उदारीकरण की बयार तेज, तीखा हुआ दमनतंत्र : हक़ की आवाज उठाओगे, लाठी-जेल पाओगे!

बीते दशकों में मुनाफे की हितसेवा में शासन अपने दमन तंत्र को मज़बूत बनाता गया। आंदोलनों को कुचलने, फर्जी मुकदमों, फर्जी मुठभेड़ों, हिरासत में हत्याओं का सिलसिला तेजी से बढ़ता गया है।…
उदारीकारण यानी मेहनतकश जनता की बर्बादी के तीन दशक -ग्यारहवीं किस्त
आंदोलन-हड़ताल प्रतिबंधित, दमनतंत्र हुआ मजबूत
भारत के पूर्व राष्ट्रपति वेंकटरमन ने एक बार यह स्वीकार किया था कि नवउदारवादी नीतियों को प्रभावी ढंग से अमल में लाने के लिए एक निरंकुश स्वेच्छाचारी शासन तन्त्र जरूरी होगा। यह आश्चर्य की बात नहीं कि नवउदारवादी नीतियों के वर्तमान दौर में न केवल फासीवादी प्रवृत्तियाँ भारत सहित पूरी दुनिया में विविध रूपों में सामने आ रही हैं, बल्कि पूँजीवादी जनवाद और फासीवाद के बीच की विभाजक रेखाएँ भी धुँधली पड़ती जा रही हैं।
इसीलिए जनविरोधी उदारीकरण की नीतियाँ लागू होने के साथ सत्ता का दमनतंत्र और तीखा होता गया है। गहराते आर्थिक संकट के बीच प्रतिरोध की हर आवाज़ को कुचलने की सत्ताधारियों की तैयारी मुक़म्मल होती गई है। भारत में पहले से ही सीमित पूँजीवादी जनवाद भी सत्ता की जेब में समा गया है। कानून-व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर पुलिस-प्रशासन की भूमिका काफी बढ़ गई है।
हालात ये हैं कि संघर्षरत मज़दूरों, हक़ की आवाज उठाने वाले नागरिकों, जनवादी ताकतों, सभी उत्तपिडित जन, विशेष रूप से अल्प संख्यकों, दलितों पर फर्जी मुकदमों, टॉर्चर, फर्जी मुठभेड़ों और हिरासती हत्याओं का सिलसिला तेजी से बढ़ता गया है।
नवउदारवादी नीतियों को अमल में लाने की प्रक्रिया में छँटनी-बेरोजगारी, श्रम कानूनों को पंगु बनाने, फिक्स टर्म-नीम ट्रेनी, ठेकाकरण, मामूली दिहाड़ी पर मनमाने काम के घंटे, छँटनी-बंदी आदि के चलते मजदूरों में; निजीकरण से कर्मचारियों में; बेरोजगारी व महँगी शिक्षा के कारण छात्रों-युवाओं में; कॉरपोरेटिकरण से किसानों में; महँगाई से आम जनता में जो असंतोष पनप रहा है, उससे निपटने के लिए निरंकुश दमनकारी सर्वसत्तावादी शासन की जरूरत है।
#उदारीकरण के तीन दशक – धारावाहिक-
- पहली किस्त : उदारीकरण के तीन दशक : मेहनतकश जनता की तबाही का कौन है ज़िम्मेदार?
- दूसरी किस्त : कैसे घुसी विदेशी पूँजी, कैसे हुई मेहनतकशों पर चौतरफा हमलों के नए दौर की शुरुआत?
