काकोरी एक्शन के 100 साल: काकोरी की स्मृतियां

Kakori_kee_smritiyan

[भारत की आज़ादी के संग्राम में ‘काकोरी एक्शन’ इतिहास की स्वर्णिम विरासत है। 9 अगस्त, 1925 की इस इंक़लाबी कार्रवाई का यह सौवां साल है। इतिहास की बेमिसाल घटनाओं में शामिल काकोरी एक्शन के विविध पहलुओं से परिचित होने के लिए काकोरी शहादत दिवस (राजेन्द्र लाहिड़ी 17 दिसंबर तथा राम प्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्ला खां, रोशन सिंह 19 दिसंबर) पर भारत के क्रांतिकारियों के प्रमुख अध्येता श्री सुधीर विदयार्थ जी का एक प्रमुख लेख ‘शताब्दी वर्ष में काकोरी की याद क्यों जरूरी है’ हम प्रकाशित कर चुके हैं। अब उनका यह दूसरा लेख ‘काकोरी की स्मृतियां’ मेहनतकश साथियों के सामने है। यह लेख सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा शहीदों की बेक़द्री का दर्पण भी है। -संपादक]

काकोरी की स्मृतियां

  • सुधीर विद्यार्थी

19 दिसम्बर, 1927 को उत्तर प्रदेश के जिस नगर गोरखपुर में रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी दी गई थी, वहां उनकी स्मृति में आयोजित एक बैठक की खबर दो-तीन दिन पुरानी हो जाने के कारण उस शहर के एक दैनिक ने छापने से इन्कार कर दिया था। क्या यह कोई सनसनीखेज समाचार है जो कुछ विलम्ब से छपने पर अपना आकर्षण खो देगा।

परंतु इसका उत्तर उन पत्रकारों के पास नहीं है जो बलात्कार के बाद हत्या की जाने वाली औरत के क्षत-विक्षत शरीर की तस्वीर को महज प्रदर्शन के लिए छाप रहे हैं। उस वातावरण या अपराधियों के प्रति उनके मन में कोई घृणा नहीं होती और न ही उस स्त्री या उसके परिवार वालों के लिए कोई सहानुभूति ही, जिसमें आये दिन ऐसी घटनाएं हो रही हैं।

यह जो शहीदों और क्रांतिकारियों तथा उनके सिद्धान्तों को समाज इतनी जल्दी भूलता जा रहा है, उसमें दोष लेखकों और पत्रकारों का भी है। यही कारण है कि गोरखपुर विश्वविद्यालय के कुछ छात्र जब रामप्रसाद बिस्मिल के नाम पर एक छात्रावास के नामकरण की मांग करते हैं तो वहां के अधिकारी पूछते हैं कि ‘ये बिस्मिल कौन थे और क्या करते थे?’ मन ग्लानि से भर जाता है कि क्या वे बलिदान व्यर्थ चले गए।

बस्ती ज़िले के एक भाई ने इस पर बड़े ही खेदपूर्ण शब्दों में कहा था कि बिस्मिल के नाम पर कुछ करने की चाह लिए रहने वाले कुछ छात्र संगठन तथा नेता गोरखपुर विश्वविद्यालय के उस बौद्धिक दिवालियेपन का क्या करें, जहां ‘बिस्मिल कौन थे?’ का स्पष्टीकरण नहीं हो सका। सीनेट ने तब पास करा दिया कि अमुक छात्रावास का नाम बिस्मिल के नाम पर रखा जाए परंतु विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने यह टिप्पणी लगा ही दी कि बिस्मिल के बारे में पूरा विवरण भेजा जाए।

यह रहस्य फिर भी बना रहा कि कुलपति कार्यालय बिस्मिल को जानता था या नहीं। मैंने यह भी सुना था कि एक बार कुछ लोग गोरखपुर के एक ज़िलाधिकारी को काकोरी शहीद दिवस पर आमंत्रित करने गए तो ज़िलाधिकारी हैरत में पड़ गए और जब नहीं रहा गया तो पूछ ही बैठे, ‘कौन हैं ये बिस्मिल?’

