फासीवाद और मज़दूर वर्ग

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मजदूर, किसान और मेहनतकश जनता के जिस एक बड़ा हिस्से ने इस बार के चुनाव में भाजपा को वोट देकर जिताया, उनके लिए देश के 17वें संसदीय चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा था – ”हमारे देश में आतंकी हमले में मदद करने वाले पाकिस्तान को कौन सी पार्टी सबक सिखा सकती है?“ लेकिन ”देश में बेरोजगारी बढ़ रही है कि नहीं, मज़दूरों का वेतन पिछले 5 सालों से घट गया है कि नहीं, किसानों की हालत बदतर हो रही है कि नहीं“ आदि सवाल कोई खास मुद्दा नही था। ध्यान था देशभक्ति के सवाल पर, ध्यान था राष्ट्रवाद के सवाल पर।

बेरोजगारी बनाम देशभक्ति

एक मज़दूर या किसान या एक बेरोजगार लड़का/लड़की अगर कम मज़दूरी का सवाल, घर की बुरी आर्थिक स्थिति का सवाल या बेरोजगारी जैसे अति जरुरी सवालों को भूल कर ‘देश के स्वार्थ’ मे ज्यादा चिंतित हो जाते हैं, तो क्या ऐसा होना अपने आप एक अच्छी बात नही हैं? देशभक्ति से ज्यादा महान राजनीति और क्या हो सकती है!

खास कर पिछले 5 सालों में देशभक्ति के साथ-साथ देशद्रोह की बातें भी खूब आई थीं। बड़े मीडिया में इस बारे में खूब चर्चा होती रही, कि कुछ लोग – खास कर कुछ विद्यार्थी देश का नुकसान कर रहें हैं, भारतीय होते हुए भी पाकिस्तान का हित चाहते हैं। लेकिन ज्यादातर मज़दूर साथियों को असल मामला अभी तक ठीक से समझ में नहीं आया।

असल मामला क्या है?

सच्चाई क्या है? अगर हम थोड़ा सा ध्यान से देखें तो पाते हैं की – भाजपा सरकार के सबसे मजबूत स्तम्भ हैं अडानी, मुकेश अम्बानी, अनिल अम्बानी जैसे पूँजीपति। हजारों करोड़ों का घोटाला करके देश से भाग गए विजय माल्या, नीरव मोदी जैसे पूँजीपति। ये सभी भाजपा के सक्रीय सहयोगी रहे हैं।

2014-2019 के दौरान भाजपा सरकार श्रम कानूनों में ढ़ेरों मज़दूर विरोधी बदलाव कर चुकी है। आज मज़दूरों के लिए अपनी एक यूनियन बनाना लगभग नामुमकिन कर दिया गया है। पूँजीपति वर्ग मज़दूरों को ठेका मज़दूरों जैसी सुविधाएं भी नहीं देना चाहता है। उससे भी कम दिहाड़ी और सुरक्षा (पीएपफ, बोनस, पेंसन आदि) में मज़दूरों को काम कराने के लिए भाजपा सरकार ‘अपरेंटिस एक्ट, 1961’ व ‘फैक्ट्री एक्ट, 1948’ में बहुत सारे बदलाव कर चुकी है। मज़दूरों के लिए जो भी अधिकार बचे हुए हैं, अगले 5 सालों में उसको छीन लेने का काम निश्चित रूप से होना है। तैयारी शुरू हो चुकी है। वेज कोड आ चुका है। नयी नौकरी देने में सरकार पूरी तरह से नाकामयाब रही है, जिसे सरकार मान चुकी है। लम्बे दावों के बावजूद विदेशी पूँजी को भी लाना संभव नहीं हुआ (हालांकि विदेशी पूँजी आने से भी कुछ अच्छा नहीं हो जाता)।

अडानी-अम्बानी बनाम मज़दूर हित

यह सही है कि जीएसटी, नोटबंदी जैसे कदमों से अडानियों, अम्बानियों को बहुत मुनाफा मिला, लेकिन, न केवल मेहनतकशों को बल्कि छोटे व्यापारियों को भी बहुत ज्यादा परेशानी हुई और आर्थिक नुकसान हुआ। देश का जीडीपी वृद्धि दर भी पिछले 3/4 सालों से लगातार घटता चला गया। फिर भी मोदी सरकार ऐसी लोकविरोधी कार्रवाई लगातार क्यों कर रही है?

