कोरोना/लॉकडाउन के बीच मज़दूर विरोधी श्रम संहिताएँ होंगी पारित

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मोदी सरकार एक अध्यादेश के जरिए श्रम संहिताओं को प्रभावी बनाएगी

नई दिल्ली। मज़दूर पीटें ताली-थाली, जलाएं मोमबत्ती, मोदी सरकार मज़दूरों के अधिकारों पर डकैती डालने की तैयारी कर चुकी है। केंद्र सरकार गुपचुप तरीके से एक कार्यकारी अध्यादेश द्वारा 44 क़ानूनों को ख़त्म करके 4 श्रम संहिताओं में से बची तीन संहिताएँ प्रभावी बनाने वाली है।

एनडीटीवी की ख़बर के मुताबिक मोदी सरकार उन तीन श्रम संहिताओं को एक कार्यकारी आदेश या अध्यादेश से प्रभावी बनाने जा रही है, जो अभी क़ानूनी रूप नहीं ले पाए हैं। जबकि मजदूरी पर संहिता पहले ही पारित हो क़ानूनी रूप ले चुकी है।

मजदूरी पर श्रम संहिता, न्यूनतम मज़दूरी, बोनस, समान पारिश्रमिक और कुछ अन्य से संबंधित कानूनों को एक साथ प्रभावित कर चुका है। वेतन पर संहिता होने के बावजूद यह मनमाने काम के घंटे तय करने की खुली छूट देता है।

लंबित 3 संहिताओं में – औद्योगिक संबंधों पर श्रम संहिता, सामाजिक सुरक्षा व कल्याण श्रम संहिता तथा व्यवसायिक सुरक्षा एवं कार्यदशाओं की श्रम संहिता है, जिसे मोदी सरकार एक कार्यकारी अध्यादेश लाकर लागू करने की तैयारी में है।

ज्ञात हो कि मोदी सरकार इसी दरमियान फैक्ट्री एक्ट, 1948 में बदलाव करके काम के घंटे 8 से बढाकर 12 कर रही है।

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पूँजीपतियों की माँग है “हायर एंड फायर”

मोदी-1 सरकार ने पूँजीपतियों को किये गये वायदों के अनुसार तमाम मज़दूर विरोधी क़दम उठाए। इनमें सबसे प्रमुख है लंबे संघर्षों के दौरान हासिल श्रम कानूनों को मालिकों के हित में बदलना। इसके मूल में है- ‘हायर एण्ड फॉयर’ यानी देशी-विदेशी कंपनियों को रखने-निकालने की खुली छूट के साथ बेहद सस्ते दाम पर मजदूर उपलब्ध कराना।

स्थाई प्रकृति के रोजगार को समाप्त करके फिक्स्ड टर्म करना, कौशल विकास के बहाने फोक़ट के मज़दूर नीम ट्रेनी भर्ती करना, पिछले दरवाजे से मालिकों के लाभ के लिए नये-नये रास्ते बनाना आदि।

इसी पूरे उपक्रम का महत्वपूर्ण पहलू है मौजूदा 44 केंद्रीय श्रम कानूनों को खत्म करके 4 संहिताओं में बदलना।

बाजपेई सरकार से मोदी सरकार तक

यह ध्यान देने की बात है कि 1991 में राव-मनमोहन सरकार के ज़माने में नई आर्थिक नीतियों के लागू होने, 1994 में डंकल प्रस्ताव के सामने कांग्रेस के घुटने टेकने और विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) में शामिल होने के साथ मज़दूर अधिकारों को छीनने की प्रक्रिया शुरू हो गई थी।

मोदी सरकार द्वारा तैयार मौजूदा श्रम संहिताएँ बाजपेयी की भाजपा नीत सरकार के दौरान प्रस्तुत दूसरे राष्ट्रीय श्रम आयोग (2002) की ख़तरनाक़ सिफ़ारिशों पर आधरित हैं। लेकिन उस समय व्यापक विरोध के कारण यह क़ानूनी रूप नहीं ले सका, लेकिन धीरे-धीरे उसके आधार पर क़ानून बदलते रहे।

मिलीजुली सरकार होने के कारण मनमोहन सरकार के समय मज़दूर विरोधी बदलाव की यह गति धीमी पड़ने लगी तो थैलीशाहों ने पानी की तरह रुपये बहाकर नरेन्द्र मोदी की सरकार बनवाई। पिछले पाँच साल मोदी सरकार उसी कर्ज को चुकाने के लिए पूरे जी-जान से जुटी रही। फिर भी अधिकारों की बलि चढ़ाकर भी मेहनतकशों ने मोदी को प्रचण्ड बहुमत से फिर सरकार बनाने पर मुहर लगा दी। इसीलिए मोदी-2 सरकार ने मालिकों की पहले से ज्यादा बेशर्म सेवाएं करने और मज़दूरों का निर्मम क़त्लेआम बढ़ा दिया।

महामारी में भी चिंता कार्पोरेट की

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी लॉकडाउन के अगले चरण में, जीवन और अर्थव्यवस्था दोनों को सुरक्षित करने की आवश्यकता बता रहे हैं। हाल ही में राजनीतिक नेताओं के साथ बैठक में जनाब मोदी ने आने वाले समय के लिए “पूर्व-कोरोना और पोस्ट-कोरोना” की बात कही थी। यह “पोस्ट कोरोना” क्या है, पूँजी व मुनाफे के हित में चल रही परियोजनाओं से साफ हो रहा है।

दरअसल, मोदी सरकार पूँजीपतियों को खुश करने और मेहनतकश जनता को भ्रमित करके उसकी गर्दन कटाने में महारत हासिल कर चुकी है। ऐसे में कोरोनोवायरस और उससे पैदा लॉकडाउन ने एक मुफीद मौका भी उसे दे दिया है। विपदा की इस घडी में भी उसने पागलपन भरे जूनून और हिन्दू-मुस्लिम का सफल आयोजन कर लिया। जनता जब भी मस्त रहे, मालिकों के हित को साधने का काम कर लेना ही मोदी की कला है।

यह एक ख़तरनाक दौर है

मज़दूर वर्ग पर हमले का यह खतरनाक दौर है। एक तरफ सीमित कानूनी अधिकारों को खत्म किया जा रहा है, वेतन घट रहे हैं, महँगाई बढ़ रही है। कोरोना महामारी और लॉकडाउन से यह संकट और गहरा गया। दूसरी ओर बड़े ही सुनियोजित तरीके से जाति-मजहब, गाय, लवज़ेहाद, दंगे-फसाद, कश्मीर, 370, पाकिस्तान, सीएए, एनआरसी, एनपीआर आदि के बहाने साम्प्रदायिक बंटवारे को तीखा बनाया जाता रहा।

मोदी सरकार का एजेंडा इससे भी साफ़ जाहिर होता है- जनता भ्रमित और बंटी रहे और देशी-विदेशी मुनाफाखोरों का हित सधता रहे!