शताब्दी वर्ष में काकोरी की याद क्यों जरूरी है -सुधीर विद्यार्थी

आज काकोरी के घटनाक्रम और उसके क्रांतिकारी नायकों को उनके विचार और लक्ष्य के साथ स्मरण किए जाने की बड़ी जरूरत है। यह कार्यभार देश के सभी प्रगतिशील सांस्कृतिक-राजनीतिक संगठनों का है।
बिस्मिल आर्यसमाजी होते हुए स्वयं आर्य समाज के कन्सेप्ट को ध्वस्त करते हैं। क्रांतिकारी वही है जो चीजों और दायरों को तोड़ता है। अशफ़ाक़ भी इस्लाम की कट्टरता पर प्रहार करते हैं और रोशनसिंह क्रांतिकारी बनने से पहले अपने भीतर के सामंती संस्कारों से किस तरह संघर्ष करते हैं यह अपने भीतर की आंखें खोलकर देखना होगा, तभी इन काकोरी शहीदों को समझा जा सकता है। बिस्मिल को समझने के लिए थोड़ा आर्य समाज विरोधी और कम्युनिज्म का पक्षधर होना पड़ेगा, उसी तरह अशफ़ाक़उल्ला को समझने के लिए कट्टर इस्लाम का पक्षधर होना छोड़ना तथा थोड़ा इश्तिराकी होना होगा और रोशनसिंह को समझने के लिए सामन्तवाद विरोधी होना होगा तथा इन तीनों को समझने के लिए अपने दिमाग से जातिवाद के जाले हटाने पड़ेंगे। -सुधीर विद्यार्थी
[भारत की आज़ादी के संग्राम में तमाम अविस्मरणीय घटनाओं में काकोरी एक्शन बेहद अहम घटना है। साल 1925 में 9 अगस्त की इस घटना का यह सौवां साल है। जब इतिहास की स्वर्णिम विरासत को छुपाया जा रहा हो, या गलत ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा हो, तब इसके विविध पहलुओं को जानना-समझना बेहद जरूरी है। ऐसे में देश के क्रांतिकारियों के प्रमुख अध्येता श्री सुधीर विदयार्थ जी का एक प्रमुख लेख हम काकोरी शहादत दिवस (राजेन्द्र लाहिड़ी 17 दिसंबर तथा राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्ला खां, रोशन सिंह 19 दिसंबर) पर यहाँ मेहनतकश साथियों के लिए प्रकाशित कर रहे हैं। -संपादक]
शताब्दी वर्ष में काकोरी की याद क्यों जरूरी है
- सुधीर विद्यार्थी
9 अगस्त, 1925 की उस घटना का यह सौवां साल है जब असहयोग आन्दोलन की असफलता के बाद उत्तर भारत के दस क्रांतिकारियों ने रामप्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में लखनऊ के निकट काकोरी और आलमनगर के बीच रेलगाड़ी रोक कर सरकारी खजाना लूट लिया था। 1921 में असहयोग के तीव्र वेग को गांधी ने चौरी-चौरा की हिंसा के बहाने एकाएक रोक कर अपने निकटतम सहयोगियों को भी नाराज और निराश कर दिया था।
क्रांतिकारी इससे बहुत क्षुब्ध हुए क्योंकि उन्होंने कलकत्ता में एक गुप्त मीटिंग करके भारतीय राजनीति में गांधी के इस सर्वथा नये प्रयोग को धैर्य के साथ देखना तय किया था। चौरी-चौरा अब उनके लिए प्रस्थान बिंदु बन गया जिसके बाद वे नए सिरे से अपने रखे हुए हथियार पुनः उठा सकते थे। ऐसे में उन्होंने पहली बार अखिल भारतीय स्तर पर ‘हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ’ का गठन करके बाकायदा उसका संविधान रचा जिसे तब बोल-चाल की भाषा में ‘पीला पर्चा’ (एलो लीफलेट) कहा गया।
