इस सप्ताह : शाहीनबाग़ की कविताएं !

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हमार पास कागज नैना! / बोधिसत्व

(इलाहाबाद के रोशन बाग के नाम)

अब का करबो सरकार!
हमार पास कागज नैना
छान डारा घर औे दुआर
हमार पास कागज नैना!
अब का करबो सरकार!

अब्बा रह गए बिन कागज के
चच्चा चल गए बिन कागज के
बिन कागज दद्दा गए सिधार
हमार पास कागज नैना!
अब का करबो सरकार!

सत्तावन में गरदन कटाई
बिन कागज के गदर मचा दी
हिल गई बिलैती सरकार
हमार पास कागज नैना!
अब का करबो सरकार!

जेहल का डर काहे देखावत
केके तुम हो मुलुक छोड़ावट
हम ना छोड़ब ई गंगा कछार
हमार पास कागज नैना!
अब का करबो सरकार!

केतना राजा केतना नवाब
आए बहि गए नाहीं हिसाब
तोहरऊ उजाड़ होए दरबार
हमार पास कागज नैना!
अब का करबो सरकार!
हमार पास कागज नैना!


शाहीन बाग़ की औरतें / हूबनाथ

सीली लकड़ियों से उठे
कसैले धुएं-सी उठीं
ठंड में अकड़ती उंगलियों से
गोबर पोंछते
टपकती धुंध-सी उठीं
घर बुहारते उकड़ूं सरकती
घुटने मसलते उठीं
चूल्हे की आंच पर रखा
उल्टा तवा
और उचटती राख-सी उठीं
उठीं जैसे पढ़ाई हो गई हो पूरी
या छुड़ा दिया गया स्कूल
बीच पढ़ाई में
उठीं जैसे गिरीं हों
धुले बरतन सहेजते
उठीं फटी रज़ाई से उड़े
रूई के फाहे-सी
थमती हुई कराह-सी
दबी हुई आह-सी
उठीं जैसे उठते हैं हाथ
दुआ में
पूरी कायनात की सलामती के लिए
उठीं जैसे उठती है
बर्फीली भाप गंगा के सीने से
उठीं गरीब की झोंपड़ी की छत की तरह
बेरोजगार की उम्मीद की तरह
उठीं हर दिशा से
हर दशा में
और आकर बैठ गईं
शाहीन बाग़ की मुंडेर पर
चुपचाप
जैसे असमय काट दिए गए
दरख़्त पर बैठती हैं चिड़ियां
आख़िरी बार


मैंने लिखी कविता / हूबनाथ

मुझे भायीं
शाहीन बाग़ की औरतें
उनका साहस
उनकी हिम्मत
उनका जज़्बा
और किसी से भी टकराने की
उनकी असीम शक्ति
और मैंने लिखी कविता
क्योंकि
मैं नहीं पहुंच पाया
शाहीन बाग़
हममें से बहुत से लोग
नहीं पहुंच पाए
शाहीन बाग़
पहुंचना चाहते हुए भी
मैं भी था उनमें से एक
सो मैंने लिखी कविता
मेरे कई परिचित अपरिचित
मित्रों ने पसंद कीं
मेरी कविता
तो कइयों को नहीं भाया
मेरा लिखना शाहीन बाग़ पर
कुछ रहे चुप
तो कुछ ने कहा
क्यों नहीं लिखी कविता
कश्मीरी पंडितों पर
मैं समझा नहीं
कश्मीरी पंडित भी जुटे हैं
शाहीन बाग़ में
मुझे ख़बर नहीं
उन्होंने कहीं निकाले हों जुलूस
की हों हड़तालें
रोके हों रस्ते
कूच किया हो राष्ट्रपति भवन
या संसद की ओर
तो मुझे ख़बर नहीं
और मैं इसके लिए शर्मिंदा हूं
मैं लिखना चाहता हूं
कश्मीरी पंडितों के संघर्षों पर
उनके साहस पर
उनकी हिम्मत पर
उनकी ताक़त पर
मैं हर उस शख्स घटना
या मुद्दे पर लिखना चाहता हूं
जिसमें मुट्ठी भर लोग
देते हैं चुनौती
दुनिया के सबसे ताकतवर
ज़ालिम को
जैसे दिया
ग्रेता थनबर्ग ने
जैसे दे रही हैं
नितांत घरेलू किस्म की
निहायत पालतू औरतें
पहचानकर
अपनी रूहानी ताक़त
मैं कन्फ़ेस करता हूं
कि मैं खड़ा नहीं हो सकता
ज़ालिम हुक्काम के आगे
इसलिए लिखता हूं कविता
कि शर्मिंदा न होना पड़े
अपनी ही निगाहों में
मैं सच कहता हूं
मैं लिखना चाहता हूं
कश्मीरी पंडितों पर भी
जब वे भी होंगे
रूह कंपाती ठंड में
पिघलते आसमान के नीचे
खुरदरी कच्ची ज़मीन पर
बच्चियों,बूढ़ियों,
युवतियों के साथ
किसी शाहीन बाग़ में