गोरखपुर में ही राप्ती के तट पर जहां बिस्मिल का दाह संस्कार किया गया था, वहां उनकी समाधि नहीं बन सकी। गोरखपुर जेल के फांसीघर की कोठरी के दरवाजे पर अब बिस्मिल का नाम अंकित कर दिया गया है और बाहर एक पत्थर भी।

बिस्मिल के शहर शाहजहांपुर में उनके जन्मस्थान वाले घर का किसी को अता-पता नहीं। 1981 में इस शहर में मेरे द्वारा आयोजित अखिल भारतीय क्रांतिकारी सम्मेलन में दूर-दूर से आए अतिथियों ने पूछा कि बिस्मिल का घर कौन-सा है, तब यह बताने में भी मैं लज्जा का अनुभव करता रहा कि बिस्मिल की शहादत के बाद उनकी मां मूलमती को घोर आर्थिक संकट में अपना घर-बार चलाने के लिए अपने शहीद बेटे के स्मृति-चिन्ह सोने के तीन बटन बेचने को मजबूर होना पड़ा और बाद को वह घर भी बिक गया जिसमें बिस्मिल का जन्म हुआ था।

मां ने बाद को थोड़ी ही दूर पर एक पुरानी बस्ती में नाले के किनारे ज़मीन के मामूली-से टुकड़े को खरीद कर सिर छिपाने का आसरा बना लिया था, जो अब दूसरे के कब्जे में है। इस मकान को ही लोग अब बिस्मिल का जन्मस्थान मानने लग गए हैं।

यहां कुछ लोग इस प्रश्न पर विवाद कऱ सकते हैं कि बिस्मिल के मुहल्ले में तिकोनी पड़ी एक पार्कनुमा जगह में बिस्मिल की नहीं, गौतम बुद्ध की मूर्ति लगेगी और इसके लिए जेलें भरने की बातें भी हवा में तैरने लगती हैं। उस समय बिस्मिल की मूर्ति लगाने का विरोध करने वाले दलित पैंथर रातों-रात शहर की दीवारें रंग देते हैं। पर वे नहीं जानते कि बिस्मिल ने अंतिम समय फांसी की कोठरी में बैठकर यह अभिलाषा प्रकट की थी कि ‘ईश्वर उन्हें पुनः भारतभूमि पर जन्म दे, ताकि वे अपने नए शरीर से दलितों का उद्धार कर सकें। मुझे विश्वास है कि मेरी आत्मा मातृभूमि तथा दीन-संतति के लिए नए उत्साह और ओज के साथ काम करने के लिए शीघ्र ही फिर लौट आएगी।’

मेरा पक्ष यह था कि बिस्मिल के मुहल्ले में उनका स्मारक बनने देना चाहिए। मुझे कई बार उन लोगों की बुद्धि पर भी तरस आया जो बिस्मिल की मूर्ति न लगने देने पर खून बहा देने की बातें रात के धुंधलके में मुझसे कह जाते थे। बिस्मिल के निर्जीव स्मारक के लिए ‘संघर्ष’ करने वाले यही लोग एक दिन उस ज़िंदा स्मारक की सुरक्षा और देखभाल न कर सके थे जिसकी कोख ने बिस्मिल जैसे क्रांतिकारी बेटे को न केवल जन्म दिया था, अपितु हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ जाने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित भी किया था।

कालान्तर में बिस्मिल के मुहल्ले में उनके स्मारक बनाने की लंबी जद्दोजहद का अंत हुआ जब शहर के एक अन्य प्रमुख चौराहे पर गौतम बुद्ध की प्रतिमा लग गई और ‘बिस्मिल उद्यान’ में काकोरी के इस क्रांतिकारी नायक का बुत खड़ा करने का रास्ता साफ हो गया। इसके बाद वर्ष 1993 में श्याम सिंह बागी और मेरी कोशिशों से ‘बिस्मिल उद्यान’ में स्थापित कराई गई बिस्मिल की आदमकद संगमरमर की प्रतिमा बनारस के मूर्तिकार की कला का कौशल बेहतरीन साक्ष्य है।

इस शहर में ऐतिहासिक तलौआ के मैदान पर काकोरी के क्रांतिकारी प्रेमकृष्ण खन्ना अनेक वर्षों तक ‘बिस्मिल संग्रहालय’ के निर्माण के लिए प्रयत्नशील रहे, पर उनका वह सपना पूरा नहीं हुआ और तलौआ की वह बेशकीमती जगह अतिक्रमण का शिकार हो गई। बाद को शहर के कैण्ट इलाके में ‘शहीद संग्रहालय’ का निर्माण प्रदेश सरकार के सहयोग से संभव हो सका जिसमें मुक्ति-संग्राम की दुर्लभ स्मृतियां सहेजी गई हैं।