शचीन्द्रनाथ सान्याल ने इसमें दर्ज कर दिया था कि क्रांतिकारी एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहां एक मनुष्य के द्वारा दूसरे मनुष्य का तथा एक राष्ट्र के द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण सम्भव नहीं होगा। उन्होंने स्वतंत्रता से प्रजातंत्र के अपने लक्ष्य को स्पष्ट घोषित कर दिया था जबकि कांग्रेस बहुत आगे चलकर 1929 तक ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ के अपने प्रस्ताव-मात्र तक पहुंच पाई थी।
देखने की बात यह है कि काकोरी के इस अभियान में हिस्सेदारी करने वाले चन्द्रशेखर आज़ाद, मन्मथनाथ गुप्त और रोशन सिंह सरीखे नौजवान कांग्रेस के असहयोग के रास्ते ही विप्लव मार्ग पर आए थे जब उन्हें महसूस हुआ कि गांधी के तरीके से आज़ादी को प्राप्त करना सम्भव नहीं है। जानने योग्य है कि इन तीनों नौजवानों को असहयोग आन्दोलन में सजा मिली थी। इसके बाद वे क्रांतिकारी संग्राम से ऐसे जुड़े कि फिर एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा।

योजनाबद्ध ढंग से संचालित हुआ काकोरी एक्शन
काकोरी के इस एक्शन के जरिए काकोरी में रेल रोककर सरकारी सम्पत्ति को हथियाने से अधिक क्रांतिकारियों का लक्ष्य ब्रिटिश सरकार को सीधी चुनौती देना था जिसे इतने योजनाबद्ध ढंग से संचालित किया गया कि कुछ ही क्षणों में विद्युत गति से गार्ड के डिब्बे में रखे खजाने के संदूक को गिरा कर उसे हथोड़ों से ध्वस्त करने के बाद धन को एक चादर में बांधकर वे जांबाज युवक वहीं कहीं सघन अंधेरे में गायब हो गए। लेकिन थोड़े ही दिनों में सुराग मिलने पर 40 से अधिक क्रांतिकारियों को सरकार ने गिरफ्तार कर लिया।
इसके बाद लखनऊ की अदालत में 18 महीने तक मुकदमा चलने के बाद रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्ला खां, रोशन सिंह और राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी को मृत्युदंड की सजा तजवीज की गई, जिन्हें 19 दिसम्बर, 1927 को क्रमशः गोरखपुर, फै़ज़ाबाद और इलाहाबाद जेलों में फांसी पर झुला दिया गया जबकि राजेन्द्र लाहिड़ी को अज्ञात कारणों से दो दिन पूर्व यानी 17 दिसम्बर को गोंडा जेल में फांसी दे दी गई।
कुछ अन्य क्रांतिकारियों को लंबी कैद की सजा मिली जिनमें मन्मथनाथ गुप्त प्रमुख थे। उनकी सजा 14 वर्ष की थी। सरकार ने उनकी भूमिका को देखते हुए उन्हें फांसी देने की अपील की जिसे जज ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उनकी उम्र कम (19 वर्ष) है। चन्द्रशेखर आज़ाद ने इस घटना के बाद ऐसी डुबकी लगाई कि उन्हें पकड़ा नहीं जा सका जबकि वे फरार रह कर भी दल को संगठित करने का काम करते रहे।
साम्प्रदायिकता से संग्राम की ओर…
