गोंडा रेल दुर्घटना: तमाम दावों के बीच क्यों बढ़ रही हैं रेल दुर्घटनाएं?

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उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में गुरुवार (18 जुलाई) की दोपहर चंडीगढ़-डिब्रूगढ़ एक्सप्रेस ट्रेन के आठ डिब्बे पटरी से उतर जाने के कारण कम से कम 3-4 लोगों की मौत हो गई है, कम से कम 32 अन्य लोग घायल हो गए हैं, जिनमें एक महिला समेत छह लोगों की हालत गंभीर बताई जा रही थी।

रिपोर्ट के मुताबिक, चंडीगढ़ से असम जाने वाली चंडीगढ़-डिब्रूगढ़ एक्सप्रेस ट्रेन के डिब्बे गोंडा शहर से 30 किलोमीटर दूर झिलाही और मोतीगंज रेलवे स्टेशनों के बीच पटरी से उतर गए।

सबसे सुरक्षित यात्रा माने जाने वाले भारतीय रेलवे लगातार असुरक्षित सफर का सबब बनता जा रहा है। पिछले एक साल के केवल आंकड़ों को उठाकर देखें तो ट्रेन हादसों में सैकड़ों यात्री अपनी जान गंवा चुके हैं।

यह भी एक सच है कि दुर्घटना के बाद लाशों का ढेर इकठ्ठा किया जाता है। तमाम घायल ज़िन्दा लोगों को भी इसी ढेर में फेंक दिया जाता है, मृतकों की संख्या छिपा दी जाती है। वास्तविक मृतकों की संख्या पता नहीं चलती। समय पर पहुँच गये परिजन लाशों के ढेर से अपने परिवार के लोगों को जींद या मृत निकाल रहे होते हैं। तब तक और घटना सामने आ जाती है।

ऐसे में यूपी के गोंडा में चंडीगढ़-डिब्रूगढ़ एक्सप्रेस ट्रेन हादसा ने एक बार फिर कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सरकारी तंत्र की असंवेदनशीलता फिर सामने आई है।

उड़ीसा के बालासोर में 2 जून को हुई पिछले दो दशकों में सबसे बड़ी रेल दुर्घटना से लेकर छोटी-बड़ी दुर्घटनाएँ बार-बार होती रहती हैं। यह सवाल बार-बार पैदा होता है कि ये दुर्घटनाएँ रेल कर्मचरियों की लापरवाही से होती हैं या इनकी वजह कुछ और ही है?

बीते एक साल की कुछ प्रमुख रेल दुर्घटनाएं-

  • चंडीगढ़-डिब्रूगढ़ एक्सप्रेस ट्रेन गुरुवार को गोंडा में डिरेल हो गई। इस हादसा में चार लोगों की मौत हो गई है जबकि दो दर्जन से अधिक लोग घायल हैं। हादसा में चार एसी बोगियां ही पलट गई।
  • इस ट्रेन हादसा के पहले 17 जून 2024 को सियालदह-अगरतला कंचनजंगा एक्सप्रेस ट्रेन, वेस्ट बंगाल के रंगपानी रेलवे स्टेशन के पास दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी। मालगाड़ी से एक्सप्रेस ट्रेन के टकराने से दस लोगों की मौत हो गई थी और 30 से अधिक पैसेंजर्स घायल हो गए थे।
  • आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम-पलासा और विशाखापट्टनम-रायगढ़ ट्रेनों के बीच टक्कर में 11 पैसेंजर्स ने जान गंवा दी थी। रेलवे ने बताया कि ह्यूमन एरर और सिग्नल फेल होने से यह हादसा हुआ था।
  • 2 जून 2023 को बालेश्वर या बालासोर हादसा कौन भूलेगा। कोरोमंडल एक्सप्रेस एक मालगाड़ी से टकरा गई इसके बाद एक और सुपरफास्ट ट्रेन उससे टकरा गई। इस हादसा ने देश के जनमानस केा हिला दिया था। तीन ट्रेनों की टक्कर में 300 से अधिक पैसेंजर्स असमय मौत के शिकार बन गए।

जनता की रेल दुर्दशा में, बंदे भारत का जलवा; निजीकरण की ओर रेलवे

मोदी सरकार के दौर में रेलवे का निजीकरण तेजी से बढ़ रहा है। इसी के साथ आमजन की रेल दुर्दशा की ओर है और मोदी सरकार का पूरा जोर बेहद महंगे, अमीरजड़ों को समर्पित ‘बंदे भारत’ जैसी ट्रेनों की बहार आ गई है।

भारतीय रेलवे की सच्चाई यह है कि बंदे भारत, शताब्दी और राजधानी जैसी कुछ प्रीमियम ट्रेनों में एलएचबी बोगियाँ (जो जल्दी पलटती नहीं है या पलट भी जाए तो पिचकती नहीं है) इस्तेमाल की जा रही हैं, वहीं स्लीपर व जनरल, जिसमें आम आबादी सफ़र करती है की बोगियाँ आईसीएफ (कमज़ोर व पिछड़ी तकनीक) की हैं। यही नहीं, लगातार स्लीपर बोगियों को घटाकर एसी कोच बढ़ाए जा रहे हैं।

कैग की ही रिपोर्ट में कहा गया है कि मौजूदा मानदण्डों का उल्लंघन करते हुए 27,763 कोचों (62 प्रतिशत) में आग बुझाने के यन्त्र उपलब्ध नहीं कराए गये थे। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ट्रैक नवीनीकरण के लिए धन का कुल आवण्टन घट रहा है। ऑडिट रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि ट्रैक रखरखाव और उन्नयन कार्यों के लिए धन का आवण्टन 2018-19 में 9,607.65 करोड़ रुपये से घटकर 2019-20 में 7,417 करोड़ रुपये हो गया था।

“कवच” प्रणाली कहाँ है?