हाँ ! / सरला माहेश्वरी

हाँ !
हमने शाहीन बाग पर
देवदूतों के साये को देखा है
परियों के पंखों से उड़ते
सुंदर भारत को देखा है
बच्चों के बेख़ौफ़ स्वप्न में
आगत समय को देखा है ।

हाँ हमने
उस पवित्र भूमि में
एक भ्रूण को देखा है ।
अपनी कोख में जैसे हमने
एक पुलक को देखा है ।
हाँ ! हमने शाहीन बाग में
नये भारत को देखा है ।


हम कागज़ नहीं दिखाएंगे / वरुण ग्रोवर

तानाशाह आके जाएंगे, हम कागज नहीं दिखाएंगे.
तुम आंसू गैस उछालोगे, तुम जहर की चाय उबालोगे
हम प्यार की शक्कर घोल के उसको, गट गट गट पी जाएंगे
हम कागज नहीं दिखाएंगे

ये देश ही अपना हासिल है, जहां राम प्रसाद भी बिस्मिल है
मिट्टी को कैसे बांटोगे, सबका ही खून तो शामिल है
तुम पुलिस से लठ्ठ पड़ा दोगे, तुम मेट्रो बंद करा दोगे
हम पैदल पैदल आएंगे, हम कागज नहीं दिखाएंगे

हम मंजी यहीं बिछाएंगे, हम कागज नहीं दिखाएंगे
हम संविधान को बचाएंगे, हम कागज नहीं दिखाएंगे
हम जन गण मन भी गाएंगे, हम कागज नहीं दिखाएंगे
तुम जात पात से बांटोगे, हम भात मांगते जाएंगे
हम कागज नहीं दिखाएंगे


लिखो मैं हिंदुस्तानी हूँ / अजमल खान

लिखो,
मैं हिंदुस्तानी हूँ.
आगे लिखो,
मेरा नाम अजमल है.
मैं मुसलमान हूँ,
और भारत का नागरिक भी.
घर पे हम सात जन हैं
सब जनम से हिंदुस्तानी,
काग़ज़-पत्तर दिखाएँ?

लिखो,
मैं हिंदुस्तानी हूँ.
मैं मप्पिला हूँ,
मेरे पूर्वज अछूत कहाए जाते थे
तुम्हारी भाषा में.
मनु के नाम का थप्पड़ खा कर
उन्होंने अपना नाम बदला
तब जाकर अज़मत पाई
सदियों बाद
लेकिन तुम्हारे विचारकों के
पूर्वजों के जनम से भी पहले.
आपको शक़ है क्या?

लिखो,
मैं हिंदुस्तानी हूँ.
मेरे बाप-दादाओं ने
यहाँ की ज़मीन सींची है
इसी में जिए
इसी में दफ़्न हैं वो.
उनकी जड़ें नारियल और पीपल से भी गहरी जाती हैं
इस ज़मीन में.
हाँ वो कभी ज़मींदार नहीं थे
बस मज़दूर थे
पर जड़ तो हर पौधे की होती है
छोटा हो या बड़ा
ये धरती ही उनकी जड़ है
ये धरती ही उनकी महक है
ये धरती ही उनकी चमड़ी है
काग़ज़-पत्तर दिखाएँ?

लिखो,
मैं हिंदुस्तानी हूँ.
आप काग़ज़-पत्तर देखेंगे ना?
तो मैं अभी क़ब्रें खोदता हूँ मालाबार की
और सिर्फ़ मालाबार की क्यों
मैं दिखाऊँगा आपको जूतों और गोलियों के निशान
उनकी छातियों पर, जिन्हें मारा ब्रिटिश सिपाहियों ने
आप काग़ज़-पत्तर तो देखेंगे ना?
जबकि मुझे पता है
आपके पास कौन-कौन से काग़ज़-पत्तर हैं.
सेल्युलर जेल का एक माफ़ीनामा
और गांधी के ख़ून से सने हाथ.
और याद दिलाऊँ
कौन-कौन से काग़ज़ हैं आपके पास?
इसलिए ऐसा करो
अपने मुँह में इस देश की पावन मिट्टी भरो
और चुप रहो.

