22 मई की देशव्यापी विरोध प्रदर्शन को सफल बनाओ!

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कोरोना के बहाने मज़दूरों को बंधुआ बनाने के ख़िलाफ़ महासंघों के आह्वान को मासा ने दिया समर्थन

मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासा) ने कोरोना-संकट के बहाने मज़दूर वर्ग पर पूँजीपति-सरकार के खतरनाक हमलों के खिलाफ केन्द्रीय ट्रेड यूनिंयनो के आह्वान पर 22 मई के अखिल भारतीय विरोध प्रदर्शन को सक्रिय समर्थन दिया है। मासा ने इसको पूँजीपति-सरकार के हमलों के खिलाफ निरंतर, जुझारू और निर्णायक संघर्ष में तब्दील करने के लिए मज़दूर वर्ग का आह्वान किया है!

मासा ने वक्तव्य/पर्चा जारी कर कहा है कि पूँजीपति-सरकार ने मज़दूर वर्ग के खिलाफ जो युद्ध छेड़ा है, मज़दूर वर्ग को उसका जवाब उनके खिलाफ संगठित प्रतिरोध और वर्ग संघर्ष से ही देना पड़ेगा। आज चुप रहने का समय नहीं है, अपने अधिकारों को बचाने और पूँजीवादी गुलामी से समस्त मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए आवाज उठाने का समय है, अन्यथा मज़दूरों को सौ साल पीछे गुलामी के तरफ धकेल दिया जायेगा।

मासा द्वारा जारी पर्चा

श्रम क़ानूनी अधिकारों को छीनने, काम के घंटे 12 करने, प्रवासी व असंगठित मज़दूरों के भयावह संकट, छंटनी-बेरोजगारी-भुखमरी, बेइंतहा शोषण-दमन, निजीकरण के खि़लाफ़; कोरोना-संकट के बहाने मज़दूर वर्ग पर पूँजीपति-सरकार के खतरनाक हमलों के खिलाफ

22 मई 2020 को अखिल भारतीय विरोध प्रदर्शन में शामिल हो!

मज़दूर वर्ग के निरंतर, जुझारू और निर्णायक संघर्ष की तैयारी करो!

मोदी सरकार द्वारा 44 श्रम कानूनों को समाप्त करके मज़दूर विरोधी 4 श्रम संहिताएं बनाने जा रही थी, इसी बीच कोरोना संकट आ गया। इस बहाने अब मोदी सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों ने कोरोना के खिलाफ नहीं बल्कि देश के मज़दूर वर्ग के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है। ऐतिहासिक मई दिवस की कुर्बानी और पिछले सौ साल के दौरान संघर्षों की बदौलत हासिल किये गए मज़दूरों के कानूनी अधिकारों को एक झटके में ख़त्म करने की गति तेज हो गई है, काम के घंटे 12 करने से लेकर श्रम कानूनों को स्थगित करने तक केंद्र से लेकर राज्य सरकारें सक्रिय हैं।

श्रम अधिकारों पर राज्य सरकारों के हमले

जहाँ केंद्र की मोदी सरकार चोर दरवाजे से, विधेयक द्वारा बची मज़दूर विरोधी तीन श्रम संहिताएँ लाने की तैयारी में है, केन्द्रीय कर्मियों व पेंशनभोगियों का महँगा भत्ता जुलाई, 2021 तक फ्रीज कर दिया, वहीं राज्य सरकारें श्रम क़ानूनों को स्थगित करने, काम के घंटे बारह करने का फरमान जारी कर रही हैं।

उत्तर प्रदेश सरकार ने तीन साल (1000दिन) के लिए सभी औद्योगिक प्रतिष्ठानों और व्यवसायों को अधिकांश श्रम कानूनों के दायरे से छूट देने वाले अध्यादेश को मंजूरी दे दी है। खत्म हो रहे 38 कानूनों में न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, ट्रेड यूनियन एक्ट, उत्तर प्रदेश औद्योगिक विवाद अधिनियम, कारखाना अधिनियम, ठेका मज़दूरी अधिनियम, बोनस भुगतान अधिनियम, अंतर-राज्य प्रवासी श्रमिक अधिनियम, वर्किंग जर्नलिस्ट अधिनियम, कर्मचारी भविष्य निधि और विविध प्रावधान अधिनियम आदि शामिल हैं। अध्यादेश अब केंद्र सरकार की मंजूरी के लिए लंबित है।

