सांस्कृतिक समागम : वर्चस्व के खिलाफ प्रतिरोध का सशक्त सांस्कृतिक माध्यम विकसित करना होगा!

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एक ऐसे चुनौतीपूर्ण दौर में जब वर्चस्वकारी संस्कृति मजबूत है और पूरे समाज में अपसंस्कृत का घटाटोप छाया हुआ है, प्रतिरोध की संस्कृति को नया आयाम देने के लिए तीन संगठनों ने साझा तौर पर दो दिवसीय सांस्कृतिक समागम का आयोजन किया और प्रतिरोध की संस्कृति पर व्यापक चर्चा विमर्श किया।

मौका था मंटो के जन्म दिवस का और धरती थी प्रसिद्ध कवि शमशेर बहादुर सिंह के गांव एलम की जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली जिले में स्थित है। सांस्कृतिक समागम के आयोजक थे प्रगतिशील सांस्कृतिक मंच, अभिव्यक्ति सांस्कृतिक मंच और नवयुग सांस्कृतिक अभियान।

10 और 11 मई 2025 को आयोजित इस सांस्कृतिक समागम की शुरुआत में भारत-पाक विभाजन के दर्द को समेटने वाले महान लेखक सआदत हसन मंटो पर बहुविध चर्चा हुई। इसके बाद प्रतिरोध की संस्कृति पर गंभीर और विशद चर्चा की गई तथा आज के दौर में प्रतिरोध के लिए सांस्कृतिक मोर्चे के कार्यभार व जिम्मेदारियां को रेखांकित किया गया।

बंटवारे के दर्द के संवेदनात्मक व मानवीय पहलू की बेहतरीन प्रस्तोता थे मंटो!

10 मई को पहले सत्र की शुरुआत मुक्तिबोध की प्रसिद्ध रचना कवि किसके हो तथा शमशेर बहादुर सिंह की प्रसिद्ध रचना की संगीतमय प्रस्तुति के साथ हुई।

मंटो पर चर्चा की शुरुआत करते हुए मुख्य वक्ता के तौर पर नवयुग सांस्कृतिक अभियान की ओर से साथी दिगंबर ने कहा कि मंटो भारतीय उपमहाद्वीप के महान उर्दू कहानीकार थे। उनकी कहानियां भारत-पाक विभाजन के दंश का प्रामाणिक दस्तावेज हैं। मंटो का पूरा जीवन विविधतापूर्ण था उनकी कहानियों में मानवीय संवेदना बहुत गहराई में उभर कर सामने आती हैं।

उन्होंने कहा कि मंटो की जीवन यात्रा उनकी कहानियों की तरह ही बड़ी ही विचित्रता से भरी हुई है। एक ऐसा शख्स जो जालियांवाला बाग कांड से उद्वेलित होकर पहली बार अपनी कहानी लिखने बैठता है वो औरत-मर्द के रिश्तों की उन परतों को उघाड़ने लगता है जहाँ से पूरा समाज ही नंगा दिखने लगता है।

उन्होंने मंटो की ज़िंदगी के तमाम उतर-चढ़ाव की चर्चा करते हुए कहा कि उनके ऊपर अश्लील लेखन सहित कई आरोप लगे। दरहक़ीक़ात उनकी किसी भी कहानी में अश्लीलता नहीं है। मंटो ने खुद कहा था- मैं तहज़ीब, तमद्दुन, और सोसाइटी की चोली क्या उतारुंगा, जो है ही नंगी। मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश भी नहीं करता, क्योंकि यह मेरा काम नहीं, दर्ज़ियों का काम है।

उनपर लगे 6 मुक़दमों के खिला़फ हर बार अपील हुई, गवाईयां हुई, अश्लीलता की परिभाषा और कहानी के तीखेपन पर तकरार हुई और फ़िर मंटो के खिलाफ मुक़दमें खारिज किए गए।

उन्होंने कहा कि यह बड़ा ही दुखद रहा है कि एक वक्त में मंटो के तमाम मित्र सहयोगियों ने उन्हें प्रगतिशील धारा से बहिष्कृत भी किया। उन्होंने मंटो के फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लिखने और उसमें भी समझौता न करने का दास्तान बताते हुए कहा कि एक दिन अपने एक दोस्त के जुबान-ए-खंजर से घायल होकर वह भी करांची जाने वाले आखरी जहाज में बैठ गए।