- तीसरी किस्त : छिनते अधिकार, बढ़ता भ्रष्टाचार, बढ़ती महँगाई, बढ़ते दंगे, बढ़ता दमन
एक के बाद एक बनते गए दमनकारी क़ानून
बीते दशकों में मुनाफे की हितसेवा में शासन अपने दमन तंत्र को मज़बूत बनाने में लगा रहा, जो आज विकट रूप में सामने है। आज़ाद भारत में देशी सरकार की गोलियों ने जनता का जितना ख़ून बहाया है उतना तो 200 वर्षों के ब्रिटिश राज में भी नहीं बहा होगा। विरोध के हर आवाज़ को कुचलने के लिए मोदी सरकार पूरी तरह से मुस्तैद है।
इंदिरा सरकार के दौर में 1971 में खतरनाक आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था अधिनियम (मिसा) क़ानून बना। यह वह दौर था जब पूरा देश असंतोष की आग में झुलस रही थी और चौतरफा छात्रों, किसानों, मज़दूरों, कर्मचारियों के व्यापक आंदोलन उभार पर थे। ऐसे में इंदिरा सरकार द्वारा घोषित आपातकाल (1975) के समय संविधान के 42वें संशोधन के साथ दमनकारी क़ानूनी शस्त्रागार और मजबूत हुआ।
आपातकाल के दौर में मीसा कानून लागू था। 1977 में संविधान के 44वें संशोधन से मीसा तो खत्म हो गया, लेकिन नए सत्ताधारियों ने मिनी मीसा लागू कर दिया। और तब से लेकर आज तक कदम ब कदम एक-एक करके लंबे संघर्षों से हासिल जनता के सीमित जनतांत्रिक अधिकार भी छिनते चले गए।
1980 के दशक से अबतक प्रमुख दमनकारी निरंकुश कानूनों में राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून (रासुका/एनएसए), टाडा, पोटा से होते हुए तमाम दमनकारी क़ानून बन चुके हैं, जो हक़ की आवाज़ उठाने वालों को लगातार कुचलते रहे हैं। 1967 में बने गैरक़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) सन 2004, 2008, 2012 में संशोधित होते हुए सन 2019 में बदलाव के साथ खतरनाक रूप में सामने है। इसके तहत किसी भी व्यक्ति/नागरिक को आतंकी घोषित किया जा सकता है और जेल की कलकोठरियों में सड़ाया जा सकता है।
इस दौरान देश की ऊपर से नीचे की अदालतों ने दमनतंत्र को ही मजबूत किया। सन 2003 में तमिलनाडु राज्य के सरकारी कर्मचारियों की जायज हड़ताल को सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप कर हड़ताल करने के संवैधानिक अधिकार पर लगाम लगाने की कोशिश की। केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा हड़ताल रोकने के एस्मा क़ानून को अदालतों ने बल दिया। मज़दूरों के धरना-प्रदर्शन पर रोक के लिए प्रशासन से लेकर न्यायपालिका तक सक्रिय होती गईं।
विगत वर्षों में अलग-अलग कारखानों और क्षेत्रों के मज़दूरों-कर्मचारियों के आंदोलनों को पुलिस बाल के बूट तले बेरहमी से कुचला गया है और तमाम जनांदोलनों को भारी दमन का शिकार बनाया गया है। फैक्ट्रियों तक में पुलिसिया हस्तक्षेप बढ़ता गया है, श्रम विवादों तक में पुलिस का दखल तीखा बना है।
मारुति, प्रीकोल, गर्जियानों के निर्दोष मज़दूर लंबे समय से जेल की कालकोठरियों में बंद हैं और उनको जमानत भी नहीं मिल रही है। जबकि सत्ता के संरक्षण में तमाम अपराधी, घोटालेबाज छुट्टा घूम रहे हैं।
#उदारीकरण के तीन दशक – धारावाहिक-
- पाँचवीं किस्त : ‘विकास’ के ढोल के बीच नौकरियां घटती रहीं, बेरोजगारी बढ़ती रही!
- छठी किस्त : पूँजीपति-सत्ताधारी गँठजोड़ – घोटाले दर घोटाले : इस हम्माम में सभी नंगे हैं!
