उत्तरकाण्ड : नहीं मिलेगा मज़दूरों को लॉकडाउन का पूरा वेतन

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मोदी के ऐलान से सुप्रीम कोर्ट तक : आइए जाने सबको वेतन देने से ना देने तक का पूरा खेल…

जैसी की उम्मीद थी, लॉकडाउन के दौरान सबको वेतन देने के मामले पर देश की सर्वोच्च अदालत का फैसला मालिकों के पक्ष में आ गया। मालिकों की याचिका पर पहले दिन ही अदालत ने रोक लगाकर अपनी मंशा जाहिर कर दी थी। जबकि भ्रम फैलाकर मोदी सरकार अपने फैसले से पलट चुकी थी।

जनाब मोदी द्वारा बगैर तैयारी लॉकडाउन, फिर सभी मज़दूरों को वेतन देने की घोषणा, 29 मार्च को बाकायदा गृह मंत्रालय द्वारा इसके लिखित आदेश, सुप्रीम कोर्ट में इसके ख़िलाफ़ मालिकों की याचिका लगते ही अदालत द्वारा इसपर रोक लगाने, 17 मई को मोदी सरकार द्वारा सबको वेतन देने का आदेश वापस लेने, केंद्र सरकार द्वारा शीर्ष कोर्ट में इसे मालिक-कर्मकार का मामला बताने, सुनवाई में हास्यस्पद तर्कों के बाद अंतत मज़दूरों को हासिल हुई बेबसी!

क्या है सुप्रीम कोर्ट का फैसला

लॉकडाउन के दौरान श्रमिकों का पूरा वेतन देने के मामले में 12 जून को सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि कर्मचारी और नियोक्ता (कंपनी) आपस में समझौते से मामला सुलझाए। साथ में यह भी जोड़ दिया कि जो नियोक्ता बातचीत को “इच्छुक” हों श्रम अधिकारी उसमे मदद करें!

न्यायमूर्ति अशोक भूषण ने सुनवाई के दौरान कहा कि हमने कंपनियों के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं करने का निर्देश दिया है। इस पर पहले के आदेश जारी रहेंगे। केंद्र सरकार द्वारा जुलाई के अंतिम सप्ताह में एक विस्तृत हलफनामा दाखिल किया जाए।

कोर्ट ने कहा कि कर्मचारियों और कंपनियों के बीच सुलह के लिए बातचीत का जिम्मा राज्य सरकार के श्रम विभागों को दिया जाता है।

इस याचिका पर न्यायमूर्ति अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली शीर्ष अदालत की इस पीठ में जस्टिस संजय किशन कौल और एम आर शाह शामिल हैं।

आइए, फैसले पर गौर करें-

कौन से नियोक्ता “इच्छुक” होंगे महामहिम!

अदालत ने कहा कि जो निजी नियोक्ता और उद्योग लॉकडाउन के दौरान भुगतान के लिए श्रमिकों के साथ बातचीत करने के इच्छुक हैं, कर्मचारियों के साथ बातचीत शुरू कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि वे नियोक्ता जो लॉकडाउन के दौरान काम कर रहे थे, लेकिन पूरी क्षमता से नहीं, वो बातचीत में भी प्रवेश कर सकते हैं।

आदेश देने वाले महामहिम जब लगभग सभी कम्पनियाँ मज़दूरों का वेतन काटने, यहाँ तक की कोरोना के बहाने घटाने पर तुली हैं, तो उनकी “इच्छा” भी जाहिर है, क्या आपको नहीं मालूम?

बातचीत और बीच का रास्ता किसके हित में?

अदालत के फैसले के अनुसार राज्य सरकार के श्रम विभागों द्वारा वेतन भुगतान की सुविधा के संबंध में कर्मचारियों और नियोक्ताओं के बीच बातचीत होनी चाहिए।

ज़ाहिर है जो मालिक वेतन देने की जगह अदालत गए और सरकार से फैसला वापस लेने का दबाव बनाया, वे बातचीत से क्या रास्ता निकालेंगे? सरकार का रुख जब स्पष्ट है तो श्रम अधिकारी की भाषा क्या होगी, किसी भी मज़दूर के लिए यह समझाना कठिन नहीं है। 

मोदी सरकार ने सबको वेतन देने का दिया था आदेश

दरअसल, पीएम मोदी की सबको वेतन देने की लोकलुभावन घोषणा के बाद गृह मंत्रालय ने 29 मार्च को एक आदेश पारित किया था। इसमें कहा गया था कि जब देशभर में लॉकडाउन चल रहा है, तब सभी नियोक्ता अपने कर्मचारियों को तय तारीख पर वेतन दें और इसमें कोई कटौती न करें। यह भी कि वेतन कटौती पर दंडात्मक कार्रवाई होगी।

मालिक पहुँचे सुप्रीम कोर्ट

हैंड टूल्स मैन्यूफैक्चरर्स एसोसिएशन और जूट मिल्स एसोसिएशन समेत कुछ प्राइवेट कंपनियों ने गृह मंत्रालय के उक्त आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका लगाई थी। इस पर 15 मई को सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई कर अंतरिम आदेश जारी किया था। इसमें कहा गया था कि गृह मंत्रालय का सबको पूरा वेतन देने का आदेश नहीं मानने वाली कंपनियों पर कार्रवाई न हो।

