सिनेमा : आइए सार्थक फिल्मों को जानें-5
जब हिन्दी में लगभग 90 प्रतिशत फिल्में फूहड़ और काल्पनिक समस्याओं पर बेहद गैरजिम्मेदाराना तरीके से बन रही हों और मुख्यतः कचरा ही परोसा जा रहा हो तब “आर्टिकल-15” जैसी फिल्म का बनना और पसंद किया जाना एक सार्थक शुरुआत है। … प्रचलित मान्यताओं को चुनौती देती इस फिल्म को जानिए साथी अजीत श्रीवास्तव से…
आर्टिकल -15
भारत के संविधान मे आर्टिकल -15 में कहा गया है कि इस देश में किसी नागरिक से धर्म, जाति, जन्म स्थान, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा और इसे लागू हुए 70 साल हो चुके हैं। लेकिन क्या भारत का समाज, यहाँ की सरकारी मशीनरी और यहाँ के लोग इसे असल में लागू कर पाये है? मध्य वर्ग अक्सर इस सवाल से बच कर निकल जाता है, लेकिन 2019 में आई अनुभव सिन्हा की फिल्म आर्टिकल-15 इस मध्य वर्ग को खींच कर यथार्थ के कठोर धरातल पर पटक देती है और उसका सामना इस समाज के अंदर की गंदगी से कराती है।
इसे देखते हुए आप समाज के अंदर के बँटवारे, सदियों से व्याप्त शोषण और अत्याचार को अपनी आँखों के सामने क्रूरतम रूप में देखते हैं और महसूस करते हैं कि किस प्रकार सरकारी मशीनरी और हमारे समाज ने संविधान की मूल आत्मा का ही मज़ाक बना रखा है और यह भी कि छोटे से छोटे अधिकार को भी पाने के लिए किस कदर दिन रात लड़ना पड़ता है, भले ही संविधान में वह अधिकार आपके नाम लिख दिया गया हो।

फिल्म का नायक विदेश से पढ़ कर आया एक ब्राह्मण नौजवान अयान रंजन है जिसने आई पी एस का इम्तिहान पास करके एक ग्रामीण थाने के इंचार्ज के रूप में पोस्टिंग ली है। पोस्टिंग के अगले दिन ही दो लड़कियों की लाश पेड़ से लटकते हुए मिलती है और आदर्शवादी पुलिस ऑफिसर के रूप में वह अपने कर्तव्य का पालन करना चाहता है यानी कानून के हिसाब से उन लड़कियों को इंसाफ दिलाना चाहता है।
उसकी तफतीश के क्रम में एक एक कर पुलिस थाने की जातीय संरचना, गाँव की जातीय संरचना, स्थानीय गुंडों का राजनीतिक संबंध, स्थानीय नेताओं की दबंगई से उसका सामना होता है और दर्शक का सामना इस जातियों के हिसाब से चलने वाले वाले समाज की गंदगी से होता है। जब यह बात सामने आती है कि मजदूरी मे महज तीन रुपये बढ़ाने की माँग करने पर ऊंची जाति के दबंगों की भावनाएं आहत हो जाती हैं और “औकात” बताने के लिए उन लड़कियों के साथ पहले रेप किया जाता है और बाद में उनकी निर्मम हत्या कर दी जाती है।
“औकात” बताने का यह सिलसिला यहीं नहीं रुकता बल्कि इस हत्या की रिपोर्ट ही दर्ज नहीं होती और जब दबाव में दर्ज होती है तो इसे ऑनर किलिंग का रूप देने के लिए पीड़ित लड़कियों के पिताओं को ही गिरफ्तार करके उन्हीं पर केस दर्ज कर लिया जाता है। ये “नीची” जाति वाले लोग समाज को चला रहे सवर्ण दबंगों और उनके मददगार पुलिस वालों और राजनेताओं के लिए जानवरों जितनी भी अहमियत नहीं रखते।
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असमानता और शोषण की गंदगी की बुनियाद पर खड़ा हमारे समाज का मौजूदा ढांचा गुनहगारों के लिए ढाल बन कर खड़ा हो जाता है ताकि “बैलेंस” बना रहे। इसी बैलेंस की आड़ में सदियों से शोषण और अत्याचार को यह समाज जस्टिफ़ाई करता रहा है और इसी बैलेंस को परत दर परत यह फिल्म बेनकाब करती है ।
इस फिल्म की खूबसूरती है कि इसमें अलग अलग स्तर पर चल रहे संघर्षों को परदे पर जगह दी गई है।फिल्म में एक दलित नायक निषाद है जो सदियों की इस पीड़ा के खिलाफ लड़ रहा है और जिसके चेहरे पर मरते समय भी शिकन नहीं है जो मौत की आँखों में आँखें डाल कर बोल सकता है कि और भी उसके जैसे आयेंगे और इस लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाएंगे।
फिल्म में उसकी प्रेमिका है जिसकीआँखें इस अँधेरे दौर में मशाल की तरह चमकती हैं और जो बाकी गाँव वालों के साथ मिल कर जुल्म के खिलाफ हर उस जगह आवाज उठा रही है जहाँ न्याय की कोई उम्मीद बाकी नहीं। फिल्म का नायक अयान रंजन है जो अपनी पूरी ताकत से न्याय के लिए उस मशीनरी से टकरा रहा है जो पूरी तरह अंधी और बहरी बन कर शोषण और अन्याय की हिफाज़त करने में जुटी है।
फिल्म में वह परिघटना भी दिखती है कि किस तरह दलित नेतृत्व अपने स्वार्थों के लिए संघर्ष का रास्ता छोड़ दलित विरोधी हिन्दूवादी राजनीति की गोद में बैठ गया है।
कमर्शियल सिनेमा की सीमाओं के बावजूद यह फिल्म बहुत सारी प्रचलित मान्यताओं को चुनौती देती है और कई सारे सामयिक और जरूरी सवाल मध्यवर्गीय दर्शक के लिए छोड़ देती है। एक नागरिक के तौर पर आपको शर्मिंदा करती है और रेखांकित करती है की एक बराबरी पर आधारित सभ्य समाज बनने के लिए हमें कितनी ज्यादा दूरी तय करनी है और यह भी कि संघर्ष करके ही उसे हासिल किया जा सकेगा।
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फिल्म में नायक को कहीं भी दलित प्रश्न के समाधानकर्ता के रूप में नहीं प्रस्तुत किया गया है, बल्कि फिल्म का मूल स्वर यह है कि अगर इस देश में संविधान में लिखे प्रावधानों को भी सही तरीके से लागू करने की कोशिश की जाए तो वर्तमान सामाजिक और राजनीतिक ढांचा ही उसके रास्ते में सबसे बड़ी बाधा के रूप मे खड़ा होगा।
जब हिन्दी में बनी लगभग 90 प्रतिशत फिल्में फूहड़ और काल्पनिक समस्याओं पर बेहद गैरजिम्मेदाराना तरीके से बन रही हों और उनमें मुख्यतः कचरा ही परोसा जा रहा हो तो ऐसे समय में इस तरह की फिल्म का बनना और लोगों द्वारा पसंद किया जाना निश्चित ही एक सार्थक शुरुआत है इसकी तारीफ की जानी चाहिए।
-अजीत श्रीवास्तव