लॉकडाउन में फंसे मजदूरों का अपने घर लौटने का संघर्ष

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मुंबई आए हज़ारों मज़दूरों की भीड़ स्टेशनो पर जमा हो गई.

पिछले सप्ताह भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना संक्रमण फैलने की आशंका के चलते देशव्यापी लॉकडाउन को तीन मई तक बढ़ा दिया.इस घोषणा के कुछ ही घंटों के बाद काम की तलाश में दूसरे राज्यों से मुंबई आए हज़ारों मज़दूरों की भीड़ शहर के एक रेलवे स्टेशन पर जमा हो गई.ये मज़दूर ट्रेन सेवा बहाल होने की अफ़वाह के चलते स्टेशन पर जमा हुए थे, इन लोगों ने सोशल डिस्टेंसिंग की परवाह नहीं करते हुए ख़ुद और दूसरों को भी जोख़िम में डाला था.ये मज़दूर अपने-अपने गृह राज्यों में भेजे जाने की मांग कर रहे थे ताकि वे अपने परिवार के पास लौट सकें. ये बात दूसरी है कि इस भीड़ को हटाने के लिए पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा.ठीक उसी समय भारत के पश्चिमी राज्य गुजरात के सूरत शहर में भी टेक्सटाइल मिल्स में काम करने वाले सैकड़ों मज़दूरों ने अपने-अपने राज्यों में वापस भेजे जाने की मांग के साथ प्रदर्शन किया.

इसके एक दिन बाद राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में यमुना नदी के एक पुल के नीचे रह रहे सैकड़ों प्रवासी मज़दूरों की तस्वीर सामने आई, इस जगह पर यमुना नदी एक नाले की तरह दिखती है और उसके तट पर कूड़े कचरे बिखरे रहते हैं.इन लोगों ने बताया कि वे तीन दिनों से भूखे प्यासे हैं, नहाए नहीं हैं क्योंकि जिस शेल्टर होम में वे रह रहे थे उसमें आग लग गई थी. हालांकि अब इन लोगों को दूसरे शेल्टर होम में भेजा गया है.इन तीनों घटनाओं से लाखों ग़रीब लोगों की दुर्दशा का अंदाज़ा लगाया जा सकता है, जो आजीविका की तलाश में गांवों से शहरों की ओर आते हैं और किस तरह लॉकडाउन में वे अपने घरों से दूर फंसे हुए हैं, ना तो उनके पास कोई नौकरी बची है और ना पैसा है.

भारत में प्रवासी मज़दूरों की समस्या कोई नई बात नहीं है. देश भर में ऐसे मज़दूरों की संख्या भी क़रीब चार करोड़ से ज़्यादा है, इसी वजह से सभी लोगों तक राहत भी नहीं पहुंच पाती है.गांव से महानगरों में मज़दूरी करने आए ये लोग घरों में मज़दूरी करते हैं, ड्राइवर होते हैं, माली का काम करते हैं, कंस्ट्रक्शन साइटों पर दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं. मॉल, फ्लाईओवर और लोगों का घर बनाते हैं या फ़ुटपाथ पर सामान बेचते हैं.एक आलोचक के मुताबिक़ कोरोना महामारी के वक़्त जिस तरह से देश के सबसे ग़रीब तबक़े प्रवासी मज़दूरों की समस्या का कुप्रबंधन हुआ वो भारत के लिए शर्म की बात होनी चाहिए.शेल्टर होम में रहने वाले या फ़ुटपॉथ और फ्लाइओवरों के नीचे सोने वाले ये प्रवासी मज़दूर बेचैन हैं. वे चाहते हैं कि लॉकडाउन में ढील मिले और वे अपने अपने घरों को लौट जाएं.

कुछ दिन पहले मैं पूर्वी दिल्ली के एक शेल्टर होम में गई. एक स्कूल इमारत में यह शेल्टर राज्य सरकार की ओर से चलाया जा रहा है. इस शेल्टर में अभी 380 प्रवासी मज़दूर रह रहे हैं.मैंने इनमें दर्जनों महिला एवं पुरूषों से बात की, हर किसी के पास एक ही सवाल था, “अपने घर कब जा पाएंगे?”शेल्टर होम में 29 मार्च से मनोज अहिरवाल अपने संबंधियों के साथ रह रहे हैं.उन्होंने हताशा में कहा, “पुलिस ने हमें कहा था कि वे घर पहुंचाने में मदद करेगी. लेकिन वे हमें यहां ले आए. उन्होंने हमें बेवक़ूफ़ बनाया.”25 साल के मनोज एक ही महीने पहले अपने गांव सिमरिया से दिल्ली आए थे. उनका गांव दिल्ली से 650 किलोमीटर दूर है.उनके मुताबिक़ रबी की फ़सल अच्छी हुई थी लेकिन कटाई में एक महीने का वक़्त था लिहाज़ा वे अपने दिल्ली आ गए.यहां वे अपनी मां कालीबाई अहिरवाल और 21 अन्य संबंधियों के साथ कंस्ट्रक्शन साइट पर मज़दूरी करने लगे.