दिगम्बर ने कहा कि उनके लिए मजहब से ज्यादा कीमत इंसानियत की थी। मौजूदा दौर में मंटो शायद भारत या पाकिस्तान के किसी जेल में देशद्रोह और साजिश के आरोप में कैद होकर अपनी जमानत की अर्जीयां लिख रहा होता। उन्होंने अपनी बात खत्म करते हुए मंटो की बात दुहराई- “मेरे अफ़साने नहीं, ज़माना नाक़ाबिले बर्दाश्त है”।

साथी दिगंबर के सारगर्भित वक्तव्य के बाद प्रगतिशील सांस्कृतिक मंच द्वारा ‘तय करो किसी और हो तुम’ गीत प्रस्तुत किया गया।

चर्चा आगे बढ़ाते हुए प्रगतिशील सांस्कृतिक मंच की ओर से साथी फैज़ल ने मंटो की कहानियों के विविध आयामों को रखा। उन्होंने कहा कि बंटवारे के दर्द को बेहद गहराई से समझने, उसके संवेदनात्मक व मानवीय पहलू को बेहतरीन रूप से प्रस्तुत करने का नाम है मंटो! मानवीय त्रासदी उनकी रचनाओं में बेहद शिद्दत से उपस्थित हुआ है, इसीलिए वे दोनों देशों में आज भी लोकप्रिय हैं।

उन्होंने कहा कि बंटवारे के वक्त जो हिंसा हुई उसने कई लोगों को सोचने समझने लायक नहीं छोड़ा। मगर उसी वक़्त मंटो ने विभाजन के इस दर्दनाक हादसे की दास्तां ठंडा गोस्त, खोल दो, बू, टोबा टेक सिंह, सियाह हाशिए, काली सलवार, नंगी आवाज़ें जैसी अपनी रचनाओं में दर्ज की। नया कानून और लाइसेंस जैसी बेजोड़ कहानियाँ उनकी विविध रचना की गवाह हैं। मंटो की इन रचनाओं में आदमी और औरत के बीच मौजूद हर रिश्ते की आजमाइश हुई है।

उसके बाद अभिव्यक्ति सांस्कृतिक मंच की दार्जिलिंग से आई हुई टीम ने नेपाली गीत ‘गांव-गांव बाटा उठो’ प्रस्तुत किया।

अभिव्यक्ति सांस्कृतिक मंच की ओर से साथी समिक ने बंगाल विभाजन, उसके दर्द और पश्चिम बंगाल के समाज में विभाजन की तस्वीर का चित्रण किया, विभाजन पर बांग्ला साहित्य की चर्चा की और उसके साथ मंटों की रचनाओं का समायोजन किया।

समिक ने बताया कि भारत पाक विभाजन की एक भयावह स्थिति का गवाह पश्चिम बंगाल भी रहा है, लेकिन मंटों की कहानियों को पढ़ने के बाद इस बात का एहसास पहली बार हुआ की पूर्वी क्षेत्र की विभाजन से ज्यादा बड़ी त्रासद स्थिति भारत के पश्चिमी हिस्से में विभाजन की त्रासदी रही है।

उन्होंने यह भी कहा कि बंगाली जीवन में देश जैसे गहरे घाव के निशान लेकर रह गया है, ठीक वैसा ना हो लेकिन नेपाल के साथ बिछोह का एक इतिहास छिपा है जो 1815 की सुगौली संधि के भीतर मौजूद है। इस बहाने उन्होंने दार्जिलिंग-हिल्स-तराई-डुअर्स में रहने वाले नेपाली भाषी और संस्कृत के साथियों की दुख-पीड़ा को भी साझा किया।

साथी छेवाङ ने मंटो की विविध कहानियों पर चर्चा करते हुए बताया कि मंटो की चुनिंदा कहानियों का नेपाली में अनुवाद करके जल्द ही वह ‘लाली गुरास’ की ओर से संकलन प्रकाशित करेंगे। उन्होंने विभिन्न कहानियों का उल्लेख करते हुए विशेष रूप से उनकी कहानी आखरी सैल्यूट की चर्चा की।

