शीर्ष अदालत ने संकटग्रस्त प्रवासी मज़दूरों को नहीं दी राहत

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लॉकडाउन से पैदा स्थिति में मज़दूर त्रस्त, कोर्ट कहती नीतिगत फैसले में हस्तक्षेप का इरादा नहीं

नई दिल्ली। प्रवासी मज़दूरों को तत्काल राहत पहुँचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा केंद्र को निर्देश देने की माँग वाली जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने बिना राहत का निर्देश दिए सुनवाई की अगली तारीख 13 अप्रैल रख दी। पीठ ने कहा कि कामगारों को आश्रय गृहों में भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है तो उन्हें पैसे की क्या जरूरत है।

दरअसल सुप्रीम कोर्ट में दाख़िल एक जनहित याचिका में कहा गया था कि देशव्यापी लॉकडाउन की वजह से रोज़गार गंवाने वाले लाखों कामगारों के लिए जीने के अधिकार लागू कराने की आवश्यकता है। लॉकडाउन की घोषणा के बाद ये कामगार बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।

आज (7 अप्रैल) को प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल और न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता की पीठ ने वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान कहा कि कोरोना वायरस महामारी के मद्देनज़र लॉकडाउन की वजह से पलायन करने वाले कामगारों के स्वास्थ्य और उनके प्रबंधन से जुड़े मुद्दों से निबटने के वे विशेषज्ञ नहीं है और बेहतर होगा कि सरकार से जरूरतमंदों के लिये हेल्पलाइन शुरू करने का अनुरोध किया जाये।

याचिका पक्ष से वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा यह कहने पर कि तब तक राहत के बिना कई जानें चली जाएंगी, कोर्ट ने कहा कि नीतिगत फैसले लेने का विशेषाधिकार सरकार के पास है और कोर्ट नीतिगत फैसलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहती।

संकटग्रस्त मज़दूरों के न्याय के लिए दायर है जनहित याचिका

दरअसल कोरोना वायरस से देश में 25 मार्च से 21 दिनों के लिए जारी लॉकडाउन से पैदा स्थिति में पलायन करने को मजबूर हुए कामगारों के जीवन के मौलिक अधिकार की रक्षा और लॉकडाउन की वजह से बेरोजगार हुए श्रमिकों को उनका पारिश्रमिक दिलाने के लिए सामाजिक कार्यकताओं हर्ष मंदर और अंजलि भारद्वाज ने एक जनहित याचिका दायर की थी।

शीर्ष अदालत ने इससे पहले 3 अप्रैल को इस याचिका पर सरकार से जवाब माँगा था। उसने इस स्थिति से निबटने के बारे में सरकार के जवाब पर संतोष व्यक्त किया। पीठ ने कहा कि सरकार स्थिति पर निगाह रखे है और उसने इन कामगारों की मदद के लिए हेल्पलाइन भी शुरू की है।

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मज़दूर पक्ष की त्रासदी का बयान

इससे पहले, सुनवाई शुरू होते ही याचिकाकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने कहा कि चार लाख से अधिक कामगार इस समय आश्रय गृहों में हैं और यह कोविड-19 का मुकाबला करने के लिये परस्पर दूरी बनाने का मखौल बन गया है।

उन्होने कहा कि अगर उन्हें आश्रय गृहों में रखा जा रहा है और उनमें से किसी एक व्यक्ति को भी कोरोना वायरस का संक्रमण हो गया तो फिर सारे इसकी चपेट में आ जाएंगे। उन्होंने कहा कि इन कामगारों को अपने-अपने घर वापस जाने की अनुमति दी जानी चाहिए। उनके परिवारों को जिंदा रहने के लिए पैसे की जरूरत है क्योंकि वे इसी पारिश्रमिक पर निर्भर हैं। 

प्रशांत भूषण ने कहा कि 40 फीसदी से ज्यादा कामगारों ने पलायन करने का प्रयास नहीं किया और वे शहरों में अपने घरों में रह रहे हैं लेकिन उनके पास खाने-पीने का सामान खरीदने के लिए पैसा नहीं है।

केंद्र सरकार की दलीलें

केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि सरकार स्थिति पर निगाह रखे है और उसे मिलने वाली शिकायतों पर ध्यान भी दे रही है। इसके लिए कॉल सेन्टर बनाया गया है। गृह मंत्रालय और मंत्री हेल्पलाइन की निगरानी भी कर रहे हैं।

क्या कहा सर्वोच्च पीठ ने?

पीठ ने इस याचिका की सुनवाई 13 अप्रैल तक के लिए स्थगित कर दी और कहा, ‘हम सरकार के विवेक पर अपनी इच्छा नहीं थोपना चाहते। हम स्वास्थ्य या प्रबंधन के विशेषज्ञ नहीं है और सरकार से कहेंगे कि शिकायतों के लिए हेल्पलाइन बनाये।’ पीठ ने कहा कि वह इस समय बेहतर नीतिगत निर्णय नहीं ले सकती और वैसे भी अगले 10-15 दिन के लिये नीतिगत फैसलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहती।

पीठ ने कहा कि न्यायालय ऐसी शिकायतों की निगरानी नहीं कर सकता कि किसी आश्रय गृह में कामगारों को दिया गया भोजन खाने योग्य नहीं था। पीठ ने कहा कि उसे बताया गया है कि ऐसे कामगारों को आश्रय गृहों में भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है और ऐसी स्थिति में उन्हें पैसे की क्या जरूरत है।

न्यायालय की पक्षधरता किसके हित में?

देश की सर्वोच्च अदालत के प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व वाली पीठ का मज़दूरों के प्रति रुख एकबार फिर उजागर होता है। देश की अदालतों से मेहनतकश आवाम के लिए इसके अतिरिक्त कुछ और उम्मीद करना बेईमानी होगा।

देश की न्याय प्रणाली को ऐसे समझा जा सकता है कि जो अदालत मारुति के बेगुनाह मज़दूरों को 8 सालों में भी जमानत नहीं देती, लेकिन गुजरात दंगे के सजायाफ्ताओं को सामाजिक कार्यों का उपयुक्त बता रिहा कर देती है। निजिता का हनन करने वाले आधार कार्ड पर ढुलमुल फैसला देती है, लेकिन कश्मीर मसले या शाहीन बाग प्रकरण को लटका देती है। तमाम भ्रष्टाचारियों को बरी करती है, राफेल सौदे पर केंद्र सरकार के झूठे कथन पर कुछ नहीं करती, लेकिन भेल के अस्थाई कर्मियो के स्थाईकारण के निचली अदालत के फैसले को पलट देती है।

इसीलिए उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि लॉकडाउन की घोषणा के बाद ये कामगार बुरी तरह प्रभावित हुए हैं, उसे कामगारों के सामने उत्पन्न अप्रत्याशित मानवीय संकट से भी कोई लेना-देना नहीं है। यह खाए, पीये, अघाए तबके का ही बयान हो सकता है कि आश्रय गृहों में भोजन उपलब्ध है मज़दूरों को पैसे की क्या जरूरत है!

ज़ाहिर है इस प्रकरण में एकबार फिर स्पष्ट हुई है न्यायपालिका की पक्षधरता!