“उद्योग हित” में मज़दूरों का वेतन कटाने की तैयारी

संसदीय समिति की रिपोर्ट, भाजपा का सुझाव, कार्पोरेट की रिट, सरकारी आदेश मालिकों के हित में बढ़ाते क़दम…
संकट का बोझ मज़दूरों के मत्थे डालने की तैयारी पूरी हो गई। संसदीय समिति द्वारा उद्योग बंदी के दौरान वेतन ना देने का सुझाव, इसी सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट में कार्पोरेट की याचिकाएं, उद्योग मंत्रालय द्वारा काम नहीं तो वेतन नहीं का प्रस्ताव, केन्द्रीय कर्मियों का डीए स्थगित करने जैसे क़दम मज़दूरों के संकट के शुरुआती संकेत हैं।
प्राकृतिक आपदा के दौरान वेतन देना उचित नहीं: संसदीय समिति
कोविड-19/लॉकडाउन के बीच संसद की एक स्थायी समिति ने कहा है कि भूकंप, बाढ़ और चक्रवात जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण कंपनी या उद्योग-धंधे बंद करने के दौरान कार्य फिर से शुरु होने तक श्रमिकों को मजदूरी का भुगतान करना ‘अन्यायपूर्ण’ हो सकता है।
ज्ञात हो कि मोदी सरकार द्वारा 44 श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर 4 संहितायें लाने के क्रम में पिछले साल 28 नवंबर को लोकसभा में औद्योगिक सम्बन्ध संहिता, 2019 पेश हुआ था, जिसे दिसंबर में बीजू जनता दल सांसद भर्त्रुहरि महताब की अध्यक्षता वाली श्रम पर स्थायी समिति के पास भेजा गया था।
मोदी सरकार द्वारा गठित इस समिति ने बीते गुरुवार को औद्योगिक सम्बन्ध संहिता (द इंडस्ट्रियल रिलेशंस कोड), 2019 पर अपनी रिपोर्ट लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला को नियम 280 के तहत सौंपी।
‘छंटनी, व्यय में कमी और बंद’ से जुड़े प्रावधानों पर रिपोर्ट में कहा गया है कि बिजली की कमी, मशीनरी की खराबी कारण मजदूरों को 45 दिन तक के लिए 50 फीसदी मजदूरी, जिसे नियोक्ता और कर्मचारियों के बीच समझौते के बाद बढ़ाया जा सकता है, देने के प्रावधान को उचित ठहराया जा सकता है।
लेकिन प्राकृतिक आपदाओं के मामले में, जहाँ कंपनी को बंद करना पड़ता है और इसमें नियोक्ता या मालिक की गलती नहीं होती है, उद्योग के फिर से चालू होने तक श्रमिकों को मजदूरी देना उचित नहीं हो सकता है। संसदीय समिति ने इससे संबंधित प्रावधानों को स्पष्ट करने के लिए सुझाव दिया है।
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वेतन देने के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती
मिल मालिकों की ओर से सुप्रीम कोर्ट में याचिकायें दाखिल हुई हैं, जिनमें लॉकडाउन के दौरान निजी कंपनियों के श्रमिकों को पूरा वेतन देने के केंद्र सरकार के आदेश को चुनौती दी गई है।
सुप्रीम कोर्ट में याचिका लुधियाना हैंड टूल्स एसोसिएशन ने दाखिल की है जिसमें उसने कहा है कि डिजास्टर मैनेजमेंट कानून के तहत केंद्र द्वारा निजी प्रतिष्ठानों को पूरा वेतन देने का आदेश जारी करना गलत है। इससे संविधान में मिले व्यवसाय करने व बराबरी के अधिकारों का हनन होता है। याचिका में कोर्ट से पूर्ण वेतन देने के केंद्र सरकार के गत 29 मार्च के आदेश को रद करने की माँग की गई है।
पिछले सप्ताह महाराष्ट्र की एक टेक्सटाइल कंपनी ने भी ऐसी ही याचिका दाखिल की थी। हालांकि, महाराष्ट्र की ट्रेड यूनियन ने भी टेक्सटाइल कंपनी की याचिका में हस्तक्षेप अर्जी दाखिल कर कहा है कि पूर्ण वेतन पाना श्रमिकों का अधिकार है।
याचिका में कहा गया है कि क्या डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट 2005 केंद्र को यह आदेश देने का अधिकार देता है कि वह निजी प्रतिष्ठानों को आपदा में कर्मियों को पूरा वेतन देने का आदेश दे। जबकि ऐसी ही स्थिति पर औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1948 में 50 फीसद वेतन देने का प्रावधान किया गया है। सवाल यह है क्या कर्मचारी वर्ग के हितों का ध्यान रखते हुए केंद्र सारा बोझ नियोक्ताओं पर डाल सकती है, जबकि नियोक्ता भी भारी नुकसान मे चल रहे हों।
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29 मार्च को आया था सबको वेतन देने का निर्देश
ज्ञात हो कि केंद्र सरकार ने बीते 29 मार्च को लॉकडाउन के दौरान सभी श्रमिकों को वेतन देने का आदेश दिया था। इसके बाद 30 मार्च को श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने सभी क्षेत्रीय लेबर कमिश्नर को एडवाइजरी जारी कर कहा था कि लॉकडाउन से बंद हो गए प्रतिष्ठानों के सभी कर्मचारी इस दौरान ड्यूटी पर माने जाएंगे। सभी निजी व सरकारी प्रतिष्ठानों को सलाह दी जाती है कि वे कर्मचारियों को न तो नौकरी से निकालेंगे और न ही उनका वेतन काटेंगे। इसमें अस्थायी और संविदा कर्मचारी भी शामिल माने गए।