उन्होंने ‘टोबा टेक सिंह’ कहानी के हवाले से कहा कि मंटो की कहानियों में जो साइक्लोजिकल ट्रीटमेंट मिलता है उससे जाहिर होता है कि पूरी दुनिया पागलखाना है। यह रेखांकित किया कि एक आम नागरिक के लिए विभाजन का कोई औचित्य नहीं रह गया था उसके लिए पूरी धरती उसकी अपनी है।

सामाजिक परिवर्तन का अहम हथियार है प्रतिरोध की संस्कृति

आयोजन का दूसरा सत्र प्रतिरोध की संस्कृति और उससे निकलने वाले व्यापक कार्यभार की चर्चा पर केंद्रित थी। शुरुआत में नवयुग सांस्कृतिक अभियान की टीम द्वारा ‘जाग मछन्दर’ गीत प्रस्तुत हुआ।

चर्चा की शुरुआत में प्रगतिशील सांस्कृतिक मंच की ओर से साथी महेंद्र ने अपना वक्तव्य रखा। उसके पश्चात नवयुग संस्कृत अभियान की ओर से साथी प्रवीण ने अपना लिखित पर्चा प्रस्तुत किया और फिर अभिव्यक्ति सांस्कृतिक मंच की ओर से साथी मुकुल ने अपना परिपत्र प्रस्तुत करते हुए बात रखी।

परिचर्चा का मूल बिंदु सांस्कृतिक मोर्चे के परिप्रेक्ष्य, अहमियत और वैकल्पिक सांस्कृतिक दिशा के प्रश्न पर समझदारी साझा व विकसित करने, तथा न्यूनतम सहमति के आधार पर संयुक्त सांस्कृतिक कार्रवाई की ओर बढ़ने की आधारपीठिका के रूप में रहा।

प्रभुत्व, उत्पीड़न या अन्याय के खिलाफ खड़ा करता है प्रतिरोध की संस्कृति

इस दौरान वक्ताओं ने कहा कि मानवता का इतिहास जितना पुराना है, प्रतिरोध की संस्कृति भी उतनी ही पुरानी है। इतिहास केवल वर्चस्व व दमन का ही नहीं, बल्कि प्रतिरोध का भी जीवंत दस्तावेज है। इसकी गवाह भारत सहित पूरी दुनिया के विकास क्रम में स्पष्ट रूप से दर्ज है।

वक्ताओं ने बताया कि किसी सामाजिक आर्थिक व्यवस्था के अनुरूप ही उसकी संस्कृति का निश्चित रूप और खास स्तर तय होता है। किसी एक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के दूसरी उन्नत व्यवस्था में संक्रमण के साथ बदलती संस्कृति में जो कुछ मूल्यवान होता है वह अगली पीढ़ी की विरासत का हिस्सा बन जाता है।

वक्ताओं ने कहा कि प्रतिरोध की संस्कृति को उन सभी कार्यों, विचारों और आंदोलनों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो प्रभुत्व, उत्पीड़न या अन्याय के खिलाफ खड़े होते हैं। यह व्यक्तिगत स्तर पर छोटे-छोटे विरोध से लेकर सामूहिक स्तर पर बड़े क्रांतिकारी आंदोलनों तक हो सकता है। प्रतिरोध साहित्य, कला, संगीत, शिक्षा, और सामाजिक प्रथाओं द्वारा भी व्यक्त होता है।

वर्चस्व के खिलाफ विकसित होती रही है प्रतिरोध की संस्कृति

विभिन्न वक्ताओं ने प्राचीन काल से भारत और दुनिया के विभिन्न देशों का उदाहरण देकर बताया कि हर दौर में कैसे शासक वर्ग के वर्चस्व के खिलाफ प्रतिरोध की संस्कृति विकसित होती रही है। भारत के संदर्भ में प्राचीन काल में चार्वाक से लेकर बुद्ध तक ब्राहमणवादी वर्चस्व को चुनौती मिली।

