70 घंटे साप्ताहिक काम का शोर क्यों?

लगातार विकसित होती तकनीक के साथ कम समय में मज़दूर बहुत ज्यादा उत्पादन कर रहे हैं और 12-12 घंटे खट भी रहे हैं। वास्तव में काम के घंटे कम होने चाहिए लेकिन उल्टे इन्हें बढ़ाने की बात बेईमानी है!
तमाम विरोधों के बीच मोदी सरकार मज़दूरों को बंधुआ बनने वाले चार लेबर कोड अभी लागू नहीं कर पाई, लेकिन चोर दरवाजे से उसे लागू करने और तमाम तरीके से उसके विभिन्न खतरनाक प्रावधानों थोपने की कोशिशें जारी हैं। इसी क्रम में पिछले दिनों भारत की दिग्गज आईटी कम्पनी इम्फोसिस के मालिक नारायण मूर्ति ने फरमाया कि “देश की तरक्की के लिए हर रोज करीब 12 घण्टे और हफ्ते में कुल 70 घण्टे काम करना चाहिए!”
नारायण मूर्ति का कहना था कि आज भारत की उत्पादकता काफी कम है और उसका मुकाबला चीन जैसे देशों से है। अगर भारत को प्रतिस्पर्धा में टिकना है तो उसको अपनी उत्पादकता बढ़ानी होगी और यह काम देश का युवा कर सकता है बशर्ते वह सप्ताह में 70 घंटे काम करे। वैसे नारायण मूर्ति ने वही बात कही जिसकी इस देश के पूंजीपति लम्बे समय से मांग कर रहे हैं।
मूर्ति जी ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि इस देश के मजदूर-मेहनतकश की बड़ी आबादी हफ्ते में 70 घण्टे से ज्यादा काम कर रही है। रोज 12-12 घण्टे काम करने के बावजूद इस विकट महँगाई के दौर में उन्हें केवल मामूली गुजरे लायक ही मज़दूरी मिल पा रही है।
देश की लगभग 94% मजदूर आबादी असंगठित क्षेत्र में काम करती है, जिनकी जीवन स्थितियाँ बहुत ही दयनीय हैं। बेइंतेहा काम के घण्टे और मिलने वाली मामूली दिहाड़ी से वह बमुश्किल अपना गुजर-बसर कर पा रही है। घरों में समान डिलीवरी करने वाले गिग वर्कर हों, ओला-उबर ड्राइवर हों, चाहें खेतिहर मजदूर, रेहड़ी-पटरी वाले, रिक्शा-ठेला वाले, दुकानों-ढाबों-होटलों में काम करने वाले करोड़ों मेहनतकश हों, इनके काम के घंटे बेइंतहाँ हैं, लेकिन तरक्की कहाँ है?
जिन देशों में काम के घण्टे सबसे ज्यादा हैं, उनमें भारत दुनिया के पहले 10 देशों की सूची में सातवें पायदान पर है। कानूनी तौर पर भारत में 48 घण्टे प्रति सप्ताह यानी 8 घण्टे 6 दिन का कार्यदिवस और साप्ताहिक छुट्टी का कानून है। इसके बावजूद 12-12 घण्टे काम लिया जाता है। फिर भी भारत प्रति व्यक्ति औसत आय के मामले में दुनिया के देशों में 142वें पायदान पर है।
नारायण मूर्ति जी गौर करें; नीदरलैंड में सप्ताह में 29 घण्टे, डेनमार्क में 33 घण्टे, कनाडा में 32 घण्टे, ब्रिटेन में 36 घण्टे, जर्मनी में 34 घण्टे, जापान में 36 घण्टे, अमेरिका में 36 घण्टे का काम ही लिया जाता है। इसके बावजूद इन देशों में प्रति व्यक्ति औसत आय, उनका रहन-सहन काफी उन्नत है।
दरअसल नारायण मूर्ति जिस प्रतिस्पर्धा की बात कर रहे हैं वह पूंजीपतियों के बीच बाज़ार पर कब्जे की प्रतियोगिता है। हर पूंजीपति चाहता है कि उसका माल सस्ते से सस्ता बने और दूसरे पूंजीपति को इस होड से बाहर कर दे। इसी को वह राष्ट्रवाद का चोला पहना देता है ताकि उसके द्वारा मज़दूर् वर्ग का जो विकट शोषण हो रहा है उसपर पर्दा डाला जा सके।
अपने इसी होड के करण अन्य तरीकों के अलावा एक तरीका मज़दूरी कम से कम देना और काम के घंटे बढ़ाना है, ताकि उसके मुनाफे का पहिया लगातार घूमता रहे।
वास्तव में यदि मेहनतकश वर्ग के नजरिए से और इंसाफ के तौर पर देखा जाए तो वर्तमान दौर में दुनिया में लगातार विकसित होती तकनीक के साथ ही उत्पादकता भी तेजी से बढ़ी है। यानि कम समय में मज़दूर बहुत ज्यादा उत्पादन कर रहे हैं। इस हिसाब से देखा जाये तो काम के घंटे कम होने चाहिए लेकिन उल्टे इन्हें बढ़ाने की बात बेईमानी है!
‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका अंक-51 (अक्टूबर-दिसंबर, 2023) की संपादकीय