लिखो,
मैं हिंदुस्तानी हूँ.
और जान लो
मैं भूला नहीं हूँ
कि तुमने भेजे थे ‘नागरिक’
ढहाने को वो मस्जिद
और अब मिलकर तुम
ढहा रहे हो हमारा संविधान
छैनी से तोड़ रहे हो
इस देश की आत्मा
और मैं ग़ुस्से में हूँ
हिम्मत कैसे हुयी तुम्हारी?
हिम्मत कैसे हुयी?

लिखो,
मैं हिंदुस्तानी हूँ.
ये मेरी धरती है
मैं यहीं पैदा हुआ
और यहीं मरूँगा
तो ऐसा करो
लिख दो साफ़
बड़े मोटे शब्दों में
अपने NRC के काग़ज़ पर
मैं हिंदुस्तानी हूँ.


तुम कौन हो बे / पुनीत शर्मा

हिंदुस्तान से मेरा सीधा रिश्ता है,
तुम कौन हो बे
क्यूँ बतलाऊँ तुमको कितना गहरा है, .
तुम कौन हो बे

तुम चीखो तुम ही चिल्लाओ
कागज़ ला लाकर बतलाओ
पर मेरे कान ना खाओ तुम
बेमतलब ना गुर्राओ तुम
ये मेरा देश है

इस से मैं चुपचाप मोहब्बत करता हूँ
अपनो की जहालत से इसकी
हर रोज़ हिफ़ाज़त करता हूँ
तुम पहले जाहिल नहीं हो
जो कहते हो चीख के प्यार करो
इतना गुस्सा है तो अपने
चाकू में जा कर धार करो
और लेकर आओ घोंप दो तुम
वो चाकू मेरी पसली में
ग़र ऐसे साबित होता है
तुम असली हो और नकली मैं

हिंदुस्तान से मेरा सीधा रिश्ता है,
तुम कौन हो बे

क्यूँ बतलाऊँ तुमको कितना गहरा है,
तुम कौन हो बे

जा नहीं मैं तुझ को बतलाता कि क्या है ये धरती मेरी,
किन शहरों से, किन लोगों से, मैंने पायी हस्ती मेरी,
किन फसलों में लहराता था, वो अन्न जो हर दिन खाया है,
क्या मैंने इस से पाया है और क्या मैंने लौटाया है,

जा नहीं मैं तुझ को बतलाता कि कैसे प्यार जताता हूँ,
वो कौनसा वादा है इस से, जो हर इक रोज़ निभाता हूँ,
वो कौनसा कस्बा था जिस से मेरी माँ ब्याह के आयी थी,
किस बेदिल एक मोहल्ले में मैंने चप्पल चटकाई थी,

किस रस्ते से हो कर के मेरी बहन लौटती थी घर को,
किन कवियों का नमक मिला है इस कविता के तेवर को,
क्या वो बोली थी जिस में मुझ को दादी ने गाली दी,
और इश्क़ लड़ाने को दिन में किन बागों ने हरियाली दी,

जिन से उधार था भइया का, वो कौनसी पान की गुमटी थी,
किस के मशहूर अखाड़े में पापा ने सीखी कुश्ती थी,
किस स्कूल में मेरे यार बने, किस गली में मैंने झक मारी
किस खोमचेवाले ने समझी थी मेरी जेब की लाचारी

अरे जाओ नहीं मैं बतलाता, और तुम भी मत बतलाओ ना
मैं अपने घर को जाता हूँ, तुम अपने घर को जाओ ना,
देखो! मैं तो बतला भी दूँ, पर वतन ही बेकल है थोड़ा
जो उस के मेरे बीच में है, वो इश्क़ पर्सनल है थोड़ा

तुम नारों से आकाश भरो
धरती भर दो पाताल भरो
पर मुझ को फ़रक नहीं पड़ता
ये सस्ता नशा नहीं चढ़ता
तुम जो हो भाई हट जाओ
अभी देश घूमना है मुझ को
“इस वतन के हर इक माथे का
हर दर्द चूमना है मुझ को”
तुम धरम जो मेरा पूछोगे
तो हँस दूँगा कि क्या पूछा
तुम ने ही मुझ से पूछा था
इस देश से मेरा रिश्ता क्या
जो अब भी नहीं समझ पाए
तो कुछ भी आगे मत पूछो
तुम कैसे समझोगे आख़िर
ये प्रेम की बातें हैं ऊधो