मध्य काल में यूरोप में पुनर्जागरण व प्रबोधन काल में प्रतिरोध की संस्कृति बहुविध आयाम लेकर उभरी, जिसका फलक काफी विस्तारित था। तो भारत में भक्ति आंदोलन ने भारतीय समाज में सांस्कृतिक और धार्मिक वर्चस्व; रूढ़ियों और जात-पात के खिलाफ प्रतिरोध की संस्कृति विकसित होती रही है।

पूंजीवादी विकास : वर्चस्व और प्रतिरोध

वक्ताओं ने कहा कि पूँजीवाद के विकास के साथ शासक वर्ग का वर्चस्व नए अस्त्र-शस्त्र के साथ विकसित हुआ। उसी के साथ प्रतिरोध की संस्कृति भी नए रूप में आगे बढ़ी। फ्रांसीसी क्रांति ने प्रतिरोध की संस्कृति को नया आयाम दिया। उपनिवेश विरोधी संघर्षों के दौरान प्रतिरोध के विविध स्वर फूटे।

1917 की रूसी क्रांति ने समाजवादी साहित्य-कला को प्रेरित किया और प्रतिरोध की संस्कृति का फलक काफी व्यापक हो गया। 19वीं सदी में फासीवाद के खिलाफ भी प्रतिरोध के नए स्वर फूटे।

उपनिवेशवादी संघर्ष के दौरान भारत में विभिन्न प्रयोगों के साथ प्रगतिशील लेखक संघ और इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोशिएसन (इप्टा) का गठन एक महत्वपूर्ण मुकाम था।

नव-उदारवादी दौर में वर्चस्व और प्रतिरोध

वक्ताओं ने कहा कि 21वीं सदी में, नव-उदारवादी पूंजीवाद ने वैश्विक स्तर पर सांस्कृतिक वर्चस्व को और मजबूत किया है। इसके जवाब में, समकालीन कला, साहित्य और संस्कृति ने प्रतिरोध के कुछ नए रूप अपनाए हैं, हालांकि वे छोटे स्तर पर हैं, जिनकी तमाम सीमाएं भी हैं।

भारत में जनविरोधी नव उदारवादी नीतियाँ लागू होने के साथ संकट गहराता गया, ज़िंदगी बेहाल होती गई और मंदिर-मस्जिद, कश्मीर-पाकिस्तान-चीन, धर्मांतरण, गोरक्षा, धर्म-राष्ट्रीयता आदि के शोर में निजीकरण-छंटनी-बंदी, विकराल रूप लेती बेरोजगारी, भयावह महँगाई जैसे असल मुद्दे गायब होते गए। 2014 में मोदी सरकार का आगमन इसी कड़ी का सबसे बदसूरत नमूना है।

फासीवादी वर्चस्व और प्रतिरोध की सीमा

वक्ताओं ने कहा कि वर्तमान समय में फासीवादी ताकतों ने देश-समाज के राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक हर मोर्चे पर वर्चस्व कायम किया और जन-मानस की चेतना में गहरी पैठ बनाई। जिसके चलते राष्ट्रवाद के नाम पर देश के भगवाकरण और विकास के नाम पर पूँजी की लूट की खुली छूट की राह आसान हुई। कथित हिन्दू धर्म आधारित फ़ासीवाद और कॉरपोरेट फ़ासीवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आज जनविरोधी दोनों संस्कृति ने गलबहियाँ कर लीं हैं।

वर्तमान डिजिटल युग में, सोशल मीडिया, स्वतंत्र फिल्में और ऑनलाइन साहित्य ने प्रतिरोध की संस्कृति को नए मंच प्रदान किए हैं। लेकिन ये डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म वर्चस्ववादी शक्तियों द्वारा नियंत्रित हैं और ऐसे कई उदाहरण हैं जो एक सीमा से ज्यादा प्रतिरोधी स्वर को प्रतिबंधित करती हैं। मोदी सरकार के दौर में इसे बहुत ही खुले तौर पर देखा जा सकता है।

चुनौतियों के बीच प्रतिरोध की नई संस्कृति विकसित करना होगा

वक्ताओं ने कहा कि प्राचीन काल से लेकर समकालीन युग तक, संस्कृतिकर्मियों, लेखकों और कलाकारों ने शासक वर्ग के सांस्कृतिक वर्चस्व को चुनौती दी है और इसके खिलाफ वैकल्पिक प्रतिरोध की संस्कृति को समृद्ध किया है। लेकिन हर दौर की परिस्थिति और चुनौतियाँ अलग रही हैं, और उस अनुरूप प्रतिरोध की संस्कृति भी विकसित होती रही है।

