ये किसका लहू है, कौन मरा?

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दंगों में मरने वाले कौन हैं? बुलडोजर से किसकी झोपड़ियाँ ध्वस्त हो रही हैं? ज़ाहिर है कि इसका खामियाजा मेहनतकश-मज़दूर ही भोगता है, तबाह-बर्बाद व बेरोजगार होता है। वही सत्ता की लूट का भी शिकार बनता है और सबसे अधिक जान माल का नुक्सान भी झेलता है।

महँगाई-बेरोजगारी के खिलाफ जंग या नफ़रती दंगे?

महंगाई की मार किस जाति या धर्म के व्यक्ति को प्रभावित करती है? फैक्ट्री में छँटनी का शिकार मुकेश व अफ़जल की जाति/धर्म क्या है? क्या बेरोजगारी से पीड़ित नौजवान किसी खास मज़हब का होता है? तो फिर जाति या मजहब के नाम पर नफरत क्यों? दंगे-फसाद किसका हित साधते हैं? ये सवाल आज हमारे सामने जिंदा प्रश्न हैं!

भयावह महँगाई, बेरोजगारी, छँटनी-बंदी और दमन के बीच 2024 के चुनाव का आगाज़ नफ़रत के चरमोत्कर्ष के साथ हो चुका है। पूरे देश में दंगे-फ़साद व अल्पसंख्यक व दलित तबकों पर हमले तेज हो गए हैं। भीड़ हिंसा, नफ़रती भाषण और सांप्रदायिक उन्माद चरम पर है, अतिक्रमण के नाम पर बुलडोजर से एक खास समुदाय लगातार टारगेट बना हुआ है।

नुह (मेवात) से गु़रुग्राम, पलवल सहित हरियाणा सांप्रदायिकता की आग में झुलस रहा है। उत्तराखंड में धर्मांतरण, ‘लैंड जिहाद’, ‘मजार जिहाद’, ‘लव जिहाद’ के काल्पनिक मुद्दों से भीड़ हिंसा, नफ़रती भाषण और सांप्रदायिक उन्माद चरम पर है।

मणिपुर महीनों से सत्ता प्रायोजित जातीय हिंसा की आग में दहक रहा है और आम जनजीवन तहस-नहस है। भीड़ द्वारा कुकी समुदाय की महिलाओं को नग्न अवस्था में घुमाने और गैंगरेप की घटना हालात की महज बानगी है। मध्यप्रदेश में बजरंग दल के हुड़दंगाइयों द्वारा आंबेडकर की प्रतिमा तोड़ना, दलितों पर हमला और घरों को क्षतिग्रस्त करना महज घटना नहीं है।

जहाँ वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद विवाद से 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस, उससे पैदा सामाजिक ध्रुवीकरण व नफ़रत की याद ताजा हो रही है। वहीं मणिपुर में जातीय हिंसा व बलात्कार की घटनाओं से 2002 के गुजरात दंगों जैसे हालात बन गए हैं। समान नागरिक संहिता के बहाने सांप्रदायिक एजेंडा को धार दिया जा रहा है।

इन दंगों में मरने वाले कौन हैं? बुलडोजर से किसकी झोपड़ियाँ ध्वस्त हो रही हैं? किनके रोजगार छिन रहे हैं? ज़ाहिर है कि इसका खामियाजा मेहनतकश-मज़दूर ही भोगता है, तबाह-बर्बाद व बेरोजगार होता है। वही सत्ता की लूट का भी शिकार बनता है और दंगों में सबसे अधिक जान माल का नुक्सान भी झेलता है।

आज आम मेहनतकश जनता के हालात बेहद कठिन हैं। सत्ताधारी भाजपा मज़दूर व आमजन विरोधी नीतियाँ थोप रही है, रेल-बैंक-बीमा-कोल-शिक्षा-इलाज सबकुछ पूँजीपतियों को सौंप रही है। बेरोज़गारी, महंगाई, भुखमरी भयावह स्थिति में है व आत्महत्याएं बढ़ती जा रही हैं।

लेकिन अडानियों-अंबनियों की हितसेवक भाजपा सरकारें लोगों का ध्यान असल मुद्दों से हटा कर खून-खराबे से अपना स्वार्थ साध रही हैं। जनता को बाँट कर राज करने की, धार्मिक नफ़रत की घुट्टी पिला कर गुमराह करने की पुरानी रणनीति नए रूप में सामने है। संघ-भाजपा का आईटी सेल सक्रिय है, मोबाइल-इंटरनेट दंगाई मानसिकता बनने के उपकरण बन चुके हैं। सत्ता पोषित मीडिया नफ़रत फैलाने में पूरी तरह जुटी है।

कॉरपोरेट व फासिस्ट ताक़तों के गँठजोड़ से देश के हालात बेहद संगीन हैं। अमन की जगह दमन और बुलडोजर राज कायम है। मामूली क़ानून का राज भी खत्म है और पुलिस सत्ताधारी भाजपा-आरएसएस की वाहिनी की तरह काम कर रही है। उसकी सचेत व नियोजित कार्रवाइयाँ तेजी से बढ़ रही हैं और उन्मादियों के हौसले बुलंद हैं।

ऐसी प्रायोजित हिंसा की असलियत को पहचानना और नफ़रत की राजनीति से खुद को और अन्य लोगों को रोकना आज हर नागरिक की ज़िम्मेदारी है। अगर आज हमें अपना और अपने देश का भविष्य बचाना है तो हर कदम पर धर्मांध नफ़रत की राजनीति को शिकस्त देना होगा, हर हाथ को काम, हर पेट को रोटी का संघर्ष तेज करना होगा!

‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका अंक-50 (सितंबर, 2023) की संपादकीय

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