मध्य प्रदेश में औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 25 को छोड़कर सभी प्रावधानों को शिथिल कर दिया गया है, इनमें काम के घंटों को बढ़ाकर 12 घंटे करने, 50 से कम श्रमिकों वाले प्रतिष्ठानों को विभिन्न श्रम कानूनों के तहत निरीक्षण से बाहर रखने, 100 से कम मज़दूरों वाले उद्योगों को मध्य प्रदेश औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम के प्रावधानों से छूट देने, नियत अवधि के रोजगार (फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट) को मंजूरी देने, मालिकों के लिए विभिन्न रजिस्टरों के बजाय एक ही रजिस्टर रखने, 13 के बजाय मात्र एकल रिटर्न दाखिल करने का प्रावधान शामिल है। इसके साथ कारखानों को तीन महीने की अवधि के लिए निरीक्षण से छूट दे दी गई है।

गुजरात सरकार ने बगैर ओवरटाइम भुगतान काम के घंटे बढाकर 12 कर दिये हैं। इसके साथ गुजरात सरकार कम से कम 1200 दिनों तक काम करने वाली नई परियोजनाओं को श्रम कानूनों के प्रावधानों से छूट देने की योजना बना रही है। हिमांचल सरकार ने कारखाना अधिनियम पर हमला बोला और कार्यदिवस बढ़ा कर 12 घंटे का कर दिया है।

उत्तराखंड सरकार ने भी काम के घंटे बढाकर 12 कर दिये हैं और यूपी, एमपी व गुजरात की तर्ज पर श्रम कानूनी अधिकारों को छिनने की राह पर है। गोवा में भी मालिकों के हित में काम के घंटे बढाकर 12 घंटे करने का फरमान जारी हो चुका है। असम सरकार ने भी इसी तर्ज पर घोषणा की है।

इसके अलावा भाजपा शासित राज्यों की तरह ही कांग्रेस व गैर भाजपा शासित राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र, उड़ीसा सरकारों ने भी कारखाना अधिनियम में संशोधन किए हैं और काम के घंटे प्रति दिन 8 से बढ़ा कर 12 घंटे कर दिए हैं। इसी तर्ज पर पाण्डिचेरी ने भी घोषणा की है और अन्य राज्य सरकारें भी क़दम उठा रही हैं।

20 लाख करोड़ का पैकेज मालिकों के लिए

मोदी सरकार के 20 लाख करोड़ वाले ‘जुमला पैकेज’ में जितनी घोषणाएं हुई हैं, वह उद्योगपतियों को बैंकों से बिना कोई गारंटी लिए कर्ज लेने की सुविधा पर केन्द्रित है। अनुभव बताता है कि जिन पूँजीपतियों ने गारंटी देकर भी कर्ज लिया था उन्होंने लौटाया नहीं और उसे भी सरकार ने बट्टे खाते में डाला है। मुमकिन है कि पूँजीपति यह कर्ज भी न भरें, अपरोक्ष रूप से जनता से करों के जरिये यह वसूला जाए। साथ ही यह पीएफ राशि में पूँजीपतियों का हिस्सा कम कर मजदूरों के लिए हमला पैकेज भी है। लॉकडाउन अवधि के वेतन का भी इसमें कोई हिस्सा नहीं है।

मज़दूर मेहनतकश के लिए कोई भी सरकारी राहत न के बराबर है। अभी सरकार का ध्यान एक ही विषय पर है कि पूँजीपतियों को मुनाफ़ा कमाने में कोई अड़चन न आए। वे मनमर्जी से मज़दूरों को ‘रखने निकालने’ की खुली छूट के साथ उनका बेइंतहा शोषण कर सकें और मज़दूर चूं तक न करें। कोरोना संकट और आर्थिक संकट का सारा बोझ मज़दूर-मेहनतकश जनता पर थोप  दिया जाए। इसीलिए अलग अलग राज्य सरकारें जल्दबाजी में उससे भी आगे जा कर श्रम कानूनों को निलंबित या संशोधित कर रही हैं। इस काम में भाजपा शासित राज्य हों या फिर कांग्रेस या अन्य गैर-भाजपा शासित सरकारें, सभी मज़दूरों के अधिकारों पर कुल्हाड़ा चला रही हैं।

