एक खाना डिलिवरी मजदूर का जीवन

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दक्षिण दिल्ली का निवासी अहमद सुबह 8 बजे घर से निकलता है। रास्ते में वो अपना ज़ोमाटो ऐप ऑन कर देता है, और 9 बजते बजते, दक्षिण दिल्ली के इसडीए मार्केट पहुंच चुका होता है। सुबह के नाश्ते का समय है। उसका फोन बजता है। बगल के शानदार रेसटोरेंट से खाना उठा कर डिलिवरी के लिए भागने के पहले उसके हांथ में कुछ चंद मिनट हैं। वह आज के दिन का पूरा फ़ायदा उठाने का मन बना कर आया है…आज ऐप से लॉग आउट करने, या थोड़ी देर फोन ऑफ कर देना का कोई मौका नहीं है। औसतन वो दिन में 15 घंटे काम करता है। लेकिन पूरा इंसेंटिव पाने की फ़िराक में लगा, आज वो नहीं जानता की रात कहां जा कर खत्म होगी।
आज देश, व दुनिया, के किसी भी बड़े शहर की सड़कों पर कई नौजवान और कुछ नवयुवतियां जाम पड़ी सड़कों और पतली गली-गलियारों से अपनी मोटरसाइकिलें दौड़ाती नज़र आती हैं। अकसर उनके – हेलमेट, झोला, बैग, या कंपनी के टी शर्ट से हम अंदेशा पा सकते हैं कि वे किसी सामान की डिलिवरी के लिए जा रहे हैं। इस यूनिफार्म का खर्चा बैंक में जमा की जाने वाली उनकी पहली तनख्वाह से काटा जाता है। किन्तु कुछ महीनों बाद इनमें से कई अपने यूनिफॉर्म छोड़ देते हैं। आज के बड़े बाज़ारों में, ख़ाली बैठे घड़ी घड़ी अपना फोन देखते युवकों की बढ़ती तादाद का यह नज़ारा आम हो गया है।
ज़ोमैटो से जुड़ने के लिए हर मजदूर को शुरुआत में ही 1,500 रुपए कंपनी में जमा कराने पड़ते हैं। कंपनी के साथ पार्ट टाइम काम के लिए दिन में कम से कम 5 घंटे और फुल टाइम काम के लिए कम से कम 12 घंटे ड्यूटी करनी पड़ती है। इंसेंटिव का दर सोमवार से गुरुवार और शुक्रवार से रविवार में बटा हुआ है। यह दर 22 ऑर्डर के लिए रु 800 से 27 ऑर्डर के लिए रु 1500 तक जाता है। जब ज़ोमैटो 10 साल पहले दिल्ली में शुरू हुआ था तब हर डिलीवरी के लिए मजदूरों को रु 70 से अधिक मिलता था। पिछले 10 सालों में यह रेट प्रति डिलीवरी रु 30 तक घटाया जा चुका है (आज स्विग्गी में रु 25 और जोमैटो में रु 20 के रेट से इन मजदूरों की तनख्वाह निर्धारित होती है)। चेन्नई में जब मजदूरों ने हड़ताल की तो स्विग्गी को ऐसे कुछ नीतिगत बदलावों को वापस लेना पड़ा था। लेकिन अब तक दिल्ली में ऐसा नहीं हुआ है। बोनस में किए जा रहे बदलाव के खिलाफ चेन्नई के मज़दूरों ने स्वतःस्फूर्त तरीके से एप को जाम कर दिया था और अपनी अपने दफ्तरों के सामने जमा होकर इसका विरोध किया था। किन्तु ज्यादातर प्रबंधन इस बात से आश्वस्त रहता है कि इनकी नौकरियां भरने के लिए सैकड़ों अन्य बेरोजगार युवा इंतजार कर रहे हैं। प्रतिरोध कर रहे कुछ मजदूरों को धमकियां दी गई हैं कि उनकी आईडी डीएक्टिवेट कर दी जाएगी। यह डीएक्टिवेशन एक सामान्य बात है। मज़दूरों का कहना है कि अगर आप लगातार कुछ डिलीवरी रिजेक्ट कर दें तो आपकी रेटिंग नीचे चली जाती है। रेटिंग इस बात पर निर्धारित होती है कि आपके कस्टमर का मूड उस दिन अच्छा है या खराब। किन्तु ख़राब रेटिंग आपको हफ्ते भर से चार दिन तक बेरोजगार छोड़ दे सकती है। इससे हम समझ सकते हैं कि इस तरीके का रोजगार हर वक्त किस अनिश्चितता के कगार पर टिका है।
सफदर, विवेक, राजवीर और संतोष खड़े आपस में चर्चा कर रहे थे कि लंबे समय इंतजार करने के बावजूद अब तक उन्हें कोई भी आर्डर नहीं मिला है। वह दक्षिण दिल्ली के एक बड़े बाजार में बने ‘सबवे’ की दुकान के बाहर इंतजार कर रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि नए मजदूर रु 20 के लिए भी डिलीवरी करने को तैयार हैं और उनका अनुमान है कि तनख्वाह का दर अब गिरकर रु 20 प्रति डिलीवरी तक भी जा सकता है। वह अपने बीच में बात कर रहे थे कि शायद उन्हें एक और हड़ताल करने की जरूरत है। वे कैसे संगठित होते हैं? हम अपने बीच हर एक ज़ोन में काम कर रहे मज़दूरों के बीच एक व्हाट्सएप ग्रुप चलाते हैं। यह कंपनी द्वारा नहीं चलाया जाता है। व्हाट्सएप ग्रुप कंपनी द्वारा भी चलाए जाते हैं, जिनमें टीम लीडर होते हैं। यह ग्रुप ज्यादातर विवाद का समाधान करने का काम करते हैं, जैसे अगर कोई आर्डर किसी मेडिकल इमरजेंसी या रोड पर जाम लगने के कारण कैंसिल हो जाए या समय पर नहीं पहुंचे।