गुजरात चैम्बर की यूनियनों पर प्रतिबन्ध व वेतन ना देने की माँग
इस बीच जीसीसीआई (गुजरात चैंबर ऑफ कॉमर्स) ने केन्द्रीय श्रम मंत्री को पत्र लिखकर एक साल के लिए यूनियनों पर प्रतिबंध लगाने और वेतन भुगतान न करने तक का प्रस्ताव दे दिया है। पूँजीपति इस मानवीय संकट के बहाने हायर एंड फायर की नीति यानी जब मर्जी काम से निकालने की नीति का ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाना चाहते हैं।
भाजपा का मालिकों के हित में सुझाव
केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने पूँजीपतियों के हित में देश की विनिर्माण नीति में बड़े और दीर्घकालिक बदलावों का सुझाव दिया है। इसमें उत्पादन की लागत कम करने, जमीन की कीमत घटाने, भूमि अधिग्रहण में छूट, श्रम कानूनों में मालिकों के हित में ढील देने, अनुबंध प्रावधानों को सरल बनाने और डाटा संग्रह द्वारा जनता पर नियंत्रण आदि प्रस्ताव शामिल हैं।
भाजपा ने स्पष्ट सुझाव दिए हैं कि निर्माण इकाइयों के लिए भूमि की लागत में कमी लाई जानी चाहिए एवं श्रम कानूनों सहित श्रमिक मुद्दों को हटा देना चाहिए। आर्थिक मामलों पर पार्टी के प्रवक्ता गोपाल कृष्ण अग्रवाल ने सुझावों का खुलासा करते हुए बताया कि सरकार की प्रतिक्रिया सकारात्मक रही है।
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कार्पोरेट हित में मोदी सरकार के क़दम
पिछले दिनों पीएम नरेंद्र मोदी ने मंत्रिपरिषद को संबोधित करते हुए कहा था कि कोरोना वायरस और लॉकडाउन के मद्देनजर संकट “हमारे लिए निर्यात के नए क्षेत्रों और नए देशों को खोजने के लिए एक अवसर में बदल सकता है।”
उपरोक्त कवायदों से जोड़कर देखें कि ज़नाब मोदी का यह “अवसर” किसके हित में है? इसे और स्पष्टता से समझाने के लिए सरकारी मशक्कत पर गौर करें!
काम नहीं, तो वेतन नहीं
11 अप्रैल को सचिव उद्योग संवर्धन और आतंरिक व्यापार विभाग, वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी दिशानिर्देश में साफ़ लिखा है कि जिनका नाम काम करने वालों की सूची में होगा, वे यदि अपने काम पर उपस्थित नहीं होते हैं, तो उनको वेतन देने की ज़िम्मेदारी नियोक्ता की नहीं होगी।
एक तरफ ऐसे प्रस्ताव, दूसरी ओर आपदा राहत के बहाने निजी क्षेत्र के मज़दूरों से भी 3 दिन का वेतन कटाने के आदेश राज्य सरकारें जारी कर रही हैं।
बंधुआ मज़दूरी कराने का आदेश
19 अप्रैल को केन्द्रीय गृह मंत्रालय द्वारा जारी सर्कुलर खुले तौर पर कहता है कि राहत कैंपों में रह रहे लोगों की विभिन्न नौकरियों के लिए उनकी उपयुक्तता के लिए उनकी “दक्षता और कौशल” मापी जाएगी। 33 फीसदी श्रम शक्ति कम करने की तैयारी के बीच इसे देखें। स्पष्ट है कि मालिकों को मनमर्जी से मज़दूर छाँटने का ही यह फरमान है।
क्या यह मज़दूरों को जबरदस्ती पकड़कर उनसे बंधुआ मजदूरी करवाना नहीं हुआ?
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केन्द्रीय कर्मियों व पेंशनरों के डीए जुलाई, 2021 तक स्थगित
वित्त मंत्रालय ने 23 अप्रैल 2020 के अपने आदेश के जरिए जनवरी 2020 से जुलाई 2021 तक 4 प्रतिशत की दर से मिलने वाले सरकारी कर्मचारियों के डीए (महंगाई भत्ता) और पेंशनरों कें डीआर (महंगाई राहत) पर रोक लगा दी है। साथ ही 1 जनवरी 2020 से 30 जून 2021 की अवधि के एरियर्स भी अदा नहीं किये जाएंगे।
ध्यानतलब है कि ‘पीएम केयर्स’ फंड के लिये एक दिन के वेतन की कटौती और डीए में हुई हानि के चलते कर्मचारियों को अपने वेतन से 7 प्रतिशत का घाटा हुआ है।
संकट का बोझ मुनाफाखोरों पर क्यों नहीं
संकट की इस घड़ी में होना यह चाहिए कि कॉरपोरेट पर 10 प्रतिशत का कोविड-19 टैक्स लगाया जाए, सरकार का अमीरों पर बहुत टैक्स बकाया है, उसे वसूलना चाहिए? इस संकट की घड़ी में अगर सरकार को राजस्व कमाना है तो वह उन लोगों से वसूले जिन्होंने संसाधनों पर कब्जा कर रखा है। बजाये सरकारी कर्मचारियों, पेंशनरों और मज़दूर-मेहनतकश को संकट का निशाना बनाने के!
लेकिन ऐसा नहीं है, क्योंकि मोदी सरकार के लिए मज़दूर-मेहनतकश महज वोट देने के टूल हैं, असल सेवा तो वह देशी-बहुराष्ट्रीय उन मुनाफाखोर कंपनियों की ही करने में संलग्न है, जिन्होंने इफ़रात रुपए बहाकर ज़नाब मोदी की लगातार सरकार बनवाई है!