भारत में फासीवाद के नए दौर में नए गीत, नई संगीत, नए किस्म के प्रयोगधर्मी नाटक रचने और प्रस्तुत करने की जरूरत है। विभिन्न तरीके से शासक वर्ग की प्रतिगामी संस्कृति का भण्डाफोड़ करते हुए विभिन्न सांस्कृतिक माध्यमों से प्रतिरोध की संस्कृति को और प्रभावी बनाना होगा, जो मेहनतकश वर्ग में परिवर्तन की उम्मीद जगा सके, नफ़रत की जगह भाईचारा मजबूत कर सके, सामूहिकता की संस्कृति दे और एक बेहतर, शोषणविहीन समाज बनाने के संघर्ष के लिए प्रेरित करे।

वक्ताओं ने उम्मीद जगाई कि मानव समाज को उन्नत अवस्था में ले जाने की जद्दोजहद में लगे संस्कृतकर्मियों के एक हिस्से का यह समागम एक नई रौशनी देगा, एक-दूसरे से सीखने-समझने का मौका मिलेगा और आज के दौर की चुनौतियों के हिसाब से प्रतिरोध की संस्कृति के नए अस्त्र-शास्त्र गढ़ने की दिशा में हम और आगे बढ़ेंगे।

उम्मीद की नई किरण

अंत में अध्यक्ष मंडल की ओर से साथी आशु वर्मा ने दोनों चर्चाओं का समाहार करते हुए अपनी बातें रखीं। उन्होंने 80 के दशक की शुरुआत में राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चे के गठन का उल्लेख किया और कहा कि एक लंबे समय के बाद आज फिर तीन संगठन मिलकर प्रतिरोध की संस्कृति पर चर्चा और साझा तौर पर सांस्कृतिक समागम कर रहे हैं।

आज के समय में जब बर्चस्व की संस्कृति हमलावर है तब तीन संगठनों की ओर से यह पहल नई उम्मीद की किरण बनेगा जो सामाजिक परिवर्तन और एक शोषण मुक्त समाज की निर्माण के लिए जारी सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई में एक अहम भूमिका निर्वाह करने की दिशा में आगे बढ़ेगा।

उन्होंने कहा कि यह आयोजक संगठनों, उपस्थित विभिन्न संगठनों के कार्यकर्ताओं और दर्शकों-श्रोताओं के लिए उत्साहवर्धक है। साथ ही यह देश के विभिन्न हिस्सों में कार्यरत परिवर्तनकारी संस्कृति कर्मियों और संगठनों के लिए साझा आवाज़ विकसित करने में भी भूमिका निभाएगा।

परिचर्चा के दोनों सत्रों के अध्यक्ष मंडल में प्रगतिशील सांस्कृतिक मंच की ओर से साथी बिंदु गुप्ता, अभिव्यक्त सांस्कृतिक मंच की ओर से साथी मुकुल और नवयुग सांस्कृतिक अभियान की ओर से साथी आशु वर्मा शामिल थे की संचालन साथी विक्रम ने किया।

परिचर्चा के दौरान बीच-बीच में नेपाली भाषा में ‘ये मेरो रात रुमाल’, बांग्ला में ‘बाँचबो बाँचबो रे आमरा’ गीत प्रस्तुत हुए। अंत में ‘वो सुबह कभी तो आएगी’ गीत के साथ संगोष्ठी सत्र समाप्त हुआ।

परिचर्चा के बाद डेढ़ दिन तक देश के विभिन्न हिस्सों से आई टोलियों द्वारा नाटक, नृत्य नाटिका, गीत, रगिणी आदि के माध्यम से विविध सांस्कृतिक प्रस्तुतियाँ हुईं। जिसमें अलग-अलग भाषाई और कलात्मकता का समवेश था।

सांस्कृतिक प्रस्तुतियों की झलक अगली रिपोर्ट सांस्कृतिक समागम-2 में प्रस्तुत होगी।

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