काकोरी के इस मुकदमे को उस समय देश भर में बहुत ख्याति मिली। इस घटना ने असहयोग की निराशजनक असफलता के बाद व्याप्त राजनीतिक शून्य को भरने तथा देश का ध्यान साम्प्रदायिकता से संग्राम की ओर मोड़ने में बड़ी भूमिका अदा की। इस मामले में रामप्रसाद बिस्मिल और उनके अनन्य मित्र अशफ़ाक़उल्ला का देश की आज़ादी के लिए एक साथ फांसी पर चढ़ना सामाजिक सद्भाव की बड़ी और प्रेरक मिसाल बनी।
अशफ़ाक़उल्ला और शचीन्द्रनाथ बख्शी की गिरफ्तारी इस मुकदमे में देर से हो सकी जबकि उस समय तक अदालत की कार्यवाही काफी आगे बढ़ चुकी थी। ऐसे में उन दोनों पर पूरक केस चलाया गया जिसमें वे सजावार हुए। फरारी के दिनों में एक बार क्रांतिकारी केदारनाथ सहगल ने अशफ़ाक़उल्ला से कहा था कि यदि वे चाहें तो उनके विदेश जाने का इंतजाम कर सकते हैं। अशफ़ाक़उल्ला इस प्रस्ताव पर फौरन कहा, ‘भई, किसी मुसलमान को भी फांसी चढ़ने दो।’
निरन्तर अपने विचारों में दृढ़ रहे अशफ़ाक़उल्ला
मुकदमे में पकड़े जाने के बाद अशफ़ाक़उल्ला निरन्तर अपने विचारों में दृढ़ रहे। उन्हें अनेक प्रलोभन दिए गए, विदेश जाने और अच्छी नौकरी देने की पेशकश की गई लेकिन वे इस झांसे में नहीं आए। मुकदमे के दौरान मजिस्ट्रेट ऐनुद्दीन ने उनसे मिलकर यह भी झूठ समझाना चाहा कि रामप्रसाद बिस्मिल हिन्दू राज्य के लिए लड़ रहे हैं लेकिन उन्होंने इस पर भरोसा नहीं किया।
अशफ़ाक़उल्ला शायर भी थे। जेल में उन्होंने अनेक ग़ज़लें, डायरी और वालिदा तथा देशवासियों के नाम कई ख़त लिखे जो बहुत विचारपूर्ण हैं। उनका एक शेर है, ‘न कोई हिन्दू, न कोई मुस्लिम, न कोई रशियन, न कोई तुर्की/मिटाने वाले हैं अपने हिन्दी जो आज हमको मिटा रहे हैं।’
बिस्मिल की क्रांतिकारी चेतना के विस्तार
दल के नेता बिस्मिल भी लेखक थे। वे ‘राम’ और ‘अज्ञात’ नाम से भी लिखते थे। क्रांतिकारी जीवन में उन्होंने अनेक पुस्तकों के साथ फांसी से दो दिन पहले तक अपनी आत्मकथा को कालकोठरी में बैठकर पूरा किया, जिसकी तुलना चेकोस्लोवाकिया के क्रांतिकारी शहीद फूचिक की आत्मरचना से की जा सकती है। इस पुस्तक में उन्होंने तुर्की में खलीफा की कठमुल्ला सत्ता को अपदस्थ कर वहां की शासन व्यवस्था संभालने वाले क्रांतिकारी अता तुर्क कमाल पाशा की बहुत प्रशंसा की है।
यहां बिस्मिल की क्रांतिकारी चेतना के विस्तार के रूप में यह भी देखा जा सकता है कि कमाल पाशा ने अपने देश के दियारबाकिर राज्य में इस भारतीय शहीद के नाम पर ‘बिस्मिल ज़िला’ और ‘बिस्मिल शहर’ ही बसा दिया।
अशफ़ाक़उल्ला का ह्रदय बड़ा विशाल था -बिस्मिल