इसी ज़िले में काकोरी के शहीद रोशनसिंह के जन्मस्थान नवादा गांव में उनकी आवक्ष मूर्ति तथा शहीद रोशनसिंह डिग्री कालेज की स्थापना हो चुकी है।

मैंने कई बार काकोरी शहीदों की स्मृति को उनकी क्रांतिकारी चेतना के साथ ज़िंदा रखने और उन आदर्शों को आगे ले जाने की जरूरत पर बल दिया है। हम जानते हैं कि बिस्मिल और अशफ़ाक़उल्ला का एक साथ फांसी चढ़ना देश की आज़ादी के लिए लड़े गए संग्राम के साथ ही हमारे इतिहास में साझी शहादत का सबसे बड़ा साक्ष्य है। यह देशप्रेम और सामाजिक सद्भाव की ऐसी मिसाल है जिस पर गर्व किया जा सकता है।

फैजाबाद जेल में अशफ़ाक़उल्ला को फांसी के बाद उनके मृत शरीर को शाहजहांपुर ले जाकर खानदानी कब्रिस्तान में दफनाने की इजाजत दे दी गई थी। शहर के एक किनारे स्थित यह विशाल कब्रगाह एक समय बेहद उजाड़ और सुनसान थी। अशफ़ाक़ की शहादत पर गणेश शंकर विद्यार्थी ने उनके भाई रियासतउल्ला खां से कहा था, ‘इनकी कच्ची कब्र बनवा देना, हम पुख़्ता करा देंगे और उनका मकबरा हम ऐसा बनायेंगे कि जिसकी नज़ीर यूपी में न होगी।’

गणेश शंकर विद्यार्थी ने तब मोहनलाल सक्सेना के जरिए अशफ़ाक़ के घर दो सौ रुपए भेज दिए, जिससे उनकी कब्र पक्की करा दी गई लेकिन कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में गणेश शंकर जी के शहीद हो जाने से मकबरे के निर्माण का सपना अधूरा रह गया। अशफ़ाक़ की इस कब्र पर अशफ़ाक़ से किए गए वादे के मुताबिक उनके वकील कृपाशंकर हजेला पहली बार 1929 में आए। फिर वे जब भी शाहजहांपुर आते तो इस जगह पर पहुंचना नहीं भूलते।

स्वर्गीय पुरुषोत्तम दास टंडन की भी यह अभिलाषा थी कि शाहीदे-वतन का एक अच्छा स्मारक बनाया जाए। बाद को काकोरी के क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त और साहित्यकार हंसराज रहबर भी इस जगह पर आकर मज़ार के पुनर्निर्माण की मांग को दोहराते रहे।

रहबर जी ने उन दिनों समाचार-पत्रों के लिए लिखा था, ‘शहीदों के मज़ारों पर हर बरस मेले जैसा यहां एक भी चिन्ह नहीं है। एक गेट जरूर बना हुआ है लेकिन चहारदीवारी और पार्क इत्यादि न होने से वह भी बेकार और महत्वहीन दिखाई पड़ता है। अशफ़ाक़उल्ला खां ने रामप्रसाद बिस्मिल और रोशनसिंह के साथ फांसी के फंदे को चूमा था। यों वह सचमुच राष्ट्रीय एकता और धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक है। लाखों रुपया खर्च करके सर तेजबहादुर सप्रू और ग़ालिब जैसे खुशामदखोर लोगों की तो यादगारें बनाई गईं, लेकिन एक शहीद के मज़ार की उपेक्षा क्यों?’

मध्य प्रदेश के एक मित्र ने पत्र लिखकर मुझसे अशफ़ाक़ के मज़ार के बारे में जानने पर मैंने बताया कि फिलहाल मज़ार के चारो तरफ चहारदीवारी का निर्माण हमने करा दिया है लेकिन यह शाहीदे-वतन की गरिमा के अनुरूप नहीं है। हां, नगरपालिका के प्रांगण में काकोरी के तीन शहीदों की प्रतिमाएं लगाकर हमने अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ ली, जबकि इस स्थान पर बनारस के रहने वाले काकोरी शहीद राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी की मूर्ति को न लगवाना जयदेव कपूर जैसे क्रांतिकारी को बहुत अखर रहा है। हां, विगत दिनों शहीद अशफ़ाक़ के परिवारीजन की ख्वाहिश को पूरा करने के लिए प्रदेश सरकार ने धन देकर आखिर उस मकबरे के निर्माण का बहुप्रतीक्षित सपना पूरा कर दिया जिसे देखने की हसरत हमें न जाने कब से थी।