सुनवाई के दौरान अदालत का रुख

लॉकडाउन के दौरान सभीको पूरा वेतन देने के सरकारी आदेश पर रोक लगते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस मामले में अदालत का आदेश आने तक कर्मचारियों को पूरा वेतन देने में असमर्थ रहे कंपनी मालिकों के खिलाफ कोई कार्रवाई न की जाए।

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मालिकों के कुतर्कों की बानगी

सुप्रीम कोर्ट में उद्योगों की तरफ से दाखिल याचिका में कहा गया था कि कोविड-19 और लॉकडाउन से धंधा चौपट हो गया है, ऐसे में सबको वेतन देना संभव नहीं है।

कुछ मालिकों ने तर्क दिया कि आवश्यक सेवा से जुड़े उद्योगों को लॉकडाउन में काम करने की इजाजत दी गई, लेकिन सभी कर्मचारियों को पूरा वेतन देने के केंद्र सरकार के आदेश का फायदा उठाकर ज़्यादातर कर्मचारी काम पर नहीं आ रहे हैं।

राजस्थान में जिंक खनन से जुड़े निर्माण कार्य करने वाली कंपनी ने कहा है जो मजदूर ड्यूटी कर रहे हैं और जो मज़दूर काम पर नहीं आ रहे हैं, उन्हें एक बराबर दर्जा कैसे दिया जा सकता है? ऐसा करना काम करने वाले मजदूरों के साथ भेदभाव होगा।

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सरकार की दलील : पलायन रोकने को था आदेश

सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने कहा कि जब लॉकडाउन शुरू हुआ था तो कर्मचारियों को काम वाली जगह को छोड़कर अपने गृहराज्यों की ओर पलायन करने से रोकने के मंशा के तहत तब अधिसूचना जारी की थी। लेकिन अंततः ये मामला कर्मचारियों और कंपनी के बीच का है और सरकार इसमें दखल नहीं देगी।

मोदी सरकार ने अपना फैसला पलट दिया

सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि लॉकडाउन से जुड़े सरकार के 17 मई के नए आदेश में लॉकडाउन के दौरान कर्मचारियों को पूरा वेतन देने की शर्त को हटा दिया गया है। सरकार ने कहा कि निजी कंपनियां लॉकडाउन के दौरान अपने श्रमिकों की वेतन कटौती के लिए स्वतंत्र हैं।

मज़दूरों को मोदी सरकार ने फिर धोखा दिया। फिर भी 29 मार्च से 17 मई तक 54 दिन के लिए यह प्रभावी बना रहा।

उद्योगों के वकीलों ने सरकार के इस कदम को नाकाफी कहा। कुछ याचिकाकर्ताओं ने पूरा वेतन न देने के आदेश का विरोध किया। याचिकाकर्ता का कहना था कि लॉकडाउन में कामकाज बिलकुल ठप पड़ा है, कोई कमाई नहीं है, कारोबार चला पाना संभव नहीं है, ऐसे में स्टाफ़ को वेतन देना संभव नहीं है।

मालिकों के सामने सरकार बनी भीगी बिल्ली

दरअसल, कंपनियों की दलील है कि वो 29 मार्च से 17 मई के बीच के 54 दिनों का भी पूरा वेतन देने की हालत में नहीं है। उनकी दलील थी कि सरकार को ऐसे मुश्किल हालत में उद्योगों की मदद करनी चाहिए।

मालिकों की इस आपत्ति के बाद केंद्र सरकार ने कह दिया कि यह कम्पनी और कर्मचारी के बीच का मामला है।

पिछली सुनवाई में फैसला रखा था सुरक्षित

4 जून को सुनवाई के दौरान सरकार की ओर से सुप्रीम कोर्ट में कहा गया कि अगर कोई कंपनी ये कह रही है कि वो पूरा वेतन देने की हालत में नहीं है तो वो फिर अपनी ऑडिटेड बैलेंस शीट दिखाए।

कोर्ट ने कहा था कि श्रमिकों को बगैर वेतन दिए नहीं छोड़ना चाहिए। कंपनियों के पास पैसे नहीं हैं तो सरकार दखल दे सकती है। वेतन का 50% भुगतान भी किया जा सकता है। हालांकि, सरकार का कहना था कि जो कंपनियां वेतन देने में दिक्कत होने की बात कर रही हैं, उन्हें अपनी ऑडिटेड बैलेंस शीट कोर्ट में पेश करने को कहा जाना चाहिए।

कहाँ गया 20 लाख करोड़?

अदालत ने सरकार से पूछा था की 20 लाख करोड़ का पैकेज कहाँ गया? जिसपर सरकार ने कहा था कि उद्योगों के घटे की पूर्ति के लिए दिया गया है। अदालत ने इस ज़वाब पर असंतुष्टि जताई थी।

अदालत ने इस पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।

मज़दूरों को मिला ठेंगा

सबको वेतन देने के इस पूरे मामले के दौरान सरकार, अदालत और मालिकों का पूरा खेल एकबार फिर खुलकर सामने आ गया। यह नंगी हक़ीक़त बगैर किसी आवरण के हाज़िर है कि होगा वही, जो मुनाफाखोर मालिक के हित में है।

जिस खेल को कांग्रेस पर्दा डाल कर खेलती थी, मोदी सरकार पूरी बेशर्मी से खेल रही है। अदालतों की पक्षधरता भी साफ़ तौर पर उजागर हो चुकी है।

यही है नवउदारवादी दौर की चीखती सच्चाई!

इसीलिए इस पूरी कवायद के बाद अंततः मज़दूरों को ठेंगा मिला!

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