बिस्मिल की आत्मकथा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा अशफ़ाक़उल्ला पर है जिसमें उन्हें सम्बोधित करते हुए वे लिखते हैं, ‘अशफ़ाक़, मुझे भली-भांति याद है, जबकि मैं बादशाही एलान के बाद शाहजहांपुर आया था, तो तुमसे स्कूल में भेंट हुई थी। तुम्हारी मुझसे मिलने की बड़ी हार्दिक इच्छा थी। तुमने मुझसे मैनपुरी शड्यंत्र के सम्बन्ध में कुछ बातचीत करनी चाही थी। मैंने यह समझकर कि एक स्कूल का मुसलमान न विद्यार्थी मुझसे इस प्रकार की बातचीत क्यों करता है, तुम्हारी बातों का उत्तर उपेक्षा की दृश्टि से दे दिया था। तुम्हें उस समय बड़ा खेद हुआ था। तुम्हारे मुख से हार्दिक भावों का प्रकाश हो रहा था। तुमने अपने इरादे को यों ही नहीं छोड़ दिया, अपने निश्चय पर डटे रहे। जिस प्रकार हो सका कांग्रेस में बातचीत की। अपने इष्ट-मित्रों द्वारा इस बात का विश्वास दिलाने की कोशिश की कि तुम बनावटी आदमी नहीं, तुम्हारे दिल में मुल्क की खिदमत करने की ख्वाहिश थी। अन्त में विजय तुम्हारी हुई। तुम्हारी कोशिशों ने मेरे दिल में जगह पैदा कर ली। तुम्हारे बड़े भाई मेरे मिडिल स्कूल के सहपाठी तथा मित्र थे, यह जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। थोड़े ही दिनों में तुम मेरे छोटे भाई के समान हो गए थे, किन्तु छोटे भाई बनकर तुम्हें संतोष न हुआ। तुम समानता का अधिकार चाहते थे, तुम मित्र की श्रेणी में अपनी गणना चाहते थे। वही हुआ। तुम सच्चे मित्र बन गए। सबको आश्चर्य था कि एक कट्टर आर्य-समाजी और मुसलमान का मेल कैसा? मैं मुसलमानों की शुद्धि करता था। आर्य-समाज मन्दिर में मेरा निवास था, किन्तु तुम इन बातों की किंचितमात्र चिन्ता न करते थे। मेरे कुछ साथी तुम्हें मुसलमान होने के कारण घृणा की दृश्टि से देखते थे, किन्तु तुम अपने निश्चय में दृढ़ थे। मेरे पास आर्य-समाज मन्दिर में आते-जाते थे। हिन्दू-मुस्लिम झगड़ा होने पर, तुम्हारे मुहल्ले के सब कोई तुम्हें खुल्लमखुल्ला गालियां देते थे, काफ़िर के नाम से पुकारते थे, पर तुम कभी भी उनके विचारों से सहमत न हुए। सदैव हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य के पक्षपाती रहे। तुम एक सच्चे मुसलमान तथा सच्चे स्वदेश-भक्त थे। तुम्हें यदि जीवन में कोई विचार था, तो यही कि मुसलमानों को खुदा अक्ल देता, कि वे हिन्दुओं के साथ मिलकर हिन्दुस्तान की भलाई करते। जब मैं हिन्दी में कोई लेख या पुस्तक लिखता तो तुम सदैव यही अनुरोध करते कि उर्दू में क्यों नहीं लिखते, जो मुसलमान भी पढ़ सकें? तुमने स्वदेशभक्ति के भावों को भली भांति समझने के लिए ही हिन्दी का अच्छा अध्ययन किया। अपने घर पर जब माता जी तथा अन्य भ्राता जी से बातचीत करते थे, तो तुम्हारे मुंह से हिन्दी शब्द निकल जाते थे, जिससे सबको बड़ा आश्चर्य होता था। तुम्हारी इस प्रकार की प्रवृत्ति को देखकर बहुतों को सन्देह होता था कि कहीं इस्लाम-धर्म त्याग कर शुद्धि न करा लो। पर तुम्हारा हृदय तो किसी प्रकार अशुद्ध न था, फिर तुम शुद्धि किस वस्तु की कराते? तुम्हारी इस प्रकार की प्रगति ने मेरे हृदय पर पूर्ण विजय पा