हिंदुस्तान से मेरा सीधा रिश्ता है,
तुम कौन हो बे
क्यूँ बतलाऊँ तुमको कितना गहरा है,
तुम कौन हो बे


धड़कती आज़ादी शाहीन बाग़ में / शोभा सिंह

लगता था अपने ख़्वाबों से
मुलाकात हो रही हो
स्पष्ट विचारों का सैलाब लिए
अपने नीम अंधरे से
उठ कर आईं औरतें
चेतना का दिलेर स्वर बन
उन दिनों जब
संकट गहरा था
ठहरे हुए समाज में भी
आग धधक रही थी
सामान्य मुस्लिम महिलाओं ने आगे बढ़कर
संभाल लिया था मोर्चा
आज़ादी मिलने के बाद
एक नया बेमिसाल
इतिहास
रचा जा रहा था

बेख़ौफ़ आज़ादी का नया स्क्वायर (घेरा)
दमन के ख़िलाफ़
फासीवाद के नंगेपन और
इंसान विरोधी काले कानूनों के ख़िलाफ़
पहली बार घरों से निकल
चौबीस घंटे चलने वाले धरने में आईं
ज़बरदस्त ढंग से व्यवस्थित किया
घर और बाहर का काम
सामने एक ऐसी दुनिया थी
जिसमें अपनी नई पहचान बनानी थी
तय करना था अपना मुकाम

नवजात शिशु के साथ मां ने कहा-
कहां हैं वे
जो कहते हैं
हमें गुमराह किया गया है
कौन है गुमराह?
जामिया में हिंदू मुस्लिम में बांट कर
आप छल कर रहे
वहां हमारे बच्चे
मिलकर पढ़ते हैं
आपके दंगाई हमला करते हैं
अब आपसे ही लोकतंत्र को बचाना है
यह तो आज़ादी की लड़ाई है
हमें अपना संविधान
अपना देश बचाना है

दिल्ली का तापमान
एकदम निचले पायदान पर
कड़ाके की ठंड में
अलाव की मीठी आंच सी
जगी आवाज़ें, तकरीरें
संघर्ष से तपे चेहरे
जोश भरते
इंक़लाबी तराने
फ़ैज़ के गीत
“ जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ
रुई की तरह उड़ जायेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे”

सीखचों के पीछे ज़बरन बंद
अपने मर्दों के लिए
ये तसल्ली और हौसलें की
बुलंद आवाजें थीं
अन्याय, ज़ुल्म से बगावत
जारी रहेगी
कामयाबी न मिलने तक
यूंही – अहद है
बिम्ब साकार हो रहे थे
नारे और जज़्बात
दो रंग की घुलावट में
ख़ुदमुख़्तारी का यह अनोखा रंग
जनतंत्र के पक्ष में
एनआरसी, सीएए के ख़िलाफ़
समूचे देश में
गहरा आक्रोश
दर्ज हो रहा था

सद्भाव और एकता की लहरें
ऊपर उठ फैलने लगीं
लोगों ने शुभ संदेश को पकड़ा
अमन सुकून की अहमियत समझते हुए
शांति पूर्ण तरीके से आगे बढ़े
नई मशालों से
रौशन हुए दूर तक
अंधरे कोने भी
अगुआई में
ज़िंदगी के आख़री मुकाम पर पहुंची
तीन दादियां
जांबाज़ निडर
शाइस्तगी से बोलीं
करोड़ों लोगों के निर्वासन का दुख
इस ठंडी रात से बड़ा है क्या?
अब तो ख़ामोशी को भी
आवाज़ दे रहीं हैं हम
यह आवाज़ की तरंगें
आने वाली खुशहाली की ख़बर सी
फैल जाएंगी
उनके सपने धुंधली आंखों में
झिलमिलाए
देश की मिट्टी में
कई रंग के फूलों में
हम यूं ही खिलेंगी

