कोलकाता: महिला श्रमिकों के जुझारूपन व हिन्दू-मुस्लिम शानदार एकता से एक्सोडस मज़दूरों की जीत

आंदोलन की बागडोर संभाले महिला मज़दूर नए-नए प्रयोगों से अपने संघर्ष को गति देती रहीं। रोज़ा में सहरी व इफ़्तार या होली का पर्व हो हिन्दू-मुस्लिम महिलायें एकदूसरे की साझीदार बनीं।
कोलकाता (पश्चिम बंगाल)। एक्सोडस फ्यूचुरा गारमेंट कारखाना सोनारपुर में महिला मज़दूर अपनी शानदार एकताबद्ध जुझारू आंदोलन के साथ हक़ हासिल करने में कामयाब रहीं। 21 फरवरी से 17 मार्च तक 25 दिनों के अथक संघर्ष के बाद जीत मिली। 18 मार्च से सभी मज़दूर काम पर लौट गईं।
भयावह शोषण के बीच यह आंदोलन कई मायनों में एक मिसाल है। पूरे आंदोलन की बागडोर महिला मज़दूरों के हाथ में थी, जो पूरे जज्बे के साथ दिन-रात फैक्ट्री गेट पर डटी रहीं, नए-नए प्रयोगों से अपने आंदोलन को गति देती रहीं। इसमें मुस्लिम महिलायें थीं, जिनका रोज़ा चल रहा था। सहरी और इफ़्तार में हिन्दू महिला श्रमिक सहयोग में थीं, तो होली के पर्व में एकदूसरे की साझीदार बनीं। वहीं स्थानीय लोगों का पूरा सहयोग मिला। और इसी एकजुटता के साथ वे मालिक को झुका सकीं।

सबको रेडीमेड वस्त्र मुहैया कराने वाले श्रमिकों की चिंतनीय स्थिति
एक्सोडस में शोषण की कहानी नई नहीं है। गारमेंट सेक्टर (परिधान निर्माता) तमाम कंपनियों में ज्यादातर महिला श्रमिक काम करती हैं, जहाँ भयावह शोषण है। दुनिया को खूबसूरत वस्त्र उपलब्ध कराने वाली इन कंपनियों का मुनाफा बेइंतहाँ हैं, लेकिन इसे बनाने वाले श्रमिकों को न्यूनतम वेतन और बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिलतीं हैं।
बांग्लादेश में राणा प्लाजा और परिधान श्रमिकों की भयावह कहानियाँ, बेंगलुरु में परिधान श्रमिकों की ‘उत्पादन यातना’ की रिपोर्ट से लेकर गुरुग्राम में परिधान उद्योग के श्रमिकों की ‘दुर्घटनाओं’ और शोषण की अनगिनत कहानियाँ उत्पादन और कार्य की भयावह स्थिति की दर्पण है। जिसे कारखाना मालिकों, वैश्विक ब्रांडों, निर्यातकों द्वारा बड़े बाजार में तब्दील कर दिया गया है। यह पूरा उत्पादन तंत्र मुख्यतः सस्ते महिला श्रम पर आधारित है।
प्रमुख गारमेंट वस्त्र निर्माता कंपनी है एक्सोडस
प्रमुख परिधान निर्माताओं में से एक एक्सोडस फ्यूचुरा निट प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में डेकाथलॉन, पैंटालून्स और ईयू पोलो से लेकर आदित्य बिड़ला, फर्स्टक्राई, रिलायंस और थ्री एरो जैसी नामी कम्पनियों के लिए परिधान बनता है। 2011 में स्थापित, एक्सोडस में परिधान उत्पादन तीन इकाइयों में विभाजित है: हावड़ा में बुनाई इकाई, बिष्णुपुर में रंगाई इकाई और सोनारपुर में परिधान इकाई।
दक्षिण 24 परगना में स्थित सोनारपुर इकाई छह एकड़ में फैला है, जिसमें प्रतिदिन 30,000 तैयार उत्पाद बनाने की क्षमता वाली 800 अत्याधुनिक मशीनें हैं। यहाँ कटिंग से लेके फाइनल पैकिंग तक का काम होता है। इस कारखाने में कटिंग, स्टिचिंग, पैकिंग, मेजरमेंट, क्वालिटी जैसे डिपार्टमेंट हैं।
यहाँ 900 महिला श्रमिक काम करती हैं। उनमें से 700 स्थानीय महिलाएँ हैं व 200 स्किल इंडिया प्रशिक्षु हैं जो झारखंड से हैं। कारखाने के अंदर एक छात्रावास की सुविधा है जहाँ प्रशिक्षु रहते हैं। प्रशिक्षुओं को स्थानीय महिलाओं के साथ घुलने-मिलने से हतोत्साहित किया जाता है।

