकिन सच यह है कि सितंबर 2020 में एनपीआर की कवायद पूरी होने के बाद जनता द्वारा दर्ज की गई जानकारी का सत्यापन होगा। जिसकी जानकारी अपूर्ण होगी उसे नागरिकता साबित करने के लिए नोटिस जाएगा और उसका नाम संदेहास्पद सूची में डाल दिया जाएगा।
उल्लेखनीय है कि मोदी सरकार ने 23 जुलाई 2014 को राज्यसभा में बताया था कि एनपीआर में जो जानकारियां एकत्रित की जाएंगी उनको सत्यापित कर एनआरसी बनेगा।
एनआरसी व एनपीआर में फर्क क्या है
एनआरसी व एनपीआर में मुख्य फर्क यह है कि एनपीआर में जानकारियां मौखिक होंगी जबकि एनआरसी में उन्हें साबित करने के लिए दस्तावेज जमा कराने होंगे। पिछली एनपीआर के बाद भी कुछ जानकारियों को घर-घर जाकर सत्यापित किया गया था। एनआरसी और एनपीआर में यही मुख्य फर्क है- डॉक्यूमेंट माँगे तो एनआरसी, मौखिक हुआ तो एनपीआर।
एक बड़ी आबादी नागरिकता साबित कैसे करेगी?
सबको भारत की नगरिकत्क साबित करना होगा। कागज तो बहुतों के पूरे नहीं हैं। ऐसे में दृश्य साफ है। जो सबसे गरीब हैं वह इसे भुगतेंगे। जो बाहर काम कर रहे हैं, यानी मज़दूरों को इससे दिक्कत होगी। हर साल देश का बड़ा हिस्सा बाढ़ और सूखे से प्रभावित होता है, वहाँ विस्थापन नियमित चलता है, वे भुगतेंगे। आदिवासियों के पास तो कोई कागज ही नहीं होता। अभी फरवरी में देश की सर्वोच्च अदालत ने 21 राज्यों के 23 लाख आदिवासियो व वनवासियो को बेदखल करने का फरमान सुनाया था। इस तरह की एक बड़ी आबादी है, वहग नागरिकता प्रमाणित करने के लिए दस्तावेज़ कहाँ से लाएगी?
देश की एक आबादी घुमंतू समाज है, जिसके पास न कोई जमीन का पट्टा है, ना कोई पहचान का दस्तावेज, ना किसी सरकारी स्कीम की कोई सुविधा मिलती है। इन समाजों के 94 फ़ीसदी लोग तंबुओं में या कच्ची बस्ती में रहते हैं। 68 फ़ीसदी लोग भीख मांगते हैं। 80 फ़ीसदी लोग पांचवी कक्षा भी पास नहीं हैं।
सरकारी रिकॉर्ड में भारत में 840 घुमंतू जातियां हैं, हालाँकि वास्तविक रूप से इन जातियों की संख्या 12 सौ से ज्यादा है। मुश्किल से 20 फ़ीसदी घुमंतु जातियों के पास अपनी पहचान के दस्तावेज हैं, जबकि वे कुल जनसंख्या का 10 फ़ीसदी है, यानी 15 करोड़ के लगभग। सवाल यह है कि इन लोगों का क्या होगा? क्या इनको दोबारा से उसी विशेष हिरासत शिविरों (डिटेंशन सेंटर) में कैद कर दिया जाएगा जैसा कि 9871 में अंग्रेजों ने किया था?
यह भी उल्लेखनीय है कि देश की मेहनतकश जनता के एक बड़े हिस्से के पास व सरकारी रिकॉर्ड में उपलब्ध दस्तावेजों की जो दुर्दशा है उसमें ज्यादातर लोगों के लिए यह साबित करना एक बड़ी आफत का और खर्चीला काम है। सामान्य लोग भी यह जानते हैं कि यदि कोई त्रुटि पाई गई तो निर्णय सम्बंधित अधिकारी पर निर्भर होगा, जिसके हाथ में उसकी नागरिकता को स्वीकार करने या अस्वीकार करके उसे संदेहास्पद नागरिक घोषित करने का अधिकार है।
पूर्वोत्तर के लोगों के सामने उनकी नाजुक जनसंख्याकी बदल जाने और विशेष अधिकार छीन लिए जाने का खतरा मौजूद है।
असम में कौन प्रभावित हुआ?