मोदी युग में दमनतंत्र हुआ विकराल
मोदी सरकार के दौर में दमन और आतंक का पूरा राज कायम हो चुका है। हक के लिए मज़दूरों के संघर्ष हों या सरकार से असहमति फर्जी मुक़दमें, हिरासत, टार्चर आम बात बन चुकी है। पुलिस की लाठी-गोली मुस्तैद खड़ी है। धरना-प्रदर्शन जैसे संवैधानिक अधिकार सरकार-प्रशासन की मर्जी पर हो चुके हैं। कोरोना के बहाने तो कहीं आना-जाना भी सरकारी इजाजत का मुहताज बना दिया गया। आंदोलन व हड़ताल पर तरह-तरह की बंदिशें लग गईं।
अभी हाल में मोदी सरकार ने रक्षा से जुड़े कारखानों में हड़ताल पर प्रतिबंध लगाने की गरज से लोक सभा में आवश्यक रक्षा सेवा विधेयक 2021 को बिना किसी चर्चा के पारित कर दिया। यह ऐसे समय में पारित हुआ है, जब ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड के निजीकरण के खिलाफ करीब 80000 कर्मचारी हड़ताल पर जाने की तैयारी में थे।
यह विधेयक मोदी सरकार द्वारा मज़दूर वर्ग पर एक और हमला है। यह कर्मचारियों को उनके लोकतांत्रिक अधिकारों के साथ विरोध करने से वंचित करेगा। इसके प्रावधान औपनिवेशिक कानूनों की तरह है जो गुलामी की नियम शर्तें निर्धारित करते हैं। यह दमनकारी कानून एस्मा के तर्ज़ पर लाया गया है।
इसी के साथ तमाम राज्य सरकारों ने हड़तालों और आंदोलनों पर अंकुश लगाने की गति बढ़ा दी है। कोरोना दौर में यूपी की योगी सरकार सहित कई राज्य सरकारों ने श्रम कानूनों और हड़ताल के अधिकार को सीज कर दिया।
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल की अधिसूचना को मंजूरी दे दी। औद्योगिक प्रतिष्ठान, प्रमुख स्थल, एयरपोर्ट, मेट्रो, कोर्ट समेत अन्य स्थानों की सुरक्षा के लिए गठित होने वाले उत्तर प्रदेश विशेष सुरक्षा बल के पास बिना वारंट तलाशी लेने और गिरफ्तारी करने का अधिकार है।
‘नेशनल साइबर क्राइम रिपोर्ट पोर्टल’ सरकार विरोधी विचारधारा पर शिकंजा कसने और सोशल मीडिया पर आरएसएस दक्षिणपंथ का वर्चस्व कायम करने का जरिया बन गया।
मोदी सरकार ने संविधान के विरुद्ध नागरिकता संशोधन कानून सीएए, एनआरसी, एनपीआर बनाया। इसके खिलाफ जिन जनवादी शक्तियों, छात्र-छात्राओं ने आवाज उठाई थी, उन्हें बड़ी बेरहमी के साथ कुचला गया, उन्हें जेलों की कलकोठरियों में ठूंस दिया गया, उनके ऊपर यूएपीए जैसी खतरनाक धाराएं लगाई गईं और लगाई जा रही है।
आज सत्ताधारी भाजपा सरकार के खिलाफ किसी भी विरोध के स्वर को जितनी बर्बरता और निर्ममता से कुचला जा रहा है, उसके उदाहरण तमाम-तमाम मानवाधिकार व जनवादी अधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां है।
गौतम नौलखा, सुधा भारद्वाज, वरवरा राव, अरुण फरेरा, वरनन गोंसाल्विस, आनंद तेलतुम्बड़े जैसे लोग जेल की कालकोठरियों में बंद हैं। बुजुर्ग व गंभीर रूप से बीमार स्टेन स्वामी को इलाज के लिए भी जमानत नहीं मिली और निरंकुश सत्ता तंत्र के शिकार बन जेल में ही मौत को प्यारे हो गए।
#उदारीकरण के तीन दशक – धारावाहिक-
- आठवीं किस्त : उदारीकारण के तीन दशक : 134 करोड़ लोगों का देश एक प्रतिशत पूँजीपतियों का उपनिवेश
- नौवीं किस्त : तीन दशक में महँगाई आसमान पर : यात्रा, दवा-इलाज ही नहीं, जनता से दाल-रोटी भी छिनी
अघोषित आपातकाल : कोरोना में दमन और तेज