देखना
ज़माना हमें कैसे भूलेगा
यहां दादी नानी मां के साथ
बच्चे
सीख रहे
अपनी पहचान
हां अपनी राष्ट्रीयता का
वे पुनः दावा ठोंकते
अपने हिजाब के संग
हिंदू मुसलमान दोनों मिल
हुक्मरान को जवाब देती
ये देश हमारा है, साझी विरासत
हम उतने ही भारतीय हैं जितने तुम
छांटना बंद करो
इसी मिट्टी में दफ़न हैं हमारे पुरखे
यही मिट्टी
दस्तावेज़ है हमारा


सारी दुनिया अपना घर है / शहबाज़ रिज़वी

हम मिट्टी से बने हैं साथी
सारी दुनिया अपना घर है
पहाड़ हैं जितने
भाई हैं अपने
और नदियां सब बहने हैं
पर आपको कौन समझाए
कि आप
अंधे, गूंगे, बहरे हैं
सेहरा सेहरा प्यास है अपनी
जंगल जंगल अपना कुंआ है
बस्ती-बस्ती नाम है अपना
सरहद-सरहद अपना मकां है
गलियां गलियां आंख हैं अपनी
और धरती पर ठहरे हैं
पर आपको कौन समझाए
कि आप
अंधे, गूंगे, बहरे हैं
आंखों-आंखों ख़्वाब है अपना
सुब्ह-शाम चमकीली है
चेहरा-चेहरा दु:ख है अपना
होठों पर रंगोली है
दिन में सूरज रात में चंदा
अपने लिए ही चलते हैं
पर आपको कौन समझाए
कि आप
अंधे, गूंगे, बहरे हैं


हमारा रवीश कुमार / उसामा ज़ाकिर

जब ऊंचे पेड़ की गहराइयों में बने
घोंसले में घुस कर
सांप फ़ाख्ता के अंडे खाने लगे
तो उस वक़्त ज़रूरी है
उस परिंदे की मौजूदगी
जो बेबसी से फड़फड़ा कर
चिल्ला-चिल्ला कर
पूरे जंगल की नींद उड़ा दे
जब जंगल का
पुकारने वाला आख़िरी परिंदा मार दिया जाए
या सधा लिया जाए
तो उसकी तबाही तय है
दरिंदे राजा की ताक़त और मक्कारी
हमेशा उस परिंदे से हारी है
ज़िंदा है हमारा परिंदा
ज़िंदा हैं हम


शाहीन बाग़ / उसामा ज़ाकिर

बड़ी ही नाज़ुक हैं उंगलियां ये
हर एक नारे में उठ रही हैं
मगर चमत्कार हो रहा है
हज़ारों जहनों से बुज़दिली
इनके एक इशारे में धुल रही है
हज़ारों जहनों की बर्फ़ अचानक ही
क़तरा-क़तरा पिघल रही है
बदन भी फ़ौलाद का नहीं ये
जो सर्द रातों में रास्ते पर पड़ा हुआ है
जो ज़ुल्म के रास्ते का पत्थर बना हुआ है
बस एक ज़िद पर अड़ा हुआ है
के नफ़रतों की नज़र का
तिनका बना रहेगा
अभी डटा है सदा रहेगा
तमाम जागी हुई निगाहें में जल रहे हैं
चराग ख़्वाबों के
जिनकी लौ सर्द रात के मन में
एकता का अलाव रौशन किए हुए हैं
के उनके दिल में धड़क रहा है
नए उजालों का सुर्ख़ सपना
के उनके कानों में आ रही हैं
नए सवेरों के नर्म क़दमों
की मद्धम आवाज़


लड़कियों ! / उसामा ज़ाकिर

बाल भ्रम के धागे उधेड़ने के लिए
इंक़िलाब को घी खिचड़ी के साथ लाने के लिए
मुहब्बत को किफ़ायत से ऊपर रखने के लिए
डर को मुंह चिड़ाने के लिए
सत्ता के चुटकी काटने के लिए
अहंकार को सिहरन में बदलने के लिए
ध्यान के लंबे मौसम के बाद
बेध्यानी का त्योहार मनाने के लिए
फ़र्ज़ी अक़्ल के पक्के रास्तों से बग़ावत करके
कल्पना और ख़्वाबों की पगडंडियों पर चलते चलते
दूर निकल जाने के लिए
सिक्के की खनक से बेख़बर
ज़िंदगी में हज़ारों रंग के सितारे टांकने के लिए
आज़ादी की लड़ाई में
बहादुरी की नई परिभाषा रचने के लिए
और सारे जहान के दर्द
दो आंखों में समेटने के लिए
दुनिया को ज़रूरत है तुम्हारी



भूली-बिसरी ख़बरे