निजीकरण की आंधी तेज

आज पहले से जारी निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीति को आत्मनिर्भरता के जुमले की आड़ में दोहराया जा रहा है। कोरोना संकट पूँजीपतियों के लिए बेशी मूल्य को हर संभव तरीके से बढ़ाने का बहाना बन गया है। 20 लाख करोड़ के पैकेज की हक़ीक़त वित्त मंत्री की पांच किस्तों की लफ्फाज़ी से साफ़ हो चुका है। इसमे खुले तौर पर निजीकरण की आंधी बहाई गई है।

कोयला क्षेत्र का निजीकरण, रक्षा उत्पादन में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) की सीमा बढ़कर 74 फीसदी करने, 12 और हवाई अड्डों की नीलामी, अंतरिक्ष क्षेत्र में निजी घुसपैठ की छूट, परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप आदि की घोषणाएँ जनता के खून पसीने से खड़े सार्वजनिक क्षेत्र को अडानियों-अम्बानियों जैसों के निजी मुनाफे के हवाले करने की मोदी सरकार की नीतियों का दर्पण है।

कोरोना/लॉकडाउन में बढ़ती तानाशाही

कोरोना संकट की आड़ में सरकारें पूरी तरह तानाशाहीपूर्ण तरीके से पूँजीपतियों की खुली चाकरी में उतर आयी हैं। वास्तव में कोरोना संकट की सबसे ज्यादा मार देश की मेहनतकश जनता पर ही पड़ी है। उनका रोजगार छिन गया है, जमापूँजी खर्च हो चुकी है, देने को मकान का किराया नहीं और पेट में भूख की आग है। ऊपर से कोरोना बीमारी से ग्रसित होने का खतरा भी सबसे ज्यादा उन्हीं को है। परंतु विडम्बना है कि सरकारें मेहनतकश जनता को पर्याप्त राहत देने की बजाय पूँजीपतियों के मुनाफा को सुनिश्चित करने में लगी हुई हैं।

सरकारों के ये क़दम बेरोजगारी बढ़ाएंगे। नौकरी की सुरक्षा को खत्म कर देंगे। औद्योगिक सुरक्षा को कम कर के औद्योगिक दुर्घटनाओं को बढ़ाएंगे। कार्यबल की बड़ी संख्या को किसी भी कानूनी सुरक्षा के दायरे से बाहर फेंक देंगे और इस स्थिति में श्रमिक गुलामी जैसी स्थिति में चले जाएंगे। यह मज़दूर वर्ग के बुनियादी अधिकारों और सम्मानजनक रोजगार के अधिकार पर हमला है। सरकार के ये क़दम मज़दूरों को सौ साल पीछे धकेल देंगे। मालिक और मनमानी करेंगे। इससे हायर एंड फायर की नीति पूर्ण रुप से लागू हो जाएगी। विशेष तौर पर प्रवासी मज़दूर व असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों की समस्याएं कई गुना और बढ़ जाएंगी। मज़दूर वर्ग के लिए श्रम व अन्य अदालतों के दरवाजे बंद हो जाएंगे।

अधिकार विहीन बंधुआ मज़दूरी की दस्तक

तय है कि इससे पूँजीवादी गुलामी की बेड़ियाँ और मजबूत हो जाएंगी। अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संगठित होना, यूनियन बनाकर शोषण दमन के खि़लाफ आवाज उठाना मजदूरों/कर्मचारियों का मौलिक अधिकार है। कानून के मौजूद रहते भी मज़दूरों द्वारा यूनियन बनाना और श्रम कानूनों के तहत मिले अधिकारों को प्राप्त करना पहले ही बहुत मुश्किल है, परन्तु जब ये श्रम कानून ही नहीं रहेंगे या निलंबित कर दिये जाएंगे तो जरा सोचिए मज़दूरों की क्या दशा होगी? असल में सरकारें श्रम कानूनों पर हमला बोलकर मज़दूरों को निहत्था और अधिकार विहीन करना चाहती हैं।

मोदी सरकार सहित सभी सरकारें श्रम क़ानूनों को छीनने के साथ यह कुतर्क दे रही हैं कि इससे उत्पादन व रोजगार बढ़ेगा। मज़दूरों को भ्रमित करने वाले इन हास्यास्पद जुमलों को बुर्जुवा अर्थशास्त्री तक नकार रहे हैं।