महामारी के बहाने मोदी सरकार ने बचे खुचे जनवादी अधिकारों को भी बुरी तरीके से कुचलने का काम किया। अपने विरोधियों को एक-एक करके गिरफ्तार करने, जेलों में डालने, फर्जी मुकदमे थोपने और पुलिस-फौज से दमन करने का काम तेज कर दिया।
कोरोना/लॉकडाउन ने सरकार की मंशा और उसकी पूरी कार्यप्रणाली को उजागर कर के रख दिया है। आज जिस तरीके से धरना प्रदर्शन तो दूर की बात है, आम जनता की आवाजाही तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, सरकार के विरुद्ध बोलना ही देशद्रोह बन जा रहा है, अघोषित आपातकाल की बानगी मात्र है। मजदूरों-कर्मचारियों के आंदोलनों को कुचलने के लिए दमन के सारे हथियार आजमाए जा रहे हैं। आंदोलनकारी मजदूरों पर तरह-तरह के मुक़दमें ठोंकना आवाज़ कुचलने का जरिया बन गया है।
कुलमिलाकर देश में निरंकुशता का घोड़ा बेलगाम दौड़ता रहा। तमाम बेगुनाह मज़दूर नेताओं की गिरफ्तारियाँ या फर्जी मुक़दमें हों, काले कृषि क़ानूनों के खिलाफ संघर्षरत किसानों का दमन हो, भीमा कोरेगांव के बहाने गिरफ्तारियां रही हों या सीएए-एनआरसी के खिलाफ संघर्षरत छात्र-छात्राओं, नौजवानों, महिलाओं, जनवादी ताकतों और विशेष रूप से मुस्लिमों की भयंकर दमन के साथ गिरफ्तारियां, सब सत्ता के क्रूर कारनामों की गवाह हैं।
कौन बंद हैं जेलों में : आँकड़े बोलते हैं…
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वार देश की जेलों में बंद कैदियों से जुड़े आंकड़ों से पता चलता है कि जेलों में बंद दलितों, आदिवासियों और मुस्लिमों की संख्या बेहिसाब है। साल 2019 के आंकड़ों से पता चलता है कि मुस्लिम ऐसा समुदाय है, जिससे जुड़े जेल में बंद कैदी दोषियों के बजाय विचाराधीन अधिक हैं। साल 2019 के अंत में देशभर की जेलों में कैद सभी दोषियों में से दलित 21.7 फीसदी हैं। जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों में अनुसूचित जाति से जुड़े लोगों की संख्या 21 फीसदी है।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने देश की जेलों में बंद कैदियों से जुड़े आंकड़े जारी किए हैं, जिनसे पता चलता है कि जेलों में बंद दलितों, आदिवासियों और मुस्लिमों की संख्या देश में उनकी आबादी के अनुपात से अलग है जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और उच्च जाति से जुड़े लोगों के मामले में ऐसा नहीं है।
जेलों में बंद दोषियों में से अनुसूचित जाति से जुड़े लोगों की संख्या 13.6 फीसदी है, जिनमें से 10.5 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं। दोषी ठहराए गए मुस्लिमों की संख्या 16.6 फीसदी है जिनमें 18.7 फीसदी विचाराधीन कैदी हैं। साल 2015 में जेलों में बंद सभी विचाराधीन कैदियों में मुस्लिमों की संख्या 20.9 फीसदी है।
एनसीआरबी के 2015 के आंकड़ों के अनुसार जेलों में बंद दोषियों और विचाराधीन कैदियों में दलितों की संख्या लगभग 21 फीसदी है। जेलों में बंद दोषी कैदियों में आदिवासियों की संख्या 2015 में 13.7 फीसदी, जबकि 2019 में यह 13.6 फीसदी रही जबकि विचाराधीन कैदियों में यह 2015 में 12.4 फीसदी जबकि 2019 में 10.5 फीसदी रही।
सत्ता की निरंकुशता आज पूरी तरीके से खुलकर सामने आ चुकी है।
क्रमशः जारी…
अगली कड़ी में पढ़ें- कैसे निजता पर बढ़ा हमला, आम जनता बनी जमूरा?…