भारत ने 25 मार्च से 21 दिन का लॉकडाउन शुरू किया तब मनोज महज़ तीन दिनों तक काम कर पाए थे. जब काम रुक गया और पास के पैसे तेज़ी से ख़त्म होने लगे तो इन लोगों ने अपने गांव लौटने का फ़ैसला किया.लेकिन बस और रेल सेवा बंद होने और राज्यों की सीमा सील होने के चलते यह विकल्प संभव नहीं था.28 मार्च को इन लोगों ने सुना कि सरकार राज्य की सीमा पर बसों की व्यवस्था कर रही है और इसके बाद ये लोग आनंद विहार बस स्टेशन की ओर चल पड़े. जब तक ये लोग वहां पहुंचे तब तक बसें जा चुकी थीं और इनके जैसे हज़ारों लोग वहां फंसे हुए थे. इसके बाद इन लोगों ने पैदल ही गांव चलने का मन बनाया.शेल्टर होम में जब मैं कालीबाई अहिरवाल से मिली तो उन्होंने कहा, “हमने 10 किलो आटा, कुछ आलू और टमाटर ख़रीद लिए थे. सोचा था कि हर रात सड़क के किनारे रूक कर खाना बना लेंगे.”

इस तीन मंज़िले स्कूल की इमारत में डेस्क और बेंच की जगह लोहे की खाट और गद्दों ने ले ली है. अधिकारी इन लोगों को दिन में तीन बार खाना भी मुहैया करा रहे हैं. बच्चों के लिए दूध और गर्भवती महिलाओं के लिए फलों की व्यवस्था भी की गई है.मनोज और उनकी मां इन सुविधाओं को लेकर आभार जताती हैं लेकिन जल्दी अपने घर लौटना चाहती हैं.मनोज अहिरवाल के मुताबिक़ गांव में गेहूं की फ़सल तैयार हो गई होगी और घर पर मौजूद उसके भाई और पिता, इस काम को संभाल नहीं पाएंगे.कालीबाई अहिरवाल ने कहा, “यह वह वक़्त है जब हम साल भर का अनाज उगा लेते हैं. सरकार हमें दो तीन महीने तक खिलाएगी. उसके बाद क्या होगा?”प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महज़ चार घंटे की नोटिस पर देश भर में लॉकडाउन लागू किया था. इस फ़ैसले के बाद फैली अराजकता से देश अब तक निपटने की कोशिश कर रहा है.

इस घोषणा के कुछ ही घंटों के बाद लाखों मज़दूर शहरों को छोड़कर अपने-अपने गांव की ओर लौटने लगे. प्रमुख राजमार्गों पर पुरुष, महिलाएं और बच्चों की भीड़ दिखाई देने लगी. अपना-अपना सामान उठाए और पैदल घरों की ओर लौटते लोग सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल रहे थे. इस दौरान रास्ते में कई लोगों की मौत भी हो गई.अधिकारियों के मुताबिक़ लोगों का जीवन बचाने के लिए लॉकडाउन ज़रूरी है, लेकिन बिना किसी योजना के इसे लागू करने से देश के सबसे ग़रीब लोगों पर इसकी मार सबसे ज़्यादा पड़ी है.काम के अभाव में, कई प्रवासी मज़दूर अब खाने के लिए सरकार या चैरिटी संस्थानों पर निर्भर हो गए हैं, कईयों को भीख मांगनी पड़ रही है.जब मैं यह रिपोर्ट लिख रही हूं तभी 12 साल की एक लड़की की मौत की ख़बर आयी है. जो तेलंगाना से पैदल छत्तीसगढ़ अपने गांव आ रही थी. क़रीब 150 किलोमीटर लंबे रास्ते पर वह तीन दिनों से चल रही थी और घर पहुंचने से महज़ 14 किलोमीटर पहले उसने दम तोड़ दिया.

सुप्रीम कोर्ट के वकील और एक्टिविस्ट प्रशांत भूषण ने बीबीसी से कहा, “यह लॉकडाउन पूरी तरह से अमानवीय है.” प्रशांत भूषण ने प्रवासी मज़दूरों को उनके घरों तक भेजने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दाख़िल किया है.इस याचिका में कहा गया है, “जिन लोगों का कोविड-19 टेस्ट निगेटिव आया है, उन्हें बलपूर्वक शेल्टरों में या उनके अपने घर परिवार से दूर नहीं रखा जा सकता. सरकार को इन लोगों को अपने-अपने घर लौटने की अनुमति देनी चाहिए और इसके लिए परिवहन की व्यवस्था उपलब्ध करानी चाहिए.”अगर ऐसा हो जाता है तो दिल्ली सरकार के शेल्टर होम में रह रहे अहिरवाल और अन्य लोगों को मदद मिलेगी.शेल्टर होम पर मौजूद स्वास्थ्य अधिकारी नीलम चौधरी ने कहा, “29 मार्च को जब से शेल्टर बना है तबसे यहां रह रहे सभी 380 लोगों की प्रत्येक सुबह स्वास्थ्य चेकअप किया जाता है. यहां कोई भी कोरोना पॉज़िटिव नहीं है.”