एक्सोडस में वह भयावह शोषण की कहानी
इस प्लांट में 15 मिनट के प्रोडक्शन के मॉडल के हिसाब से काम होता हैं। कटिंग से लेके स्टिचिंग और मेजरमेंट से लेके पैकिंग, हर विभाग में 15 मिनट के टारगेट के हिसाब से काम चलता है। हर दिन, महिला कर्मचारी सुबह 9 बजे फैक्ट्री गेट पर प्रवेश करती हैं और उन्हें तब तक काम करना होता है जब तक उनका उत्पादन लक्ष्य पूरा नहीं हो जाता।
दिन की शुरुआत में प्रबंधन हर तरह के परिधान के लिए 15 मिनट का एक टारगेट तैयार कर देते हैं। वही टारगेट पूरा करना पड़ता हैं। नहीं तो 8 घंटे से अधिक समय रुककर निर्धारित टारगेट को पूरा करके फिर कोई निकल सकता है। अधिक समय काम करने के लिए कोई ओवरटाइम भुगतान भी नहीं मिलता हैं। महिलाओं को अक्सर ऐसे बोला जाता हैं कि आप घर से टॉयलेट करके आओ, यहां आके टॉयलेट जाओगे तो टारगेट पूरा नहीं हो पाएगा।
कोई आकस्मिक छुट्टी नहीं होती। अर्जित छुट्टियों का वादा किया जाता है, लेकिन अर्जित छुट्टियों का कोई रिकॉर्ड नहीं होता है। उनको अक्सर यह कहकर बरगलाया जाता है कि उन्होंने अपनी अर्जित छुट्टियाँ समाप्त कर ली हैं। श्रमिकों को अपने काम के दौरान पूरे समय फ़ोन जमा करना होता है।
उन पर लगातार नज़र रखी जाती है और किसी भी तरह की एकजुटता को हतोत्साहित किया जाता है। काम में किसी कमी पर श्रमिकों को प्रबंधन द्वारा सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाता है और उन्हें अपना काम फिर से करने को बाध्य किया जाता है।
काम का दबाव इतना ज़्यादा होता है कि उन्हें अक्सर लक्ष्य पूरा करने के लिए अपने टॉयलेट ब्रेक या लंच ब्रेक को छोड़ना पड़ता है। इससे उन्हें यूटीआई, किडनी स्टोन, क्रोनिक बैक पेन आदि कई स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ भी होती हैं।

शोषण के बीच पहले भी हुआ संघर्ष
2011 में, श्रमिकों को प्रतिदिन 10 रुपये का वेतन दिया जाता था और 8 घंटे काम करने के बदले दोपहर का भोजन दिया जाता था। उस वर्ष, हुए आंदोलन के बाद उनका मासिक वेतन 2100 रुपये हो गया। लेकिन एक दिन की छुट्टी के लिए भी उन्हें 350 रुपये देने पड़ते थे। 18 महीने बाद ही महिला श्रमिक मालिकों को जॉइनिंग लेटर देने और पीएफ योगदान के लिए सफलता प्राप्त कीं।
कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान, श्रमिकों को डबल पेमेंट के वादे के साथ पीपीई किट बनाने के लिए बुलाया गया था। लेकिन वादे झूठे ही निकले। श्रमिकों के पीएफ का हिस्सा उनके वेतन से काटा जा रहा था, लेकिन नियोक्ता द्वारा भुगतान किया जाने वाला पीएफ बकाया लंबे समय से उनके पीएफ खातों में जमा नहीं किया जा रहा है।
2022 में, श्रमिकों ने पीएफ बकाया के भुगतान की मांग को लेकर आंदोलन किया। मालिकों ने मौखिक रूप से वादा किया कि वे उनकी मांगों पर विचार करेंगे। श्रमिक काम पर वापस चले गए, लेकिन प्रबंधन अपने वादे से मुकर गया।
2024 में, श्रमिकों की मालिक के साथ एक बैठक हुई, जहाँ प्रबंधन ने दिसंबर 2024 के भीतर बकाया चुकाने का वादा करते हुए एक अनुबंध पर हस्ताक्षर भी किए, लेकिन साल बीत गया और कोई बकाया नहीं चुकाया।