मोदी सरकार ट्रेन दुर्घटनाओं को रोकने के लिए ‘कवच प्रणाली’ का शोर मचाया है। फिर भी हादसे हो रहे हैं! यह माजरा क्या है?

2011-12 में आरडीएसओ द्वारा विकसित ट्रेन टक्कर बचाव प्रणाली को ‘कवच’ का नाम दिया गया। यह एक तरह की डिवाइस है जो ट्रेन के इंजन के अलावा रेलवे रूट पर भी लगाई जाती है। इससे दो ट्रेनों के एक ही ट्रैक पर एक-दूसरे के क़रीब आने पर ट्रेन सिग्नल, इण्डिकेटर और अलार्म के ज़रिए ट्रेन के पायलट को इसकी सूचना मिल जाती है। इसके साथ ही फाटकों पर आटो सीटी बजाना या किसी जोख़िम के मामले में अन्य ट्रेनों को कण्ट्रोल या सावधान करने के लिए आटो-मेनुअल SOS सिस्टम को तत्काल एक्टिव करना भी शामिल है। जिससे ट्रेनों का संचालन आसपास रोक दिया जाए।

‘कवच सिस्टम’ घने कोहरे, बारिश या ख़राब हुए मौसम के दौरान ट्रेन की सुरक्षा सुनिश्चित करता है। यदि लोको पायलट ब्रेक लगाने में विफल रहता है तो भी यह सिस्टम स्वचालित रूप से ब्रेक लगाकर ट्रेन की स्पीड को नियन्त्रित करती है। इसका सफल परीक्षण मार्च 2022 में किया गया और दावा किया गया था कि आत्मनिर्भर भारत के एक हिस्से के रूप में, 2022-23 में सुरक्षा और क्षमता वृद्धि के लिए 2,000 किलोमीटर नेटवर्क को कवच के तहत लाया जायेगा।

लेकिन तमाम जुमलों की तरह यह भी सरकार की कोरी लफ़्फ़ाज़ी ही साबित हुई।

नौकरियों में कटौती, मुनाफाखोरों के हवाले तंत्र

बढ़ती रेल दुर्घटनाओं का एक प्रमुख कारण ट्रेनों के विशाल नेटवर्क को संचालित करने के लिए कर्मचरियों की कमी है। वास्तव में, नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के बाद के 34 वर्षों में और ख़ास तौर पर मोदी सरकार के पिछले 10 वर्षों में, रेलवे में नौकरियां घटाई जा रही हैं, जो नौकरियाँ हैं उनका ठेकाकरण किया जा रहा है। नतीजतन, ड्राइवरों समेत सभी रेल कर्मचारियों पर काम का भयंकर बोझ है। कई बार ड्राइवरों को बिना शौचालय विराम के 10-10 घण्‍टे तक ट्रेन चलाना पड़ता है।

यह गौरतलब है कि रेलवे में तमाम पदों को समाप्त करने के बावजूद काफी जगहें खाली हैं। रिपोर्ट के अनुसार 2015 से 2022 के बीच ग्रुप सी व डी के 72,000 पदों को रेलवे ने समाप्‍त कर दिया। इन्‍हीं श्रेणियों में इस समय रेलवे में क़रीब 3 लाख पद ख़ाली हैं।

यानी, एक ओर रेलवे का नेटवर्क विस्‍तारित किया गया है, ट्रेनों व स्‍टेशनों की संख्‍या बढ़ी है, वहीं दूसरी ओर रेलवे में कर्मचारियों की संख्‍या को लगातार कम करके मोदी सरकार मौजूदा कर्मचारियों पर काम के बोझ को भयंकर तरीक़े से बढ़ा रही है। ठेकाकरण कर निजी कम्‍पनियों को मुनाफ़ा कूटने की आज़ादी दी जा रही है और रेलवे कर्मचारियों पर बोझ को बढ़ाया जा रहा है। ऐसे में, दुर्घटनाओं और त्रासदियों की संख्‍या में बढ़ोत्‍तरी को सहज ही समझा जा सकता है।

स्पष्ट है कि यह मोदी सरकार की पूँजीपरस्‍त और लुटेरी नीतियों का परिणाम है। इस बात को हमें समझना होगा क्‍योंकि सरकारें ऐसी त्रासदियों की ज़िम्मेदारी भी जनता पर डाल देती हैं और अपने आपको कठघरे से बाहर कर देती हैं।