जबाब एक सरल आंकड़े से हमें मिल जायेगा। मुकेश अम्बानी की 2014 में कुल संपत्ति 23 बिलियन डाॅलर थी, जो 2019 में बढ़कर 55 विलियन डाॅलर हो गयी। मतलब महज 5 सालों में सम्पत्ति लगभग ढाई गुना हो गयी। इसी समयकाल में अडानी की संपत्ति 2.6 बिलियन डाॅलर से 4 गुना से भी ज्यादा बढ़कर 11.9 बिलियन डाॅलर हो गयी। लाला रामदेव द्वारा परिचालित कम्पनी देश की सबसे बड़े कम्पनियों का सूची में आ गयी। ऐसे ही बहुत सारे आंकड़े सामने आ रहे हैं। लेकिन यह सब कैसे संभव हो रहा हैं?

यह फासीवाद का कमाल है!

इसका जवाब ढूंढे तो हम पाएंगे कि, देश के पूँजीपतियों और साम्राज्यवादियों को संकट से उबारने और मुनाफा बढ़ाने में भाजपा-आरएसएस जैसे फासीवादियों ने पिछले 5 सालों में पूरी ताक़त झोंक दी थी। मज़दूर-किसान- मेहनतकशों की आर्थिक हालत में गहरी चोट पहुँचाकर ही यह काम किया जा सकता है। और इस काम में संघ-भाजपा पूँजीपतियों की कांग्रेस जैसी अन्य पार्टियों से खुद को काफी तेज और काबिल साबित कर रही हैं। यह है फासीवाद का कमाल!

ये तत्व अमरीकी व अन्य साम्राज्यवादियों के आगे कोई आवाज़ तक उठा नहीं सकते। असल में ‘उनका राष्ट्रवाद’ एक ‘पतित राष्ट्रवाद’ है, जो कि साम्राज्यवादियों के खिलाफ संघर्ष करने के बजाय उनके साथ सांठ-गाँठ करता है, मजदूर-मेहनतकशों के हित के विपरीत पूँजीपतियों की सेवा करता हैं। देशभक्ति के नाम पर सिर्फ झूठ फ़ैलाने का काम करता है।

फासीवाद अंधा गुस्सा पैदा करता है

फासीवाद मज़दूरों में एक ऐसा ‘अँधा गुस्सा’ पैदा कर देता है जिससे मज़दूर अपने वर्ग के, मेहनतकश आबादी के हित को समझने की क्षमता खो बैठता है। उससे दोस्त और दुश्मन पहचानने की क्षमता छीन लेता है। तब जेएनयू के सामान्य विद्यार्थी को देख कर भी मज़दूरों को लगता है कि ये लड़के/लड़कियां ज़रूर पाकिस्तान के एजेन्ट होंगे। तब उनके सोचने की यह क्षमता खो जाती है कि जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थी ही तो सबसे मुश्किल दिनों में दिल्ली से गुडगाँव, नीमराना तक मज़दूरों के संघर्ष में साथ खड़े होते हैं। देश के किसी भी कोने में होने वाले किसी भी अन्याय के खि़लाफ सड़क पर उतर कर विरोध प्रदर्शन करते हैं। अपनी पढ़ाई में हानि पहुँचाकर भी न्याय के साथ खड़े होने की ज़िम्मेदारी निभाते हैं। ये छात्र-छात्राएं कैसे राष्ट्र विरोधी हो सकते हैं? उनके दिमाग में यह सवाल आता ही नहीं कि अडानी, अम्बानी जैसे सारे पूँजीपति कब से इतना देशभक्त हो गये हैं?