ली। बहुधा मित्र मण्डली में बात छिड़ती कि कहीं मुसलमान पर विश्वास करके धोखा न खाना। तुम्हारी जीत हुई, मुझमें तुममें कोई भेद न था। बहुधा मैंने तुमने एक थाली में भोजन किए। मेरे हृदय से यह विचार ही जाता रहा कि हिन्दू-मुसलमान में कोई भेद है। तुम मुझ पर अटल विश्वास तथा अगाध प्रीति रखते थे। हां! तुम मेरा नाम लेकर पुकार नहीं सकते थे। तुम तो सदैव ‘राम’ कहा करते थे। एक समय जब तुम्हारे हृदय-कम्प का दौरा हुआ, तुम अचेत थे, तुम्हारे मुंह से बारम्बार ‘राम’ ‘हाय राम’ शब्द निकल रहे थे। पास खड़े भाई-बांधवों को आश्चर्य था कि ‘राम’, ‘राम’ कहता है। कहते कि ‘अल्लाह’ ‘अल्लाह’ कहो, पर तुम्हारी ‘राम-राम’ की रट थी! उसी समय किसी मित्र का आगमन हुआ, तो ‘राम’ के भेद को जानते थे। तुरन्त मैं बुलाया गया। मुझसे मिलने पर तुम्हें शांति हुई, तब सब लोग ‘राम राम’ के भेद को समझे!
‘अन्त में इस प्रेम, प्रीति तथा मित्रता का परिणाम क्या हुआ? मेरे विचारों के रंग में तुम भी रंग गए। तुम भी कट्टर क्रांतिकारी बन गए। अब तो तुम्हारा दिन-रात प्रयत्न यही था कि किस प्रकार हो मुसलमान नवयुवकों में भी क्रांतिकारी भावों का प्रवेश हो। वे भी क्रांतिकारी आन्दोलन में योग दें। जितने तुम्हारे बन्धु तथा मित्र थे सब पर तुमने अपने विचारों का प्रभाव डालने का प्रयत्न किया। बहुधा क्रांतिकारी सदस्यों को भी बड़ा आश्यर्य होता कि मैंने कैसे एक मुसलमान को क्रांतिकारी दल का प्रतिश्ठित सदस्य बना लिया। मेरे साथ तुमने जो कार्य किये, वे सराहनीय हैं। तुमने कभी भी मेरी आज्ञा की अवहेलना न की। एक आज्ञाकारी भक्त के समान मेरी आज्ञा पालन में तत्पर रहते थे। तुम्हारा हृदय बड़ा विशाल था। तुम्हारे भाव बड़े उच्च थे।
‘मुझे यदि शांति है तो यही कि तुमने संसार में मेरा मुख उज्जवल कर दिया। भारत के इतिहास में यह घटना भी उल्लेखनीय हो गई कि अशफ़ाक़उल्ला ने क्रांतिकारी आन्दोलन में योग दिया। अपने भाई-बन्धु तथा सम्बन्धियों के समझाने पर भी कुछ ध्यान न दिया। गिरफ्तार हो जाने पर भी अपने विचारों में दृढ़ रहे! जैसे तुम शारीरिक बलशाली थे, वैसे ही मानसिक वीर तथा आत्मा से उच्च सिद्ध हुए। इन सबके परिणामस्वरूप् अदालत ने तुमको मेरा सहकारी (लेफ्टीनेण्ट) ठहराया गया, और जज ने मुकदमे का फैसला लिखते समय तुम्हारे गले में जयमाला (फांसी की रस्सी) पहना दी।
‘प्यारे भाई, तुम्हें यह समझकर संतोष होगा कि जिसने अपने माता-पिता की धन-सम्पत्ति को देश-सेवा में अर्पण करके उन्हें भिखारी बना दिया, जिसने अपना तन-मन-धन सर्वस्व मातृ-सेवा में अर्पण करके अपना अन्तिम बलिदान भी दे दिया, उसने अपने प्रिय सखा अशफ़ाक़ को भी उसी मातृ-भूमि की भेंट चढ़ा दिया। असगर हरीम-ए-इश्क़ में हस्ती ही जुर्म है, रखना कभी न पांव यहां सर लिये हुए।’
कैसा समाज चाहते थे बिस्मिल और अशफ़ाक़उल्ला?
बिस्मिल काकोरी एक्शन के नायक थे और ‘सम्राट बनाम रामप्रसाद आदि’ के नाम से चले मुकदमे में उन्हें फांसी की सजा मिली, पर वे अपने चिंतन के अनुसार कलम से क्रांति की परिस्थितियों के निर्माण के इच्छुक थे। अंतिम दिनों में उन्होंने कहा कि नवयुवकों को मेरा अंतिम संदेश यही है कि वे रिवाल्वर या पिस्तौल को अपने पास रखने की इच्छा को त्याग कर सच्चे देश सेवक बनें। पूर्ण-स्वाधीनता उनका ध्येय हो और वे वास्तविक साम्यवादी बनने का प्रयत्न करते रहें।
अशफ़ाक़उल्ला ने भी किसानों और मज़दूरों की ताकत को पहचाना और कहा कि उनके इन विचारों के लिए अगर उन्हें इश्तिराकी (कम्युनिस्ट) कहा जाये तो कोई एतराज नहीं है। देश में गैरबराबरी को लेकर एक बार उन्होंने कहा था कि खुदा मेरे बाद वह दिन जल्द आये जब मिस्टर खलीकुज़्ज़मा, नवाब छतारी, राजा साहब महमूदाबाद और धनिया चमार एक कुर्सी पर बैठे नज़र आयें।
अपने अंतिम संदेश में अशफ़ाक़उल्ला ने देशवासियों से कहा था, ‘भारतीय भाइयो, आप कोई हों, चाहे जिस धर्म या सम्प्रदाय के अनुयायी हों, परन्तु आप देशहित में एक होकर योग दीजिए। आप लोग व्यर्थ में लड़-झगड़ रहे हैं। सब धर्म एक हैं, रास्ते चाहे भिन्न-भिन्न हों, परन्तु लक्ष्य सबका एक ही है। फिर यह झगड़ा-बखेड़ा क्यों? हम मरने वाले काकोरी के अभियुक्तों के लिए आप लोग एक हो, जाइए और सब मिलकर नौकरशाही का मुकाबला कीजिए। यह सोचकर कि सात करोड़ मुसलमान भारतवासियों में मैं सबसे पहला मुसलमान हूं जो भारत माता की स्वतंत्रता के लिए फांसी पर चढ़ रहा हूं, मैं मन-ही-मन अभिमान का अनुभव कर रहा हूं।’
साझा संघर्ष और साझी शहादत
काकोरी के मामले में बिस्मिल और अशफ़ाक़उल्ला का बलिदान देश की सर्वाधिक रोमांचकारी घटना बनी। इस संघर्ष में अशफ़ाक़उल्ला की उपस्थिति और उनकी सक्रियता ने उसे ऐसे साझे संघर्ष और साझी शहादत का दर्जा दे दिया जो पूर्व में दुर्लभ था। ये दोनों क्रांतिकारी भिन्न धार्मिक आस्थाओं के होते हुए देश की आजादी के लिए साझे मार्ग के राही बने। उनके मजहबी आचार-विचार इस विप्लवी अभियान में कहीं बाधक नहीं बने बल्कि यह सवाल ही दूर बना रहा कि कौन किस सम्प्रदाय का है। उन्होंने स्वतंत्रता-प्राप्ति के रास्ते में धर्म को किसी तरह बाधक नहीं बनने दिया। भारतीय क्रांतिकारी संग्राम में अशफ़ाक़ का जुड़ना और शहादत की मंजिल तक पहुंचना भविष्य के क्रांतिकारी संग्राम का सर्वाधिक प्रेरक प्रसंग बना।
शताब्दी वर्ष में चौरी-चौरा की याद, असहयोग आंदोलन पर चुप्पी क्यों?
