शताब्दी वर्ष: काकोरी एक्शन अंग्रेजी हुकूमत को करारा ज़वाब और साझी शहादत का बड़ा प्रतीक था

काकोरी एक्शन ने असहयोग वापसी के निराशजनक दौर में व्याप्त राजनीतिक शून्य को भरने तथा देश का ध्यान साम्प्रदायिकता से संग्राम की ओर मोड़ने में बड़ी भूमिका अदा की। -सुधीर विद्यार्थी
रुद्रपुर (उत्तराखंड)। “बिस्मिल और अशफ़ाक़उल्ला का एक साथ फांसी चढ़ना देश की आज़ादी के लिए लड़े गए संग्राम के साथ ही हमारे इतिहास में साझी शहादत का सबसे बड़ा साक्ष्य है। आज काकोरी के घटनाक्रम और उसके क्रांतिकारी नायकों को उनके विचार और लक्ष्य के साथ स्मरण किए जाने की बड़ी जरूरत है। यह कार्यभार देश के सभी प्रगतिशील सांस्कृतिक-राजनीतिक-सामाजिक संगठनों का है।”
उक्त बातें काकोरी एक्शन के शताब्दी वर्ष पर स्थानीय सृजन पुस्तकालय/शिक्षक संघ भवन, प्राथमिक विद्यालय में आयोजित परिचर्चा में देश के क्रांतिकारियों के प्रमुख अध्येता व साहित्यकार श्री सुधीर विदयार्थ जी ने कही। परिचर्चा का विषय था “शताब्दी वर्ष में काकोरी की याद क्यों जरूरी है।”

उन्होंने कहा कि जब इतिहास की स्वर्णिम विरासत को छुपाय जा रहा हो, या गलत ढंग से प्रस्तुत किया जा रहा हो, तब इसके विविध पहलुओं को जानना-समझना बेहद जरूरी है। रविवार को देर शाम तक चली चर्चा उपस्थित लोगों द्वारा उठाए गए सवालों से काफी जीवंत रही।

राजनीतिक शून्य में सशक्त हस्तक्षेप
श्री सुधीर विद्यार्थी ने कहा कि 1921 में असहयोग आंदोलन के तीव्र वेग को गांधी जी ने चौरी-चौरा की हिंसा के बहाने एकाएक रोक दिया था। इससे क्षुब्ध देश के क्रांतिकारियों ने अखिल भारतीय स्तर पर ‘हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ’ (एचआरए) का गठन करके उसका संविधान रचा जो ‘पीला पर्चा’ (एलो लीफलेट) के नाम से मशहूर हुआ। इसमें लिखा था कि वे एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जहां एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण सम्भव नहीं होगा।
उन्होंने कहा कि भारत की आज़ादी के संग्राम में तमाम अविस्मरणीय घटनाओं में 9 अगस्त 1925 का काकोरी एक्शन बेहद अहम है। एचआरए से जुड़े उत्तर भारत के दस क्रांतिकारियों ने लखनऊ के निकट काकोरी और आलमनगर के बीच रेलगाड़ी रोक कर सरकारी खजाना लूट लिया था। काकोरी के इस एक्शन के जरिए क्रांतिकारियों का लक्ष्य ब्रिटिश सरकार को सीधी चुनौती देना था।
इस मिशन के बाद 40 से अधिक क्रांतिकारी गिरफ्तार हुए, 18 महीने मुकदमा चला और रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्ला खां, रोशन सिंह को 19 दिसम्बर, 1927 को क्रमशः गोरखपुर, फै़ज़ाबाद और इलाहाबाद जेलों में जबकि राजेन्द्र लाहिड़ी को अज्ञात कारणों से दो दिन पूर्व 17 दिसम्बर को गोंडा जेल में फांसी दी गई। कुछ अन्य क्रांतिकारियों को लंबी कैद की सजा मिली जिनमें मन्मथनाथ गुप्त प्रमुख थे। चन्द्रशेखर आज़ाद फरार रह कर भी दल को संगठित करने का काम करते रहे।

साम्प्रदायिकता से संग्राम की ओर
उन्होंने बताया कि इस घटना ने असहयोग की निराशजनक असफलता के बाद व्याप्त राजनीतिक शून्य को भरने तथा देश का ध्यान साम्प्रदायिकता से संग्राम की ओर मोड़ने में बड़ी भूमिका अदा की। इस मामले में रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़उल्ला का देश की आज़ादी के लिए एक साथ फांसी पर चढ़ना सामाजिक सद्भाव की बड़ी और प्रेरक मिसाल और सर्वाधिक रोमांचकारी घटना है।
इसने ऐसे साझे संघर्ष और साझी शहादत का दर्जा दे दिया जो पूर्व में दुर्लभ था। ये दोनों क्रांतिकारी भिन्न धार्मिक आस्थाओं के होते हुए देश की आजादी के लिए साझे मार्ग के राही बने। उनके मज़हबी आचार-विचार इस विप्लवी अभियान में कहीं बाधक नहीं बने।