असम में एनआरसी की प्रक्रिया सर्वोच्च न्यायालय के पर्यवेक्षण में संचालित की गई। इस वर्ष जारी अंतिम एनआरसी सूची में में असम में केवल 19, 06,657 नागरिक घोषित किया, इनमें से भी 14 लाख गैर मुस्लिम हैं। इसने संघ की सांप्रदायिक गणित को गड़बड़ कर दिया तो भाजपा सरकार ने नागरिकता संशोधन का कानून थोप दिया।
मॉडल डिटेंशन सेंटर के विस्तार का निर्देश
इसी साल जून में केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को मॉडल डिटेंशन सेंटर बनाने का एक परिपत्र भेजा है, इसमें विस्तार से निर्देश दिए गए हैं कि जो नागरिकता सिद्ध नहीं कर सकेंगे, उन्हें रखने के लिए देश भर में यह डिटेंशन सेंटर की जरूरत होगी।

कम मज़दूरी पर खटाने का भी जरिया बनेगा
नागरिकता छिनने का असर गरीब श्रमिकों को कम मज़दूरी पर, बिना संगठित हुए, बिना अपना कोई अधिकार माँगे काम करने पर मजबूर करने का भी बड़ा जरिया बनने वाला है। जब कोई वाजिब मज़दूरी माँगे, यूनियन बनाने का प्रयास करे, या कुछ और अधिकार माँगे, मालिक उनमें जो मुखर हो उन्हें पुलिस से सांठगांठ कर अवैध अप्रवासी घोषित करा सकता है। अमेरिका-यूरोप में सस्ते मज़दूरों को शोषण के फंदे में फँसाए रखने के लिए ये तरीके आजमाये जाते रहे हैं।
44 श्रम कानूनों को खत्म करके अभी बनी 4 श्रम संहिताओं से इसे जोड़कर देखें, जिसके मूल में है सस्ते श्रम का स्रोत हासिल करना। डरा-सहमा ऐसा मज़दूर जो सब कुछ सह कर भी चुप रहे। कामकाजी जनता को सांप्रदायिक रूप से विभाजित करने और असुरक्षित रखने की यह साजिश और उनको सस्ते में मज़दूर मुहैया कराना मोदी सरकार का एक साझा एजेंडा है।
भारत में जैसे-जैसे आर्थिक संकट गहरा रहा है मज़दूरों के शोषण को और तेज करने के लिए नागरिकता कानून का प्रयोग होगा।

ये प्रावधान खतरनाक क्यों है?
सीएएफ 31 दिसंबर 2014 को या उससे पहले भारत में प्रवेश करने वाले बांग्लादेश पाकिस्तान और अफगानिस्तान के गैर मुस्लिमों को धार्मिक आधार पर नागरिकता प्रदान करता है। यह महज आरएसएस के एक दीर्घकालिक वैचारिक एजेंडे का हिस्सा है। यह भारत में नागरिकता और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के चरित्र को बदलकर धार्मिक चरित्र देना चाहता है। यह हमारे देश को कथित हिंदू राष्ट्र की ओर अग्रसर कर रहा है।
एनआरसी के माध्यम से भाजपा-संघ पूरे भारत में मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाना चाहती है और धर्म के आधार पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और द्वेष का माहौल बना रही है। कई स्थानों पर बंगाली मुसलमानों ज्यादातर मजदूर वर्ग के लोगों को पहले से ही बांग्लादेशी अप्रवासी के रूप में चिन्हित किए लोगों और हाशिए पर रहने वाले समुदायों को अपनी नागरिकता साबित करने के उचित दस्तावेजों के अभाव में असुरक्षा और आतंक पैदा कर दिया।
एनपीआर बनाने की पहल को अखिल भारतीय एनआरसी की ओर एक प्राथमिक कदम के रूप में घोषित किया गया है। इसप्रकार एनपीआर एनआरसी और सीएए के मंसूबे का एक हिस्सा है।
यह ध्यान देने की जरूरत है कि 1947 में देश के पीड़ादाई विभाजन और 1971 में बंगलादेश बनने के बाद एक बड़ी आबादी एक से दूसरे देश पलायन करती रही, जिनमे कई धर्म व जाति के लोग थे। इसी तरह श्रीलंका से तमिल लोग आए।
विदेशों से और विशेष रूप से पड़ोसी देशों से लोग भारत आकर इस देश की अर्थव्यवस्था और समाज के हिस्सा बन चुके हैं। उसी तरह जिस तरह लाखों-करोड़ों भारतीय नागरिक विदेशों में रहकर काम करते हैं। एक मानव केन्द्रित राज्य को ऐसे सभी लोगों की जिम्मेदारी लेना और मतदान अधिकार से लेकर निर्धारित समय में उचित तरीके से नागरिकता का अधिकार देना नैतिक ज़िम्मेदारी भी है। इस ढांचे में देश के विभिन्न हिस्सों की क्षेत्रीय और सांस्कृतिक विविधताओं और ऐतिहासिक विशिष्टताओं के प्रति संजीदगी शामिल होनी चाहिए।

इसलिए इसकी मुखालफत जरूरी है
