2cover

भारत में खाद्यान्न सुरक्षा का बढ़ता संकट

1970 के दशक से भारत खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की घोषणा कर चुका है। सरकार दुनिया भर में गौरवान्वित होकर इसका दावा करती रही है। दूसरी तरफ भारत में लगभग 20 करोड़ लोग अल्प-पोषित हैं, अर्थात संपूर्ण आबादी के 15.3% को पर्याप्त मात्रा में खाना नहीं मिल पा रहा है। यह कैसे संभव हो सकता है कि एक देश अपनी जरूरत से ज्यादा खाद्यान्न पैदा कर रहा हो फिर भी वहाँ दुनिया में सबसे ज्यादा भुखमरी हो?

ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2021 की रिपोर्ट में भारत को 27.5 अंक मिले हैं, जो यहां भुखमरी के गंभीर स्तर को दर्शाते हैं। कुल 116 देशों की सूची में भारत को 101वां स्थान मिला है, जबकि पिछली रिपोर्ट में 94वां स्थान था। एक रिपोर्ट से दूसरी रिपोर्ट के बीच भारत का स्थान गिरा है, जिसके काफी गंभीर मायने हैं।

जिस राष्ट्र का प्रधानमंत्री अपने देशवासियों को ‘विश्व गुरु‘ और ‘5 ट्रिलियन अर्थव्यवस्था’ के सपने दिखाता है, विदेशों में घूम-घूम कर अपने राष्ट्र की श्रेष्ठता की घोषणा करता है, अखबार टीवी आदि पर अमेरिका, चीन जैसा शक्तिशाली राष्ट्र बनने की घोषणा करता है; वह जी एच आई 2021 की रिपोर्ट में उन तमाम देशों के आसपास भी नहीं है। इस रिपोर्ट में अमेरिका, चीन जैसे राष्ट्र ऊपरी 16 राष्ट्रों में हैं, जबकि भारत निचले 16 राष्ट्रों में। पाकिस्तान, नेपाल, भूटान आदि भी भारत से काफी अच्छी स्थिति में हैं।

वर्तमान मोदी सरकार खुद को जन कल्याणकारी सरकार होने का दावा करती है। अगर हम प्रति-व्यक्ति प्रति-वर्ष खाद्यान्न उपलब्धता देखें, तो ये अंग्रेजों के शोषण के उच्चतम समय में (1903-1908 में) 177.3 किलोग्राम था और 2016 में 177.7 किलोग्राम। ये आंकड़े साफ कर देते हैं कि ब्रिटिश राज की नीतियों और वर्तमान सरकार के उद्देश्यों में कोई फर्क नहीं है। इनका असली मकसद आम जनता का शोषण कर के बड़ी कंपनियों को ज्यादा से ज्यादा फायदा पहुंचाना है।

भारत खुद को खाद्यान्न संप्रभु राष्ट्र घोषित करता है। संप्रभुता का अर्थ होता है – ‘राष्ट्र जो अपने आंतरिक व बाहरी मामलों में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है, आत्मनिर्भर है’। इस तरह से खाद्यान्न संप्रभुता का अर्थ हुआ कि आवश्यक खाद्यान्न का उत्पादन देश में ही होता है। लेकिन भारत के 2015-16 वर्ष के आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि देश के कुल आयात में 79% हिस्सा खाद्यान्न का है। और सवाल ये भी उठता है कि अगर भारत खाद्यान्न संप्रभु राष्ट्र है, तो फिर 20 करोड़ आबादी अल्पपोषित क्यों है?