गै़र ज़िम्मेदाराना लाकॅडाउन के बीच बेहाल प्रवासी मज़दूर

साथियो कोरोना संकट ने समूचे पूँजीवादी जगत की पोल खोल कर रख दी है कि इस व्यवस्था में सरकारों की नीतियां किसके लिए हैं और मज़दूरों का पूँजीपति अधिक से अधिक कैसे शोषण करते हैं? इसने पूरी तरह नंगा करके दिखा दिया है कि असंगठित/प्रवासी मज़दूर कितने संकटपूर्ण हालात में जीते हैं? कैसे देश में गैर-जिम्मेदार लॉकडाउन के चलते लाखों मज़दूर मजबूर होकर सरकारी दमन झेलते, भूखे-प्यासे, पैरों में छाले लिए, परिवार सहित सड़कों पर हजारों मील पैदल घर की तरफ चल रहे हैं, ट्रेन-ट्रक-बस उन्हें कुचल रहे हैं।

मौजूदा संकट का बोझ हासिए पर खड़ी मेहनतकश जनता पर सबसे ज्यादा पड़ा है। प्रवासी-असंगठित क्षेत्र की बहुसंख्यक महिला, दलित व आदिवासी मेहनतकश आवाम इस संकट को सबसे ज्यादा झेल रही है।

असल में सरकार को यह व्यवस्था करनी चाहिए थी कि कोरोना-संकट तक काम पर उपस्थित ना हो पाने वाले मज़दूरों की नौकरी बरकरार रहे और पूरा वेतन मिले, उनकी मर्जी से उन्हें घर जाने दे। परंतु इसकी जगह पुलिस उन्हें पीट रही है। लॉकडाउन के दौरान बंधक रखना मज़दूरों को मशीन के समान देखना भर है। इस घोर असंवेदनशीलता के लिए स्थापित ट्रेड यूनियनें भी जिम्मेदार हैं, जिन्होंने मज़दूरों को निहत्था बनाकर पूँजीपतियों के हाथों में सौंप दिया है।

पूँजी की सेवा में निरंकुश सत्ता और मरते मज़दूर

सरकार के मज़दूर विरोधी रवैये ने अब तक करीब 500 मज़दूरों को मौत के घाट उतार दिया है। प्रवासी मज़दूरों को सरकार ने मालिक वर्ग के उद्यमों को चलाए रखने, उत्पादन करने के लिए जबरदस्ती रोक कर रखा है, उनका दमन किया है। जब परेशान होकर मज़दूरों ने बगावत की तभी कुछ ट्रेनें चालू की गईं मगर उसका किराया भी परेशान मज़दूरों से वसूला जा रहा है। इन हादसों ने दिखा दिया है कि मज़दूर इस मुनाफाखोर व्यवस्था में एक उपकरण मात्र हैं, इस्तेमाल करके फेंक देने की वस्तु रह गये हैं। सरकार की नज़र सिर्फ इस बात पर है कि अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए पूँजीपति मज़दूर का इस्तेमाल आसानी से कैसे कर सकें।

देशभक्ति की आड़ में देशी-विदेशी कम्पनियों की गुलामीं

ये सबकुछ देश भक्ति के नाम पर व आत्मनिर्भरता के आवरण में किया जा रहा है। एक तरफ सरकार देश भक्ति व आत्मनिर्भरता की पाखंडपूर्ण बातें कर मज़दूरों को मूर्ख बना रही है, वहीं इसी बीच रक्षा क्षेत्र में विदेशी निवेश को बढाकर 74 फीसदी कर देती है। सरकार मजदूरों को लठिया रही है वहीं अमीरों को विदेश से घर वापसी के लिए विशेष विमानों व बस की व्यवस्था कर रही है। साफ़ है कि इनकी देशभक्ति फर्जी है, साम्राज्यवाद परस्त है।

दरअसल, राष्ट्रवाद व सांप्रदायिक बंटवारे के घिनौने खेल की आड़ में मज़दूरों पर बड़ा हमला बोला गया है। मज़दूर जितना बँट रहा है, हमला इतना तेज हो रहा है। अधिकारों में डकैती से ध्यान हटाकर उसे कपटपूर्ण तरीके से फर्जी राष्ट्रवाद व सांप्रदायिक जुनून में उलझा दिया गया है।

दूसरी ओर, कोरोना वायरस के बहाने आरोग्य सेतु ऐप जन-निगरानी का खतरनाक तंत्र बन गया है, जिसे कंपनी में प्रवेश से लेकर किसी भी यात्रा के लिए तरह-तरह से बाध्यकारी बनाया जा रहा है। प्रवासी मज़दूरों को राहत देने की जगह पंजीकरण के लिए ऐप द्वारा निगरानी तंत्र का घातक फरमान भी जारी हो गया है।

