क्यों मजदूरों के लिए घातक हैं नई श्रम श्रम संहिताएं -पीयूडीआर की रिपोर्ट

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चार श्रम संहिताएं उद्योगों में मौजूदा गैर अनुपालन की वास्तविकता को एक औपचारिक ढांचे में रचने का काम करती हैं और मज़दूरों को सभी अधिकारों से वंचित करती हैं।

मज़दूरों के हितों के खिलाफ, परिस्थितियों होंगी और बदतर

मज़दूरों के लंबे संघर्षों के दौरान हासिल श्रम कानूनी अधिकारों को खत्म करके मोदी सरकार जो चार श्रम संहिताएं लाई हैं, उस पर पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) ने एक रिपोर्ट “द एंटी लेबर कोड्स” प्रकाशित की है।

पीयूडीआर द्वारा 16 अगस्त, 2021 को जारी प्रेस विज्ञप्ति में लिखा है कि आजादी की 75 वीं वर्षगांठ पर देश के मज़दूरों के लिए आजादी के बाद लगभग पहली बार कई जरूरी श्रम कानून जैसे औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947, कारखाना अधिनियम 1948, आदि का सुरक्षा कवच उपलब्ध नहीं होगा। इनमें से कुछ कानून तो भारत की आजादी के साथ लाए गए थे और मूल रूप से इनका उद्देश्य मज़दूरों के अधिकारों और आजादी को सुनिश्चित करना था।

2019-20 में इन सभी कानूनों को हटाकर 4 नई संहिताएं लाई गई- 1. मज़दूरी संहिता, 2. औद्योगिक संबंध संहिता, 3. सामाजिक सुरक्षा संहिता, 4. व्यवसाय गत सुरक्षा स्वास्थ्य और कार्य स्थितियां संहिता।

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पीयूडीआर ने इस मौके पर अपनी रिपोर्ट “एंटी लेबर कोट्स” (मज़दूर विरोधी संहिताएं) जारी की है। यह रिपोर्ट इस बात को चिन्हित करती है कि कैसे नए श्रम कानून श्रमिकों को उनके अधिकारों से वंचित कर देते हैं।

इस रिपोर्ट में चारों संहिताओं के प्रावधानों को समझाया गया है और मज़दूरों के अधिकारों पर इन प्रावधानों के अवसर पर चर्चा की गई है। मौजूदा कानूनी प्रावधानों के गैर अनुपालन और सरकार की मौजूदा “ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस” नीति के परिप्रेक्ष्य में चारों संहिताओं की समीक्षा की गई है।

अमल में आने से पहले ही कई प्रावधान लागू

पीयूडीआर की यह रिपोर्ट इस बात को उजागर करती है की इन संहिताओं के औपचारिक रूप से अमल में लाए जाने से पहले ही इनके कई प्रावधान व्यवहारिक रुप से सरकार द्वारा वार्षिक “बिजनेस रिफॉर्म्स एक्शन प्लान” के रूप में लागू किए जा रहे थे।

पिछले करीब 6 वर्षो में पीयूडीआर द्वारा किए गए सत्यान्वेषण में और मीडिया व अन्य रिपोर्टों के माध्यम से भी अलग-अलग औद्योगिक क्षेत्रों में मज़दूरों की बिगड़ती परिस्थितियों का पता चला है। जैसे काम के बढ़ते घंटे, काम से निकाले जाने का डर और काम की अनिश्चितता, ठेका प्रथा, घटते वेतन, जबरन ओवरटाइम, सुरक्षा उपकरणों और प्रावधानों का ना होना और कार्यस्थल दुर्घटनाएं व मौत।

कोविड-19 बना अधिकारविहीन बनाने का अवसर

मज़दूरों की इस दुर्गति को श्रम विभाग और पुलिस ने श्रम कानूनों के गैर अनुपालन से और बदतर कर दिया। कोविड-19 में इन्हें इस गैर अनुपालन का एक और बहाना मिला। मज़दूरों की बिगड़ती परिस्थितियों के बावजूद केंद्रीय और राज्य सरकारों ने 2020-2021 में कोविड-19 के नाम पर कुछ ऐसे आदेश पारित किए जिन्होंने आंशिक या पूर्ण रूप से मज़दूरों के अधिकारों को स्थगित कर दिया।

इन सबके बीच सितंबर 2020 में संसद में 3 श्रम संहिताएं सभी प्रणालियों को दरकिनार करते हुए बिना किसी बहस चिंतन के पारित कर दी गई। (एक संहिता 2019 में ही धकेल के पारित किया गया था।)