क्योंकि सबसे ज्यादा चंदा भाजपा को

17 जनवरी, 2019 के बिजनेस स्टैण्डर्ड अख़बार के अनुसार सन 2017-18 में 20,000 रुपये से ज्यादा राशि वाला जो चन्दा देश की 6 राष्ट्रीय पार्टियों को मिला था, उनका 93 फीसदी अकेले भाजपा को मिला। खुद भाजपा घोषणा करती है कि उनको कुल प्राप्त चन्दे का 91.58 फीसदी बड़े पूँजीपतियों से मिला है। भाजपा खुलके बढ़े पूँजीपतियों के लिए काम कर रही है और बड़े पूँजीपति भी खुल के भाजपा को चंदा दे रहे हैं। आज भाजपा को यह छुपाने की भी ज़रुरत नहीं है कि उनकी पार्टी पूँजीपतियों के पैसा से ही चलती है।

बन गये स्वंभू देशभक्त

भाजपा सरकार को आम मेहनतकशों की आँख में धूल झोंक देने की ताक़त जरूर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की देन है। सन 1925 में इस संस्था का जन्म हुआ था। जन्म के थोड़े दिन बाद ही उसने बता दिया था की अंगरेजों के खिलाफ संघर्ष करके वे उर्जा नही खोएंगे, असली दुश्मन है मुस्लिम जनता। यह कैसी देशभक्ति है? हाँ, इसीलिए अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में इनके किसी बड़े नेता का नाम नहीं आता है। संघ का कोई व्यक्ति लम्बे समय तक जेल में भी नहीं रहा, शहादत तो दूर की बात है। लेकिन ये आज बन गए सबसे बड़े देशभक्त! आज दूसरे सभी लोगों को उनसे देशभक्ति का सर्टिफिकेट लेना पड़ता हैं!

आज़ादी के बाद उनका सबसे बड़ा राजनैतिक काम था गाँधी जी की हत्या। इस संस्था के सबसे बड़े पथप्रदर्शक विनायक दामोदर सावरकर की सुनियोजित परिकल्पना के तहत आरएसएस कार्यकर्ता नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी, 1948 को गांधीजी की हत्या कर दी थी। एक लम्बे समय तक आरएसएस ने इस हत्याकांड की ज़िम्मेदारी नहीं ली। अभी हुए लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान साध्वी प्रज्ञा द्वारा नाथूराम को एक वीर के रूप में उभारा गया।

अलग-विचार के लोगों की हत्या कर देना फासीवादियों के लिए कोई बड़ी बात नही है। पिछले 6/7 सालों में ही इन्होने नरेंद्र दाभोलकर, एम एम कलबुर्गी, गोबिंद पनसारे, गौरी लंकेश जैसे वैज्ञानिक और तर्कसंगत विचार रखनेवाले जानेमाने पत्राकारों/ बुद्धिजीवियों/कार्यकर्ताओं की हत्या की है। यह कार्यशैली एक फासीवादी कार्यशैली हैं।

फासीवाद: इटली-जर्मनी से भारत तक

फासीवाद का जन्म सन 1915 में इटली में हुआ था। यह दल इटली की राजसत्ता पर सन 1922 में क़ाबिज हुआ था। सबसे ज्यादा ताक़तवर बनी थी जर्मनी की फासीवादी पार्टी। मानव सभ्यता के इतिहास में हिटलर जैसा निर्विचार नरहत्या किसी ने कभी नही किया। वहाँ लाखों निरपराध लोगांे को हिटलर के आदेश पर मार दिया गया था। आरएसएस के नेतागण उस ज़माने में ही इटली और जर्मनी जा कर मुसोलिनी और हिटलर से मिलकर ‘फासीवादी कला और तौर-तरीका’ सीखकर आये थे। साथ में उनका प्रतीक निशान – स्वस्तिक भी लाये थे। आज भी आरएसएस उसी प्रतीक का इस्तेमाल करता है।

हिटलर की फासीवादी संस्था में एक बड़ा ज़िम्मेदार नेता था गोएबेल्स – उसका कहना था – अगर तुम एक झूठ को सौ बार जनता के बीच बोलोगे, तो जनता उस झूठ को ही सच मानने लगेगी। संघ-भाजपा ने इस खास सीख को भी अपनाया। हमारे प्रधानमंत्री खुद को गोएबेल्स का होशियार शिष्य होने का दावा जरूर कर सकते हैं!