अधिकारियों के मुताबिक़ वे सरकारी शेल्टरों में क़रीब छह लाख प्रवासी मज़दूरों के खाने पीने और रहने की व्यवस्था कर रहे हैं, इसके अलावा 22 लाख लोगों को भोजन मुहैया कराया जा रहा है. लेकिन लाखों लोगों तक अब भी कोई मदद नहीं पहुंची है.स्ट्रेंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क के अनिंदिता अधिकारी ने कहा, “दो तरह के फंसे हुए मज़दूर हैं- एक तो वे हैं जो दिखाई दे रहे हैं और एक वे हैं जिन पर नज़रें नहीं जा रही हैं. जो शेल्टर में हैं वे तो दिखाई दे रहे हैं. लेकिन बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो शेल्टरों में नहीं हैं. वे फ्लाईओवरों और फ़ुटपाथ पर सो रहे हैं. वे काम की जगहों, कैंपों और झुग्गी झोपड़ियों में फंसे हुए हैं.”वहीं प्रशांत भूषण के मुताबिक़ सरकारी शेल्टरों में भी एकसमान सुविधाएं नहीं हैं, उन्होंने कहा, “कुछ शेल्टरों में लोगों को खाने के लिए दो-दो किलोमीटर लंबी लाइन में लगना पड़ रहा है. खाना ख़त्म होने की आशंका में भगदड़ भी मचती है.”

प्रवासी मज़दूरों की हताशा का अंदाज़ा इस बात से होता है कि शहरों से गांवों की ओर लोगों के भागने का सिलसिला जारी है.इसी महीने की शुरुआत में, पुलिस ने 61 लोगों को एक ट्रक से बरामद किया. आवश्यक सामानों की ढुलाई के लिए निर्धारित ट्रक से ये लोग अपने-अपने घरों की ओर लौटना चाहते थे. इसी सप्ताह, ऐसी ही एक घटना असम में हुई है, जिसमें 51 प्रवासी मज़दूर अपने-अपने घरों की और लौटने की कोशिश कर रहे थे. कुछ दिन पहले, दिल्ली से सटे गुड़गांव में 11 प्रवासी मज़दूरों को दो एंबुलेंसों में बैठकर गांवों जाने की कोशिश में पकड़ा गया.बीते तीन सप्ताह के दौरान स्ट्रेंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (एसडब्ल्यूएएन) के पास ऐसे मज़दूरों के 11 हज़ार से ज्यादा फ़ोन कॉल्स आए हैं. नेटवर्क ने इन लोगों की बातों पर एक रिपोर्ट जारी की है.

अनिंदिता अधिकारी ने कहा, “अधिकांश लोगों ने बताया कि उनके पास दो या तीन दिनों का राशन है. यह भी बताया कि खाना बचाने के लिए ये लोग दिन भर में एक बार खाकर गुज़ारा कर रहे हैं. 89 फ़ीसदी मज़दूरों के पास कोई काम नहीं है और अधिकांश के पास महज़ 200 रुपये बचे हुए थे.”अनिंदिता के मुताबिक़, “ना तो खाने का सामान है और ना ही पैसा, प्रवासी मज़दूर भूखमरी की कगार पर धकेल दिए गए हैं, उनके सहने की क्षमता ख़त्म हो चुकी है और वे अपमानजनक स्थिति का सामना कर रहे हैं.”प्रशांत भूषण के मुताबिक़ इस समस्या का एक ही हल है, सरकार को इन लोगों को नक़द भुगतान करना चाहिए.उन्होंने कहा, “सरकार कह रही है कि नियोक्ताओं को मज़दूरों का वेतन नहीं बंद करना चाहिए. लेकिन छोटे दुकानदार और कारोबारी अपने मज़दूरों को पैसा कहां से देंगे जब उनका अपना अस्तित्व ही संकट में है.

फ़ुटपॉथ और गलियों में सामान बेचने वाले उन लोगों का क्या होगा जो अपना ही काम कर रहे थे?”प्रशांत भूषण के मुताबिक़ लॉकडाउन समस्या का हल नहीं है. इसके बदले इंडियन पीनल कोड की धारा 144 का इस्तेमाल करना चाहिए था जिसके मुताबिक़ चार लोग एक जगह जमा नहीं हो सकते हैं.उनके मुताबिक़ लॉकडाउन का दीर्घकालीन असर यह होगा कि अभाव, ग़रीबी और भूखमरी से मौत के मामले ज़्यादा होंगे.प्रशांत भूषण ने कहा, “सभी ग़रीब और निम्न मध्यवर्गीय लंबे समय तक संकट में रहेंगे. अर्थव्यवस्था तबाह हो चुकी है. सबकुछ लॉकडाउन करने से आप एक लाख लोगों की ज़िंदगी तो बचा सकते हैं लेकिन आप इस क़दम से 10 लाख लोगों को भूख से मार डालेंगे.”

बीबीसी से साभार

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