भारत में गेहूं और चावल का अतिरिक्त उत्पादन होता है, जो निर्यात किया जाता है और दालें, खाने का तेल आदि आयात किया जाता है। भारत को संप्रभुता प्राप्त करने के लिए यह करना चाहिए कि जिन क्षेत्रों में गेहूं व चावल का अतिरिक्त उत्पादन हो रहा है, वहां आयात करने वाले खाद्यान्न पैदा करने चाहिए। लेकिन सिर्फ भारत ही नहीं, अन्य कोई भी खाद्यान्न उत्पादन करने वाला राष्ट्र ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करने से अमीर राष्ट्रों को कम कीमत पर अनाज मिलना बंद हो जाएगा और साम्राज्यवादी राष्ट्र यह स्वीकार नहीं करेंगे। साम्राज्यवादी राष्ट्रों ने अनेक संधियों व समझौतों से भारत जैसे राष्ट्रों को बांध रखा है। कोई राष्ट्र क्या पैदा करेगा, यह उस राष्ट्र की आवश्यक जरूरतों से तय न होकर साम्राज्यवादी नीतियों से निर्धारित हो रहा है।

डब्ल्यूटीओ की नीतियों के तहत सरकार किसानों को सब्सिडी देना कम कर रही है एवं धीरे-धीरे किसानों से उपज खरीदना भी कम कर रही है। इससे किसानों का उत्पादन खर्च बढ़ता जा रहा है। उन्हें फसल बेचने के लिए खुले बाजार में जाना पड़ता है, जहां उनकी उपज के दाम किसानों की लागत के आधार पर तय न होकर कॉरपोरेट्स के लाभों के अनुसार तय होते हैं। ऐसे वक्त में सरकार की यह घोषणा कि देश खाद्यान्न में आत्मनिर्भर है, किसानों की उपज के दाम गिरा देता है। परिणाम यह है कि किसानों को लगातार नुकसान हुआ है व किसान खेती छोड़ रहे हैं। इससे बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है।


साथ ही देश में आवश्यक खाद्यान्न का उचित वितरण भी आवश्यक है ताकि भुखमरी जैसी समस्या से निजात पाई जा सके। पिछले काफी सालों से सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कमजोर किया है। ‘सार्वभौमिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली’ को ‘टारगेटेड वितरण प्रणाली’ मे बदला। वर्तमान में खाद्य सुरक्षा योजना के तहत नए आवेदन लेना भी केंद्र सरकार ने बंद कर दिया है।

आंध्र प्रदेश में राशन की लाइन में खड़े लोग

इसके अलावा जो खाद्यान्न वितरित किया जाता है उसकी गुणवत्ता की निगरानी नहीं रखी जाती। वितरण हो रहा है या नहीं इसकी निगरानी नहीं की जाती। जिससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार की घटनाएं सामने आती रहती हैं एवं समाज में सार्वजनिक वितरण प्रणाली की लोकप्रियता और पहुंच कम हुई है।

सरकार की नव-उदारवादी नीतियों जैसे निजीकरण, श्रम कानूनों में बदलाव आदि की वजह से समाज में बेरोजगारी बढ़ी है और उपलब्ध रोजगार में वेतन घटा है। इस वजह से आम जनता की खरीदने की क्षमता कम हुई है। दूसरी और आवश्यक वस्तुओं में महंगाई बढ़ी है। इसका परिणाम यह रहा कि अधिकत्तम जनता चाह कर भी जरूरत का भोजन नहीं खरीद पा रही है, पौष्टिक भोजन तो दूर की बात ठहरी। यहां तक की प्रति-व्यक्ति प्रति-दिन कैलोरी कि खपत भी कम हो रही है। बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी व नव-उदारवादी नीतियों की वजह से समाज में गैर-बराबरी लगातार बढ़ती जा रही है। देश की कुल संपत्ति का 77 % संपत्ति सिर्फ 10% अमीर लोगों के पास है।

विकास के दावे खोखले हैं, आत्मनिर्भरता की घोषणा झूठी है। ऐसी आत्मनिर्भरता किस काम की जो जनता का पेट भी न भर सके? ऐसे विकास का क्या मतलब जो भोजन न दे सके?

(यह लेख प्रारंभिक रूप से जयपुर से प्रकाशित गोफण पत्रिका में छापा गया था)

भूली-बिसरी ख़बरे