फासीवादी नीति: मज़दूर आन्दोलन को जड़ से खतम करना

आरएसएस की फासीवादी विचारधारा सबसे कठोरता से जिस नीति को अपनाता है, वह है – मज़दूर आन्दोलन को जड़ से ख़तम करना। इसका मतलब कुछ और नहीं बस, पूँजीपतियों द्वारा बन्दूक को आगे रख कर मज़दूर-मेहनतकशों का शोषण और लूट। भारत के फासीवादी कहते हैं की यह संस्था सभी हिन्दुओं की संस्था है। मजेदार बात यह है कि इनका सबसे बडा शिक्षक बिनायक दामोदर सावरकर खुद एक नास्तिक था। मतलब, एक नास्तिक की सलाह पर एक ‘हिन्दू’ संस्था बन गयी थी।

ये आधुनिक सत्रार्थ की भी पूजा करते हैं। इन लोगो की देव-भक्ति देखकर उन डकैतों की देव-भक्ति की याद आती है, जो बिना भगवान पूजे कतई डकैती नहीं करते थे। जैसे आज के समय में ‘जय श्री राम’ जैसे एक सामान्य धार्मिक नारे को इन्होंने निर्विचार हत्या से लेकर हर प्रकार का अपराध शुरू करने के मंत्र में तब्दील कर दिया है।

हिन्दू धर्म का नाम इस्तेमाल करते हुए भारत में फासीवादी जमात पूरे देश में मेहनतकश जनता के बीच एक-दूसरे के प्रति नफरत फैला रही है – जिससे हिन्दू धर्म में विश्वास रखनेवाले आम धार्मिक लोगों का कोई सम्बन्ध नही है।

उसी तरह से इस्लाम का नाम लेकर भी देश में बहुत सारी संस्थाएं सक्रिय हैं- जो दूसरे धर्म में विश्वास रखने वाले लोगों के प्रति, इस्लाम में विश्वास रखनेवाले लेकिन उन तत्वों से दूरी रखने वालों के प्रति, नास्तिक लोगो के प्रति, भयंकर नप़फरत फैलाती हैं। आतंकवादी हमले चला कर सैकड़ों लोगो की हत्या कर देना इनके लिए मामूली बात है। ये तत्व भी कहते हैं की, यह आम मुसलमानों के हित के लिए ज़ेहाद है, इस्लाम के प्रति निष्ठा से और अल्ला के निर्देश से किया जा रहा है। लेकिन, मुस्लिम मेहनतकशों की अत्यधिक गरीबी, शिक्षा व इलाज की समस्या कैसे हल होगी, इस बारे में उन कट्ट्टरपंथियों और आतंकवादियों का कोई कर्तव्य या ज़िम्मेदारी नही है। ऐसी कोई संस्था किसी भी धर्म को माननेवाले मेहनतकशों के लिए हितकारी नहीं हो सकती है।

फासीवादी पूँजीवाद के हथियार हैं

आज के समय में भारत के मज़दूर-किसान- मेहनतकशों को नुक्सान पहुँचाने के लिए आरएसएस के नेतृत्व में सारे फासीवादी संगठन कमर कसके लगे हैं। सिर्फ अपने वर्चस्व के लालच और आतंकी मानसिकता के कारण इस काम में ये तत्व लगे हुए हैं। और भारत के पूँजीपति और साम्राज्यवादी ताकतें इनका पूरी तरह से इस्तेमाल कर रही हैं। मेहनतकशों के ऊपर दमन, लूट, शोषण बहुत ज्यादा तीखा कर देने का लक्ष्य लेकर ही पूँजीपति वर्ग इन फासीवादियों की ताक़त बढ़ाने में हर प्रकार की मदद कर रहा है। फासीवादियों की ताक़त और समाज में उसका असर जितना मजबूत होगा, मेहनतकशों के ऊपर दमन, लूट, शोषण और तेज कर देना उतना ही आसान हो जायेगा।

इन ताकतों के ख़िलाफ मज़दूर वर्ग की सजगता, तैयारी, व्यापक गोलबंदी के साथ एकताबद्ध प्रतिरोध ही पूँजीपति वर्ग के इन हमलों से मज़दूरों-मेहनतकशों को बचा सकता है।

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