यह देखना जरूरी है कि तीन वर्ष पहले उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने चौरी-चौरा की शताब्दी आखिर क्यों मनाई जबकि गोरखपुर में चौरी-चौरा की कथित हिंसा असहयोग आन्दोलन के मध्य एक आकस्मिक घटना मात्र थी जब ब्रिटिश हुकूमत का दमन झेल रही जनता ने उत्तेजित होकर पुलिस थाने को आग के हवाले कर दिया था, जिसमें कई सिपाही जल कर मर गए।
उत्तर प्रदेश सरकार ने बहुत योजनाबद्ध ढंग से चौरी-चौरा के घटनाक्रम को याद किया था जबकि उसने शताब्दी वर्ष पर असहयोग आन्दोलन का नाम लेना भी उचित नहीं समझा। यदि वह असहयोग के शताब्दी वर्ष के आयोजन को करना सुनिश्चित करती तो आज़ादी के उस संग्राम का श्रेय उसे कांग्रेस को देना पड़ता। हमारे अनेक इतिहासकार और लेखकों ने भी सरकार के इसी एजेण्डे के तहत चौरी-चौरा पर पुस्तकें और आलेख लिखे जबकि असहयोग आंदोलन का मूल्यांकन करने में उनसे चूक हो जाती रही।
इसी तरह भाजपा सरकार ने 9 अगस्त, 1942 के कांग्रेस की ओर से शुरू किए गए ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का स्मरण न कर काकोरी की क्रांतिकारी घटना को विद्यालयों, महाविद्यालयों और सरकारी कार्यालयों में मनाने का परिपत्र जारी किया है। ऐसा करना इस सरकार और भाजपा की ओर से देश के क्रांतिकारी नायकों का अपहरण है।
विरासत को नष्ट करने वालों को शहीदों को याद करने का हक़ नहीं
किसी भी साम्प्रदायिक संगठन को इन शहीदों को याद करने का हक नहीं है जो उनकी क्रांतिकारी और सद्भाव की विरासत को नष्ट करने की हर रोज कुचेष्टा कर रहे हों। यह शहीदों को याद करने का उसका निरा ढोंग है और ऐसा करके वह क्रांतिकारी संग्राम की वैचारिक चेतना को पीछे ले जाने और उसे समाप्त करने की षड्यन्त्र में लिप्त दिखाई देती है।
यह किसी से छिपा नहीं है कि आर.एस.एस. और उनसे जुड़े संगठन पहले भी अपने पोस्टरों और पर्चों में हेडगेवार और गोलवरकर के साथ बिस्मिल, सुभाष, भगतसिंह के चित्र छापने का घिनौना खेल करते रहे हैं। अपने अक्रांतिकारी या क्रांतिविरोधी व्यक्तियों को क्रांतिकारियों के मध्य खड़ा करने की उनकी यह कोशिश बहुत ओछी और इतिहास विरोधी है।
ऐसे में काकोरी के घटनाक्रम और उसके क्रांतिकारी नायकों को उनके विचार और लक्ष्य के साथ स्मरण किए जाने की बड़ी जरूरत है। यह कार्यभार देश के सभी प्रगतिशील सांस्कृतिक-राजनीतिक संगठनों का है।
(सुधीर विदयार्थ ने भारत के क्रांतिकारियों के ऊपर बेहद उम्दा काम किया है, तमाम नामी और बेनाम इन्क़लाबियों की उनके पास धरोहर है, उनकी जीवनियां लिखी हैं और उनके विविध पहलुओं से आवाम को परिचित कराया है।)
सुधीर विद्यार्थी, 6, फेज-5 विस्तार, पवन विहार पो0 रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली-243006 मो-9760875491
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