कैसे घुसी विदेशी पूँजी, कैसे हुई मेहनतकशों पर चौतरफा हमलों के नए दौर की शुरुआत?

80 के दशक में विदेशी पूँजी के लिए भारतीय बाजार को खोलने, सार्वजनिक उपक्रमों के बेचने की शुरुआत हुई तो धर्म-जाति के बंटवारे का खेल बढ़ा, भ्रष्टाचार में तेजी आई और तबाही का नया दौर शुरू हुआ…

उदारीकारण यानी मेहनतकश जनता की बर्बादी के तीन दशक -दूसरी किस्त

सन 1980 में इंदिरा सरकार की वापसी के साथ पूँजीवादी अर्थतन्त्र की अपनी जरूरतों और उसके गठन में आए परिवर्तनों ने कुछ महत्वपूर्ण नीतिगत परिवर्तनों को जन्म दिया। पूँजी के हित में अर्थव्यवस्था और समाज के कुशल संचालन के लिए लाइसेंस व कंट्रोल राज्य की भूमिका कम करने के नाम पर “निजीकरण” और बाजार की शक्तियों को खुली छूट देने, विदेशी पूँजी निवेश के लिए दरवाजों को खोलने, भारतीय पूँजीपति वर्ग की नई जरूरतों और आर्थिक आधारों के विस्तार के लिए साम्राज्यवादी लूट को बेलगाम करने की जरूरत थी।

1981 में तत्कालीन इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के साथ कर्ज का एक समझौता किया। जिसके तहत ही भारतीय बाजार को विश्व पूँजी के लिए सीमित तौर पर खोलने की शुरुआत हुई। इसी के साथ सरकारी क्षेत्र में निजी भागीदारी शुरू हुई। जब मारुति-सुजुकी कि स्थापना के बाद सुजुकी, होंडा, कावासाकी, वीडियोकॉन, वेस्पा जैसी तमाम-तमाम कंपनियां भारत में प्रवेश कीं।

इसी समय बीआईएफआर का गठन हुआ और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को बीमार घोषित करके उन्हें बंद करने की प्रक्रिया शुरू हुई। उस वक़्त 58 सार्वजनिक उपक्रमों यानी करीब साढ़े तीन सौ सार्वजनिक क्षेत्र के कारखानों को इस दायरे में लाया गया जिसमे एफसीआई, एचएफसी जैसे खाद कररखाने; लाल इमली, एल्गिन जैसी कपड़ा मिलें; टैफको जैसे जूता कारखाने शामिल थे।

इसी के साथ सत्ता के संरक्षण में देश के नए पूँजीपतियों ने छलांग लगाई। जैसे धीरु भाई अंबानी को इंदिरा सरकार द्वारा पॉलिस्टर धागों का बड़ा ठेका मिला और देश की जूट व कताई मिलों के ध्वंस के साथ रिलायंस के मुनाफे में बम्पर बृद्धि के साथ बादशाहत कायम होती गई।

यही वह समय था जब जाति और धर्म के बंटवारे की एक नई शुरुआत मंडल कमीशन की रिपोर्ट और बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद के रूप में सामने आया। इसी समय शिक्षा नीति में बदलाव की शुरुआत हुई और कॉरपोरेट परास्त नई शिक्षा नीति लागू हुई (राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1985)। इसी दौर से भ्रष्टाचार में भी बेतहाशा तेजी आई।

1982 में भारत में एशियाड होने के साथ देश में टीवी टावरों के लगाने की धूम मची, आम जनता को टेलीविजन के दायरे में क़ैद करने और बाजार के प्रति ललक बढ़ाने का खेल शुरू हुआ। यह नई तकनीक जनता के हित को ध्यान में रखने की जगह बाजार को बढ़ावा देने के साथ आम जनता को मानसिक जकड़बंदी में लेने का उपक्रम था, जो क्रमशः विकराल रूप लेता गया।

नए गुलामी के दौर की मुकम्मल शुरुआत

इस पृष्ठभूमि में देश के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तंत्र में एक बड़े बदलाव की प्रक्रिया आगे बढ़ रही थी, जब 1991 में नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की सरकार बनी और उसने उदारीकरण और वैश्वीकरण का नारा उछाला। 1994 में गैट यानी डंकल प्रस्ताव पर तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने घुटने टेकेकर उक्त समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस तरीके से विश्व व्यापार संगठन अस्तित्व में आया जो 1 जनवरी 1995 से पूरी दुनिया के लिए एक नए लूट व व्यापार मॉडल के रूप में खड़ा है।

तबसे देश का भविष्य “त्रिदेव” यानी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ), विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) की तिकड़ी के नुस्खा-निर्देशित नीतियों की गिरफ्त में है।

इस क्रम में जहाँ लंबे संघर्षों से हासिल श्रम कानूनी अधिकारों को छीनने, जनता के खून पसीने से खड़े सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने, निगम में बदलने का खेल गति पकड़ता गया, वहीं दमन के नए-नए अस्त्रों को और मजबूत करने, मेहनतकश जनता व जनवादी शक्तियों का दमन करने की प्रक्रिया आगे बढ़ी।

उदारीकारण-निजीकरण-वैश्वीकरण तथा धर्मोंन्माद व भ्रष्टाचार एक साथ बढ़े

यह देखना दिलचस्प है कि इन चार दशकों के दौरान किस प्रकार जनता की तबाही-बर्बादी तेजी से आगे बढ़ती गई, जिसे मोदी सरकार ने बेलगाम बना दिया। कैसे सीमित क़ानूनी अधिकार भी छिनते गए और जनता अधिकार विहीन बनती गई। सरकारी संपत्तियां बिकती गईं, रोजगार विहीन विकास का मॉडल विकसित होता रहा।

और इसी के समांतर किस तरह जातीय और धर्मिक उन्माद तेजी से आगे बढ़ता गया। किस प्रकार बोफोर्स दलाली से शुरुआत होकर राफेल दलाली तक भ्रष्टाचार लगातार अपने चरम सीमा पर पहुंचता गया। कैसे निरंकुशता और दमन चरम पर पहुँच गया। किस प्रकार जनता के दिलों दिमाग पर सत्ताधारियों ने कब्जा कर लिया और चुनावी राजनीतिक पार्टियां मदारी की तरह से जनता को जमूरा बनाकर नचाती रहीं।

यहाँ एक महत्वपूर्ण और गौरतलब बात है कि मेहनतकश जनता का संघर्ष जैसे-जैसे कमजोर पड़ता गया, एक समय में मजबूत ट्रेड यूनियन आंदोलन भी सत्ता की सरपरस्ती व दलाली में मशगूल होता गया, मेहनतकश जनता पर कहर बढ़ता चला गया।

क्रमशः जारी

अगली कड़ी में पढ़ें- विदेशी पूँजी के सामने समर्पण बढ़ने के साथ देश की जनता को बाँटने के लिए दंगे-फसाद तेज हुए, तो भ्रष्टाचार भी नये रिकॉर्ड बनाते गये!

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