शहीद अशफ़ाक़उल्ला की स्मृति में पं0 बनारसीदास चतुर्वेदी के संपादन में 19 दिसम्बर, 1969 को उर्दू में ‘यादगारे अशफ़ाक़’ पुस्तक छपी तब अशफ़ाक़ के भाई रियासतउल्ला खां जीवित थे और वे उसे देख सके। आगे चलकर दादा चतुर्वेदी जी ने मुझसे कई बार कहा कि उस किताब को पुनः छपवा लूं, पर वैसा करना मेरे लिए संभव नहीं हो पाया। इस पुस्तक का हिन्दी संस्करण आगरा के प्रकाशक तथा पुस्तक विक्रेता शिवलाल अग्रवाल एंड सन्स ने प्रकाशित किया था।

उज्जैन के कवि श्रीकृष्ण ‘सरल’ अशफ़ाक़ पर खण्डकाव्य की रचना की जिसका विमोचन शाहजहांपुर में शाहीदे-वतन के पौत्र श्री अशफ़ाक़उल्ला खां ने किया। बाद को मैंने ‘अशफ़ाक़उल्ला और उनका युग’ पुस्तक लिखी जिसके माध्यम से शहीद के जेल से लिखे पत्र, संदेश और डायरी के जरूरी अंश अधिक लोगों तक पहुंच सके।

मुझे याद है कि काकोरी शहीद बलिदान अर्धशताब्दी के अवसर पर चन्द्रभानु गुप्त की मांग पर सरकार की ओर से तत्कालीन स्वायत्त मंत्री सत्यप्रकाश मालवीय ने घोषणा की थी कि वे रोशनउद्दौला कचहरी प्रांगण में शहीद अशफ़ाक़उल्ला का एक स्मारक बनवाएंगे जहां शचीन्द्रनाथ बख्शी और उन पर काकोरी का पूरक मुकदमा चलाया गया था। लेकिन ऐसा नहीं हो पाया।

उस समय यह भी सुना गया था कि काकोरी के प्रस्तावित स्मारक-स्थल, जहां पर अब काकोरी शहीद भवन बन चुका है, उसके इर्द-गिर्द पांच गांवों का नामकरण रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़उल्ला खां, रोशनसिंह, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और चन्द्रशेखर आज़ाद के नाम पर कर दिया गया है, पर गांव वालों को इसकी कोई जानकारी नहीं है।

इसके बाद 1975 में काकोरी कांड की अर्धशती पर लखनऊ में एक बड़ा समारोह हुआ। उसी समय काकोरी के मुख्य मुकदमे की कार्यवाही जिस ‘रिंक थियेटर’ (वर्तमान जीपीओ) में संचालित की गई थी, उसके सामने सड़क पर ‘काकोरी स्तम्भ’ का निर्माण होने के साथ ही काकोरी की स्मृति में पुस्तकाकार स्मारिका भी प्रकाशित हुई। इसके बाद तो काकोरी कांड पर फिल्म बनी, नाटक लिखे गए और ‘अशफ़ाक़-राम’ जैसी प्रतिबद्ध एकल नाट्य प्रस्तुतियां भी हमारे सामने आईं।

फै़जाबाद जेल में अशफ़ाक़उल्ला का फांसीघर पर स्मारक के रूप में सुरक्षित है। वहां अशफ़ाक़ की प्रतिमा भी लगा दी गई है। लेकिन फांसीघर का दरवाजा जिस ओर सड़क पर खुलता है, उस पर ‘चौधरी चरण सिंह द्वार’ का बोर्ड लगा है। यह हमारी नासमझी का सबूत है।

इस स्थल पर प्रतिवर्श शहीद अशफ़ाक़उल्ला खां की स्मृति में आयोजन होता है और तब लोग उस तख़्ते का स्पर्श भी कर पाते हैं जिस पर चढ़ कर उस युवा क्रांतिकारी ने फांसी के फंदे को अपने गले में पहनने से पहले कहा था, ‘मेरे हाथ इंसानी खून से कभी नहीं रंगे। खुदा के यहां मेरा इंसाफ होगा।’ यहां फिजाओं में आज भी यह शेर गुंजायमान होता है-

तंग आकर हम भी उनके जुल्म के बेदाद से,
चल दिए सूए अदम ज़िंदाने फै़ज़ाबाद से।

                              ————————-

सुधीर विद्यार्थी, 6, फेज-5 विस्तार, पवन विहार पो0 रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली-243006 मो-9760875491

भूली-बिसरी ख़बरे