आज देश की मेहनतकश जनता के सामने अभूतपूर्व संकट खड़ा है। अपने मूलभूत बुनियादी अधिकारों से पहले से ही वंचित मेहनतकश जनता और भी वंचित हो रही है। बेरोजगारी, महंगाई रोज अपने नए रिकॉर्ड बना रही है। मेहनतकाश आवाम की तबाही पर मुनाफाखोरों की मीनारें खड़ी हो रही हैं। ऐसे में जनता को सांप्रदायिक आधार पर भयानक रूप से बाँट देने की हर साजिश – चाहे वह कश्मीर, 370 के नाम पर हो, चाहे सीएए-एनआरसी-एनपीआर आदि के नाम पर हो – का और इस रूप में चलने वाले सभी दमन का विरोध जरूरी और अवश्यंभावी है।
भारतीय संविधान के प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष पहलुओं को नष्ट करने के विभिन्न प्रयासों के खिलाफ, धार्मिक आधार पर नागरिकता प्रदान करने की योजनाओं के खिलाफ, भारतीय संघ में राज्य सरकारों की अल्पसंख्यक और हाशिए पर खड़े लोगों को गैरकानूनी करार कर हिरासत केंद्रों में डालकर उनके कट्टरपंथी प्रवृत्तियों के खिलाफ उठे जन आंदोलन के साथ दृढ़ता पूर्वक खड़ा होना होगा और उसे मजबूत करना होगा।
इसलिए दमन के बीच चौतरफा विरोध संघर्ष जारी
जब भारी संख्या में समाज के सभी तबकों के लोगों ने देश भर में लोकतांत्रिक ढंग से सड़कों पर उतर कर शांतिपूर्वक विरोध शुरू किया तो पुलिस का दमन भी तेज हो गया। पुलिस ने विशेष तौर पर अल्पसंख्यक मुस्लिम संस्थाओं जैसे जामिया मिलिया और एएमयू को निशाना बनाया ताकि इस पूरे संघर्ष को सांप्रदायिक रंग दिया जा सके।
उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों पर अलोकतांत्रिक ढंग से ‘बदला’ के तहत और विरोध में खड़े नागरिकों पर सरकारी बर्बरता तेज हो गई है। मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों को निशाना बनाबनाना, उनके घरों पर हमले बढ़ गए हैं। कई लोगों की जानें गईं। इस संघर्ष से जुड़े प्रगतिशील लोगों (अखिल गोगोई, इतिहासकार रामचंद्र गुहा, पूर्व आईपीएस दारापूरी, हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता शोएब अहमद सहित) को निशाना बनाया गया है। भारत के कई राज्यों में इंटरनेट बंद किया गया। लोकतांत्रिक संघर्षों पर राज्य दमन की कड़ी निंदा जरूरी है।
भारी दमन के बावजूद देश के विभिन्न हिस्सों में और असम व अन्य पूर्वोत्तर राज्यों की जनता बर्बर राजकीय दमन के बावजूद केंद्रीय सरकार के इन खोटे मंसूबों के खिलाफ जी जान से संघर्ष कर रही है। मज़दूर वर्ग को सीएए के खिलाफ इन संघर्षों के साथ भी चलना होगा। धर्म, समुदाय और क्षेत्र की परवाह किए बगैर श्रमिकों की बुनियादी माँगों और अधिकारों के लिए वर्गसंघर्ष तेज होने से बीजेपी-संघ सहित सभी कट्टरपंथी और रूढ़िवादी ताकतों के धर्म आधारित षड्यंत्र को मौलिक रूप से कमजोर करेगी।

अंग्रेजों के भक्त अब देशभक्त बन तय कर रहे हैं नागरिकता
भाजपा सरकार को आम मेहनतकश जनता की आंख में धूल झोंक देने की ताक़त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरएसएस की देन है। सन 1925 में संघ ने अपने जन्म के थोड़े दिन बाद ही बता दिया था कि अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष करके ऊर्जा नहीं खपाएंगे। असली दुश्मन है मुस्लिम जनता। इसीलिए अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष में दूरी बनाया। संघ का कोई व्यक्ति लंबे समय तक जेल में भी नहीं रहा, शहादत तो दूर की बात है। देश के बंटवारे में संघ के बड़े विचारक सावरकर की हिन्दू कट्टरपंथी और मुस्लिम कट्टरपंथी के साझे एजेंडे पर काम करते हुए अंग्रेजों ने देश का बंटवारा किया था। यह अलग बात है कि नए भारत की बुनियाद धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में बनी। जिसने संघ खेमे में बौखलाहट पैदा की थी और तब से वह इस एजेंडे पर काम करता रहा।
सवाल यह है कि जिन्होंने पूरी आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों की सरपरस्ती की आज वे सबसे बड़े देशभक्त बन गए और अब जनता को देशभक्ति का सर्टिफिकेट देने लगे और अब यह तय करेंगे देश की जनता की नागरिकता किसे दी जाए! भगत सिंह जैसे आजादी की लड़ाई के शहीदों के सच्चे वारिसों को भला यह कैसे स्वीकार हो सकता है!
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