अदालत की पक्षधरता मालिकों के हित में

देश की सर्वोच्च अदालत प्रवासी मजदूरों की बात तक नहीं सुनती, मजदूरों की वेतन कटौती को जायज ठहरा देती है। मजदूरों की मौत व घर भेजने की व्यवस्था सम्बन्धी याचिका को भद्दे कमेंट कर खारिज करना, कई याचिकाकर्ता पर भारी जुर्माना लगाना, मोदी सरकार द्वारा गलत तथ्यों पर आधारित मजदूरों को घर भेजने की पर्याप्त व्यवस्था सम्बन्धी शपथपत्र को मान लेना आदि से स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट सरकार की नीतियों के साथ खुलकर खड़ी हो गई है।

मासा का आह्वान

मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासाद्), कोविड-19 संकट के बहाने मज़दूर विरोधी कार्यप्रणाली की अनुमति देने वाले विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा जारी सभी अध्यादेशों/आदेशों को तत्काल वापस लेने की माँग करता है। मासा केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों से माँग करता हैं कि संकट की इस घड़ी में श्रमिकों के अधिकारों और हितों की सुरक्षा के लिए तत्काल कदम उठाये जाएं, जिनमें सभी के लिए सुरक्षित नौकरियां और पूर्ण वेतन, सार्वभौमिक स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा, प्रवासी श्रमिकों के अधिकारों के लिए अंतर्राज्यीय प्रवासी मज़दूर कानून में प्रभावी संशोधन, उनके घर वापस जाने की निःशुल्क सुविधा का इंतज़ाम व औद्योगिक सुरक्षा के लिए मजबूत उपाय, कर्मचारियों व पेंशनभोगियों के डीए की अदायगी व ऐप आधारित निगरानी तंत्र को रोकना आदि शामिल हैं।

केंद्र व राज्य सरकारों के मज़दूर विरोधी कदमों के खिलाफ स्थापित केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों ने आगामी 22 मई 2020 को देश भर में विरोध प्रदर्शन का कार्यक्रम लिया है। सरकार की मज़दूर विरोधी नीतियां इतनी खतरनाक हैं कि भाजपा-आरएसएस से जुड़ा ट्रेड यूनियन बीएमएस भी इस संयुक्त प्रदर्शन से अलग हटकर मज़दूरों के गुस्से के दबाव में अपनी ही सरकार के खिलाफ 20 मई को विरोध प्रदर्शन करने का कार्यक्रम लेने पर मजबूर हुआ है।

मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासा) 22 मई के अखिल भारतीय विरोध प्रदर्शन के कार्यक्रम को सक्रिय समर्थन करता है। मासा इस विरोध प्रदर्शन को पूँजीपति-सरकार के हमलों के खिलाफ निरंतर, जुझारू और निर्णायक संघर्ष में तब्दील करने के लिए मज़दूर वर्ग का आह्वान करता है!

आज मज़दूर विरोधी हमलों के खिलाफ अलग अलग स्तर पर मज़दूरों का गुस्सा फूट कर सामने आ रहा है, मगर पूँजीपति-सरकार ने मज़दूर वर्ग के खिलाफ जो युद्ध छेड़ा है, मज़दूर वर्ग को उसका जवाब उनके खिलाफ संगठित प्रतिरोध और वर्ग संघर्ष से ही देना पड़ेगा। आज चुप रहने का समय नहीं है, अपने अधिकारों को बचाने और पूँजीवादी गुलामी से समस्त मज़दूर वर्ग की मुक्ति के लिए आवाज उठाने का समय है, अन्यथा मज़दूरों को सौ साल पीछे गुलामी के तरफ धकेल दिया जायेगा।

इसलिए साथियों उठो और एकजुट होकर सरकारों की मज़दूर विरोधी नीतियों का मुंहतोड़ जबाब दो! 22 मई के अखिल भारतीय विरोध प्रदर्शन कार्यक्रम को सफल बनाओ! शोषण-दमन-भुखमरी-बेरोजगारी से मेहनतकश जनता की मुक्ति के लिए, एक बेहतर समाज बनाने की दिशा में संघर्ष को आगे बढ़ाओ!

मज़दूर अधिकार संघर्ष अभियान (मासा)