रिपोर्ट बताता है कि इन चार संहिताओं के प्रावधानों को और इनके असर को ऊपर लिखित संदर्भ में ही समझा जाना चाहिए। इन संहिताओं का एक दूसरे के साथ क्रियान्वयन देखना भी अनिवार्य है।

पीयूडीआर की रिपोर्ट इस बात का खुलासा करती है कि कैसे ये संहिताएं अपने आप में और साथ-साथ “इज ऑफ डूइंग बिजनेस” नीति का प्रचार करती हैं और मज़दूरों के हितों के खिलाफ काम करते हुए उनकी परिस्थितियों को और बदतर कर देती हैं।

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संहिता के खतरनाक प्रावधानों की बानगी

पीयूडीआर की रिपोर्ट निम्नलिखित मुद्दों पर बात रखती है-

  1. संहिताओं द्वारा सरकारों को बड़े पैमाने पर ऐसी शक्तियां दी गई हैं जिससे वे महत्वपूर्ण मामलों, जैसे, मज़दूरों के वेतन, सुरक्षा नियम, “खतरनाक कार्य” की परिभाषा आदि पर फैसले ले सकते हैं। इन शक्तियों द्वारा कानूनों को इस प्रकार लचीला बना दिया गया है जिसके चलते मजदूरों को उनके अधिकारों से वंचित किया जा सकता है।
  2. प्रबंधन या मालिक की जवाबदेही को कम कर दिया गया है, खास तौर पर सुरक्षा नियमों के मामले में। कई उद्योगों में मालिकों को मज़दूरों के प्रति जरूरी दायित्वों का पालन करने में भी छूट दे दी गई है।
  3. मालिकों को जवाबदेह बनाने वाले प्रावधानों को कमजोर कर दिया गया है। जैसे, लेबर इंस्पेक्टर को अब इंस्पेक्टर कम फैसिलिटेटर” बुलाया जाएगा और यह व्यापार के क्रियान्वयन में मदद करेंगे। अब इनके पास पहले की तरह अर्ध न्यायिक शक्तियां नहीं होंगी। अब फैक्ट्री जाकर मुआयना नहीं होंगे बल्कि मालिक ऑनलाइन खुद ही नियमों के अनुपालन को प्रमाणित करेंगे और मालिकों को मज़दूरों के अधिकारों के उल्लंघन करने की छूट मिल जाएगी।
  4. अब औद्योगिक विवादों को मौजूदा दीवानी न्यायालयों के समक्ष दायर नहीं किया जा सकेगा। अब इन मामलों के लिए ट्रिब्यूनल का गठन किया गया है, जिनमें एक प्रशासनिक और न्यायिक पद होगा। इससे सरकार का न्यायिक प्रणालियों में भी दखल बढ़ेगा।
  5. मज़दूरों के यूनियन बनाने के अधिकारों को काफी सीमित कर दिया गया है। यह और कुछ नहीं बल्कि मालिकों द्वारा कानूनों के उल्लंघन के खिलाफ मज़दूरों की सामूहिक कार्यवाही करने की क्षमता पर प्रहार है।
  6. गिग मज़दूरों को सुरक्षा प्रदान करने का केवल दिखावा किया गया है, क्योंकि इन प्रावधानों को अमल में लाने के लिए कोई प्रावधान ही नहीं है और इस संदर्भ में मालिकों के दायित्व भी कम कर दिए गए हैं। अधिकतर मालिक यह कह कर अपने पल्ला झाड़ सकते हैं कि गिग मज़दूर स्वतंत्र ठेके पर कार्यरत हैं और वह मज़दूर है ही नहीं।
https://mehnatkash.in/2021/04/02/gig-workers-and-the-new-system-of-exploitation-of-the-gig-economy/

रिपोर्ट के अनुसार ये चार संहिताएं उद्योगों में मौजूदा गैर अनुपालन की वास्तविकता को एक औपचारिक ढांचे में रचने का काम करती हैं और मज़दूरों को सभी अधिकारों से वंचित करती हैं।

पुराने कानूनों में लिखे अधिकारों को लचीला बना कर या पूरी तरह हटा कर न्यायालयों और अन्य संस्थानों तक मज़दूरों की पहुंच को सीमित कर, और यूनियन बनाने के अधिकारों को कुचलकर मज़दूरों द्वारा उनके प्रति किए जा रहे उल्लंघनों को चुनौती देने के सभी माध्यमों को निरस्त करने का प्रयास किया जा रहा है।

अगर “ईज आफ डूइंग बिजनेस” के नाम पर लाई गई ये संहिताएं केवल मज़दूरों के मौलिक लोकतांत्रिक अधिकारों को खत्म करके ही लाई जा सकती हैं, तो यह हर नागरिक के लिए चिंता का विषय है।