जज्बे के साथ नए संघर्ष का दौर
लगातार शोषण और मालिक की वायदाखिलाफी से श्रमिकों में आक्रोश था। पांच साल के पीएफ का पैसा बाकी था। 2024 में आश्वासन के बावजूद मालिक ने बकाया पैसा नहीं चुकाया। जनवरी 2025 से वेतन में बेसिक की राशि कम कर दी गई थी और उसलिए पीएफ और भी घट गया था। मालिक ने जनवरी 2024 से 700 रुपए वेतन बढ़ाया था। मालिक ने बोला कि या तो 700 रुपया बढ़ेगा नहीं तो बेसिक बढ़ेगा। दोनो एकसाथ नहीं होगा।
21 फरवरी को जब महिला श्रमिकों ने अपना बकाया मांगा, तो मालिक ने काम बंद करने का नोटिस चिपका दिया और फैक्ट्री का गेट बंद कर दिया। इस अन्याय के खिलाफ सभी महिला श्रमिक सड़क पर उतर गईं और वाहन रोक दिया। पुलिस ने हस्तक्षेप करके प्रदर्शनकारियों को रास्ते से हटाया।
महिलायें कारखाने के पास धरने पर बैठ गईं। तबसे 26 दिन लगातार दिन रात महिलाएं शिफ्ट की ड्यूटी जैसा रोस्टर बनाकर कारखाना के सामने बैठी रहीं। लेबर कमिश्नर और पीएफ ऑफिस में शिकायत दर्ज किया।
चिलचिलाती गर्मी में अस्थायी तंबू के नीचे उन 25 दिनों के दौरान, मच्छरों से लड़ते हुए अंधेरे में रातें बिताने के दौरान सभी श्रमिकों ने एक-दूसरे को सहारा दिया। स्थानीय लोगों ने भी अपनी एकजुटता दिखाई, हर संभव मदद किया, महिलाओं के लिए अपने घरों के दरवाज़े खोल दिए ताकि वे अपने शौचालय का इस्तेमाल कर सकें।
धरना स्थल पर ही महिलाओं ने अपनी मांगों को व्यक्त करने के लिए लोकप्रिय गीतों की पैरोडी बनाई, भोजन और हंसी साझा की, तमाम गीत सुने और नृत्य किया, या प्रतिरोध के गीत गाए। एक-दूसरे का ख्याल रखा, एक-दूसरे की जरूरतों का ध्यान रखा और जब भी जरूरत पड़ी, आगे बढ़ गईं।

हिन्दू-मुस्लिम एकजुटता का शानदार प्रदर्शन
इस पूरे आंदोलन के दौर में जहाँ एक तरफ रोज़ा का महीना चल रहा था और महिला श्रमिक लगातार रोजा रख रही थीं। वहीं इसी दौरान होली का भी त्योहार था। धरना स्थल दोनों धर्म के श्रमिकों के सहयोग का शानदार नमूना प्रस्तुत किया।
रोज़ेदार मुस्लिम श्रमिक सुबह 3 बजे सहरी के लिए प्रदर्शन स्थल से चली जाति थीं और हिंदू श्रमिक उनकी जगह ले लेती थीं। अगर किसी मुस्लिम घर में बैठक होती, तो हर कोई इफ़्तार के लिए खाना बनाने में हाथ बंटाता ताकि बैठक समय पर शुरू हो सके। हर दिन हर महिला कर्मचारी अपने घर पर थोड़ा ज़्यादा खाना बनाती और उसे प्रदर्शन स्थल पर लाती ताकि वे सब साथ में खा सकें।

ऐसे समय में जब होली के जश्न के लिए मस्जिदों को त्रिपाल से ढकने की खबरें आ रही थीं, रंग डालने से मना करने पर मुस्लिम व्यक्ति की हत्या की खबरें आ रही थीं, कट्टर धार्मिक उत्साह और हिंदुत्व निगरानी समूहों द्वारा उत्सव थोपने की कोशिशें हो रहीं थीं, यहाँ एकजुटता का शानदार माहौल था। श्रम की साझा लड़ाई धरमोन्माद पर भारी था।

संघर्ष के दबाव में मालिक को झुकना पड़ा
अंततः 23वें दिन, श्रम विभाग के हस्तक्षेप से, मालिक मज़दूरों के साथ द्विपक्षीय बैठक के लिए सहमत हुआ। एक प्रतिनिधि दल प्रबंधन से बात करने गया, जबकि अन्य लोग धरना स्थल पर प्रतीक्षा कर रहे थे।
अंततः 6-7 घंटों की बातचीत के बाद, मालिक यह मानने में मजबूर हुआ कि मूल वेतन और 700 रुपए की वेतन वृद्धि यथावत रहेगा, इस वर्ष के अंत तक वह उनके पीएफ का भुगतान कर देगा। साथ ही कारखाना अधिनियम के अनुपालन में ईएल और सीएल देने का वादा किया।
वार्ताकार श्रमिक प्रतिनिधि दल ने 16 मार्च को समझौते पर हस्ताक्षर करने से पहले अपने सहकर्मियों के साथ चर्चा करने और आम सहमति के लिए समय लिया।
अंततः सबकी सहमति से समझौता सम्पन्न हुआ। 21 फरवरी से 17 मार्च तक 25 दिनों के शानदार संघर्ष के बाद उन्हें जीत मिली। 18 मार्च को फैक्ट्री का बंद गेट खोला गया। सबके चेहरे पर जीत की खुशी थी। हालांकि आगे का संघर्ष अभी बाकी है, जिसका जोश महिला श्रमिकों में बरकरार है।
एक कठिन समय में, महिला श्रमिकों के जूझरुपूर्ण शानदार आंदोलन, सांप्रदायिक एकजुटता, और तात्कालिक जीत पर सेंटर फॉर स्ट्रगलिंग ट्रेड यूनियंस (CSTU) ने संग्रामी महिलों को इस तात्कालिक जीत पर बधाई दी है।