पिछले साल चीन की बड़ी कंपनी आलीबाबा ने 150 मिलियन डॉलर जोमाटो में निवेश किये। इसके एलावा भी अलग अलग वैश्विक निवेशकारियों का पैसा इसमें लगा है। जोमाटो अपना बाजार दुनिया के अलग अलग देशों में विस्तृत कर रहा है, और इसने अब अमरीका में भी नेक्सटेबल नामक एक कम्पनी को खरीद लिया है। आज इनका काम अमरीका, तुर्की, श्रीलंका, दक्षिण अफ्रीका, निउ जीलैंड और यूरोप के देशों में है। ज़ोमाटो अपने सॉफ्टवेयर, ऑपरेशन और मैनेजमेंट के काम के लिए मात्र 4000 लोगों की प्रत्यक्ष भर्ती लेता है। लेकिन इनके साथ लाखों डेलिवरी देने वाले लड़के-लड़कियां इस कंपनी का आधारभूत काम कर रहे हैं; इसके आसमान छूते मुनाफ़े के पीछे इनकी ही अदृश्य मेहनत है।
सफ़दर ने IGNOU से कालेज पास किया था। वो ज़ोमाटो में फुल टाइम काम कर रहा है। उसका कहना है कि – “मै साल भर से काम ढूंढ रहा था, लेकिन कुछ मिला नहीं। इसलिए मै ज़ोमाटो में आया रु 800 प्रतिदिन कमाने के लिए। दिन में 200 रुपए तेल में खर्च होते हैं और महीने में दो बार बाइक ठीक कराना पड़ता है। उसके बाद किराये, खाने-पीने और मेडिकल के खर्च के बाद बहत कुछ नहीं बचता है। पीठ दर्द रोज़ का मामला हो गया है, दिल्ली की गर्मी में तबियत खराब होना एक अलग कहानी है। बारिश में भी काफी मुश्किल होती है। ये लोग अपने घर में बैठके अच्छा खाना चाहते हैं इसलिए हमें गर्मी, बारिश झेल कर, पांच मंजिल चढ़ कर इनको चाय या जूस या पिज्जा देने जाना पड़ता हैं।” पिक-उप आ जाने के कारण इतनी बात कर के सफ़दर को अचानक ही निकल जाना पड़ा।
पिछले 45 सालो में से आज बेरोज़गारी का दर सबसे ज्यादा है। लाखों बेरोज़गार लोगों के लिए जिंदगी गुज़ारना नामुमकिन हो रहा है। निराशा से लोग बेहद कम वेतन और बुरी परिस्थितियों वाले भवन निर्माण के काम में जा रहे हैं, क्योंकि यहां पर कम से कम 8 घंटे बाद हाथ धो कर 500 रूपया घर ले जा सकते हो। चाय की दुकान में इंतजार करने वाले एक ग्रुप के डिलीवरी मज़दूर ‘काले ज़ोन’ के बारे में बोल रहे थे। कुछ कुछ इलाकों में असुविधाजनक समय में जाना असुरक्षित होता है। आपसे खाना, मोबाईल, पैसे छीने जा सकते हैं। कंपनी भी कभी कभी ऐसे इलाकों में खाना डेलिवरी करने से मना कर देती है।
ज़ोमाटो इस अर्थनीति का एक बड़ा खिलाड़ी है। उबर अपने उबर-इटस के जरिए हर डेलिवरी में 80 रुपए देकर स्विग्गी और ज़ोमाटो को खूब कॉम्पिटिशन दे रहा है। दूंजो नामक एक बेंगलोर का एप दिल्ली के मार्किट में आया है। यह वास्तविक रूप में सारे काम करता है – भूले हुए बटुए को उठाने से लेकर, डॉक्यूमेंट दे कर आने और किराने का ऑर्डर लेकर सामान डेलिवरी करने तक, सबकुछ। गूगल ने इस नए स्टार्ट-उप में 12.3 मिलियन डालर लगाया है और इसके बाज़ार को बढ़ाने में मददगार रहा है।
एप-इकॉनमी अभी रहेगी। समाज के संयोजन के ढांचे में यह बदलाव ला रहा है, और समाज में श्रम का तरीका भी बड़े तौर पर बदल रहा है। मोटरबाइक पर डिलीवरी को भाग रहा, कम उम्र का ऐसा कोई लड़का, आज हम सब के खाली भबिष्य की तरफ देख रहा है। नौकरियां नहीं हैं। सिस्टम खुद को ऐसे ढाल रहा है ताकि आप 12-14 घंटे काम करो ‘पार्टनर’ के हिसाब से, जिसमे आपको कोई अनुबंध या सुविधा नहीं मिलेगी, बस एक आईडी नंबर है, अगर आप काम करने से माना करो, तो वो भी बंद हो जाएगा।
नए रोज़गार बनाने के विषय में नव उदारवाद के ढकोसलों का कोई अंत नहीं है। ‘ख़ुद करो’ का नारा नव उदारवाद द्वारा रोज़गार की लचीली शर्तों के दिए गए वादे को सीधे सीधे झुठलाता है। यह ढकोसला तब सामने आता है जब जो मज़दूर एक और कहता है कि ‘यह काम अच्छा है, इसमें अपनी मर्ज़ी से काम कर सकते हैं,’ वही दूसरी सांस में कहता है ‘इस काम में मजबूरी है, इससे अच्छा तो दिहाड़ी का काम है।
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