आज़ादी के संग्राम में माँ-बहनों की भूमिका
एक छात्रा द्वारा आज़ादी के आंदोलन में महिलाओं की भूमिका के सवाल के जवाब में विद्यार्थी जी ने की रोचक प्रसंगों की चर्चा की। उन्होंने झांसी की रानी, उदय देवी से लेकर क्रांतिकारी दुर्गा भाभी, लक्ष्मी सहगल के संघर्षों की याद दिलाते हुए कहा कि तमाम क्रांतिकारियों की माताएं व बहनें प्रत्यक्ष मैदान में न रहकर भी शानदार भूमिका निभाई। उन्होंने बताया कि कैसे बिस्मिल को क्रांतिकारी बनाने और हौसला देने में माँ की शानदार भूमिका रही।
एक अन्य सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि आज क्रांतिकारियों की विरासत को दूषित करने का प्रयास हो रहा है। भगत सिंह को पगड़ी पहनाई जा रही है, क्रांतिकारी से सरदार बनाया जा रहा है। गया प्रसाद जैसे क्रांतिकारियों को जाति के खेमे में बांधा जा रहा है। क्रांतिकारियों की समाधि स्थल के पास खाली जमीन पर जैसे भांग का पौधा उग रहा है, वैसे ही लोगों के खाली दिमाग में खर-पतवार उग रहे हैं।


साम्प्रदायिक संगठन को शहीदों को याद करने का हक़ नहीं
उन्होंने याद दिलाया कि कैसे तीन वर्ष पहले चौरी-चौरा की शताब्दी में उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने बहुत योजनाबद्ध ढंग से चौरी-चौरा के घटनाक्रम को याद किया था जबकि असहयोग आन्दोलन का नाम लेना भी उचित नहीं समझा। इसी तरह भाजपा सरकार ने 9 अगस्त, 1942 में ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का स्मरण न कर काकोरी की क्रांतिकारी घटना को मनाने का परिपत्र जारी किया है। ऐसा करना सरकार और भाजपा की ओर से देश के क्रांतिकारी नायकों का अपहरण है।
उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि किसी भी साम्प्रदायिक संगठन को इन शहीदों को याद करने का हक नहीं है जो उनकी क्रांतिकारी और सद्भाव की विरासत को नष्ट करने की हर रोज कुचेष्टा कर रहे हों। यह शहीदों को याद करने का उसका निरा ढोंग है और ऐसा करके वह क्रांतिकारी संग्राम की वैचारिक चेतना को पीछे ले जाने और उसे समाप्त करने की षड्यन्त्र में लिप्त दिखाई देती है।


तमाम साथियों की जीवंत भागीदारी
कार्यक्रम में प्राथमिक शिक्षक संघ के अध्यक्ष हुकुम सिंह नयाल, सृजन पुस्तकालय की उषा टम्टा, प्रोफेसर भूपेश कुमार सिंह, डॉक्टर शंभू पांडे शैलेय, डॉक्टर आरपी सिंह, कमला बिष्ट, सीएसटीयू के विजय कुमार, आईएमके के दिनेश, सीपीआई एमएल के ललित मटियाली, ललित मोहन जोशी, रॉकेट ऋद्धि सिद्धि कर्मचारी संघ के धीरज जोशी, कारोलिया लाइटिंग इंप्लाइज यूनियन के हरेंद्र सिंह, बीएमएस के गणेश मेहरा, एलजीबी वर्कर्स यूनियन के बालम सिंह, नेस्ले कर्मचारी संगठन के संजय सिंह नेगी, ललित सती, पद्यलोचन विश्वास, महेंद्र सिंह, एएलपी यूनियन से साधन सरकार, मोहम्मद साकिब, अनवर खान, नीरज, दिव्यांश सिंह, सिमरन, डीएन पांडे, अमर सिंह, शकुंतला, नाहिद राजा, सुमित, सुखदेवी, प्रियंका, प्रीति यादव, मोनिस अली, शकुंतला मौर्य, फाज़िल मलिक आदि ने परिचर्चा में जीवंत भागीदारी निभाई।

कार्यक्रम का संचालन सीएसटीयू के मुकुल ने किया, जबकि धन्यवाद ज्ञापन द बुक ट्री के नवीन चिलाना ने किया। इस दौरान ‘द बुक ट्री’ की ओर से पुस्तक प्रदर्शनी भी लगाई गई थी।

‘अमर शहीदों का पैगाम, जारी रखना है संग्राम!’ के आह्वान और सांप्रदायिक-फासीवादी हमलों के इस दौर में साझी शहादत की साझी विरासत को आगे बढ़ाने के संकल्प के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ।