किन चुनौतियों से जूझ रहा है भारत का मज़दूर

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आज बड़े पूंजीपतियों के साथ फासीवादी गठजोड़ से मेहनतकश-मज़दूर आवाम के लिए हालात बेहद कठिनतम हैं। नफ़रत, दमन के बीच कार्यस्थल पर बंटवारा, सामाजिक बंटवारा, आर्थिक असमानता के साथ मानसिक जकड़बंदी भयावह है…

  • विशेष संपादकीय लेख

‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका का 50वां अंक आपके सामने है। 12 वर्ष पहले जब मेहनतकश पत्रिका निकलनी शुरू हुई थी, तब मज़दूर विरोधी नीतियों और दमन के बीच कई जुझारू आंदोलन भी चल रहे थे। बीते 12 वर्षों में हालात और भी ज्यादा बुरे होते चले गए।

लंबे संघर्षों से हासिल श्रम क़ानूनी अधिकारों को छीन कर मज़दूरों को बंधुआ बनाने की प्रक्रिया तेज हो गई, चार श्रम संहिताएं लागू होने की प्रक्रिया में हैं। हालांकि अघोषित रूप से श्रम कानूनों में भारी बदलाव होता रहा है। छँटनी-बंदी आदि बेलगाम हो गया। सरकारी-सार्वजनिक उद्योग व संपत्तियाँ निजी मुनाफाखोरों के हवाले करना तेज है। साथ ही फर्जी मुकदमा लादने सहित दमन भी काफी तीखा हो गया है।

बड़े-बड़े सब्जबाग और सपने दिखलाकर 2014 में जब मोदी सरकार केंद्र की सत्ता में आई थी तब से जहां पूँजी की लूट और बेलगाम होने के साथ देशी-विदेशी पूँजीपतियों के और ‘अच्छे दिन’ आते गए, वहीं मज़दूर-मेहनतकश के हालात ज्यादे पस्त होते गए। संकटग्रस्त और पहले से ही विभाजन की शिकार मज़दूर आबादी और भी विभाजनों के मकड़जाल में फँसती चली गई।

  • अस्थायी नौकरियों, सामाजिक सुरक्षा की कमी, कठोर कामकाजी परिस्थितियों, कम वेतन और यूनियन कमज़ोर किए जाने के कारण, श्रमिक वर्ग के हालात और तेजी से अनिश्चित होते जा रहे हैं। 90% से अधिक श्रमिक असंगठित क्षेत्र में हैं, और 60% दैनिक 375/- रुपये से कम कमाते हैं। बेरोजगारी 40 सालों में सबसे उच्चतम स्तर पर है।

बहुत है कठिन डगर पनघट की

1990 के दशक से अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन की तिगड़ी पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के शोषण और लूट का नया केंद्र बन चुका है। भारत की अर्थव्यवस्था नव-उदारवादी आत्मघाती रास्ते पर चल पड़ी, और अब मोदी सरकार के दौर में सरपट दौड़ रही है।

आज बड़े पूंजीपतियों के साथ फासीवादी गठजोड़ से धार्मिक नफरत, खोखला अंध-राष्ट्रवाद और तमाम प्रतिक्रियावादी विचारों के साथ देश में नंगी तानाशाही चल रही है, और मेहनतकश जनता अपनी माँगों और अधिकारों से वंचित होती जा रही है। उसके कंधों पर भीषण आर्थिक संकट का बोझ डाला जा रहा है। भयावह बेरोजगारी, भुखमरी, महंगाई के बीच धार्मिक नफ़रत, जातिगत भेदभाव, दंगे-फसाद आदि बेलगाम है। आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दुर्दशा बहुत बढ़ गई है। मेहनतकश विविध बँटवारों का शिकार हो गया है।

  • पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था अब विदेशी मंडी की गिरफ़्त में है, चाहे वह ‘मेक इन इंडिया’ के बैनर तले हो या ‘राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन’ के तहत, निजीकरण और सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों की बिक्री तीव्र गति से चल रही है। साथ ही, नोटबंदी, जीएसटी और सत्तावादी लॉकडाउन के संयुक्त प्रभावों ने, श्रमिकों को और अधिक गरीब बना दिया है, जबकि अडानी जैसे कॉरपोरेट्स और अभिजात वर्ग की संपत्ति में अभूतपूर्व स्तर तक वृद्धि हुई है।
https://mehnatkash.in/2023/08/29/ye-kisaka-lahoo-hai-kaun-mara/

कार्यस्थल पर बंटवारा भयावह

कार्यक्षेत्र में बड़े बदलाव के साथ कारखानों के भीतर स्थाई-अस्थाई, ठेका-ट्रेनी आदि के नाम पर विभाजन और व्यापक हुआ है। स्थाई और अस्थाई मज़दूरों के वेतन और सुविधाओं में अंतर बढ़ता गया है। असंगठित क्षेत्र में कार्यरत मज़दूरों के पास न तो आर्थिक सुरक्षा है, न सामाजिक सुरक्षा। जातिगत व पेशागत भेदभाव गहरा है।

ओला, उबर, जोमैटो, स्वीजी आदि ऑनलाइन काम करने वाले गिग व प्लेटफ़ॉर्म श्रमिकों से लेकर आशा, आंगनवाड़ी आदि स्कीम वर्कर आदि रोजगार की तमाम नई श्रेणियां हैं, जिनको कर्मकार का दर्जा तक हासिल नहीं है, न्यूनतम वेतन और सुविधाएं तो दूर, सामाजिक सुरक्षा भी नहीं है।

  • कई क्षेत्रों में जाति-सामंती और पितृसत्तात्मक संस्थाएँ प्रभावी बनी हुई हैं। स्वच्छता कर्मचारी और हाथ से मैला ढोने वाले ज्यादातर दलित हैं, योजना कार्यकर्ता और घरेलू कामगार मुख्य रूप से महिलाएं हैं, और बंधुआ मज़दूर मुख्य रूप से आदिवासी हैं। लैंगिक वेतन अंतर बढ़ने के बावजूद महिला श्रमिकों का अनुपात कम बना हुआ है।

सामाजिक बंटवारा काफी तीखा

पूँजी की अंधी लूट से पर्यावरण भयावह रूप से प्रदूषित है। वहीं सामाजिक माहौल भी बेहद प्रदूषित हो चुका है। मज़दूर-मेहनतकश आबादी के बीच जाति, धर्म और क्षेत्र के नाम पर पहले से जारी बंटवारे आज विकट रूप ले चुके हैं। धर्मोंन्माद और नफ़रती खेल उस मुकाम पर पहुंच गया है, जहां मज़दूर, मज़दूर के हित की जगह हिंदू मुस्लिम, सवर्ण-दलित के खूनी दलदल में फँसकर एक दूसरे के खिलाफ हमलावर हो गया है।

आर्थिक असमानता की गहरी खाई

आर्थिक तौरपर पूँजीपतियों और मज़दूरों के बीच वेतन का अंतर आज जमीन-आसमान का हो चुका है जो और भी ज्यादा बढ़ता जा रहा है। वहीं मज़दूर-मज़दूर के बीच समान काम के बावजूद वेतन का भारी अंतर बढ़ते जाने से आर्थिक व जीवन स्थितियों में असमानता की खाई काफी गहरी हो चुकी है। मज़दूरों के वेतन, बढ़ती महंगाई के सापेक्ष दूर-दूर तक नहीं बढ़ रहे हैं। इसके विपरीत बढ़ती महंगाई से, वास्तविक मिलने वाला वेतन लगातार घट रहा है।

एक दशक पहले मज़दूर जिस वेतन से जितना सामान खरीद पाता था, -आज लगभग उतनी ही पगार पा रहा है लेकिन उसके चौथाई हिस्से का सामान भी खरीदना उसके लिए मुहाल हो गया है। घर का किराया हो, बच्चों की पढ़ाई हो, सब्जी अनाज खरीदना हो या इलाज चिकित्सा सब में स्थितियां बेहद कठिन हो चुकी हैं।

  • देश में हर साल आत्महत्या से होने वाली मौतों में 25% से अधिक दैनिक वेतनभोगी श्रमिक होते हैं। अधिकांश कामगार गरीबों की श्रेणी में आते हैं, जो अनिश्चित आजीविका द्वारा अपनी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करते हैं जो उन्हें वस्तुतः “फुटलूज़ मजदूर” बनाता है।

दूसरी तरफ सरकारें चुनावी राजनीति के तहत गरीब-मेहनतकश आबादी को कुछ अनाज की रेवड़ियाँ बांटकर भिखमंगे के तौर पर प्रस्तुत करती हैं। जबकि सच यही है कि सामाजिक सुरक्षा के तहत आम जनता को मिलने वाले राशन, बिजली, इलाज, डीजल-पेट्रोल, रसोई गैस आदि सब्सिडियाँ छीनकर बड़े पैमाने पर अडानी-अंबानी जैसे पूँजीपतियों के हवाले किया जा रहा है। यही नहीं इन लुटेरों के लिए बैंक की तिजोरियाँ खुल गई है जो बैंकों को लूटकर फरार हो रहे हैं, दिवालिया बना रहे हैं।

  • भाजपा सरकारों द्वारा 2 करोड़ नौकरियों का वादा भुला दिया गया है, केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण मौजूदा नौकरियां खत्म हो रही हैं और बेरोजगारी भयावह हो रही है। यह बेरोज़गारी संकट श्रमिकों के बड़े समूहों को गरीबी, कर्ज़ के जाल, असुरक्षित आजीविका, भुखमरी आदि द्वारा हाशिये पर धकेल रहा है।

मानसिक जकड़बंदी

मज़दूर-मेहनतकश अवाम को जहाँ मानसिक तौर पर सांप्रदायिक और नफ़रती बनाने का खेल तेज है, वहीं क्रिकेट ड्रीम और पब्जी आदि ऑनलाइन खेलों के माध्यम से रातों-रात करोड़पति बनने के ख्वाब ने मज़दूरों को उलझा दिया है।

वास्तविक एकताबद्ध संघर्ष ही रास्ता

आज मेहनतकश-मज़दूर आवाम के लिए हालात बेहद कठिनतम होते जा रहे हैं। हालांकि इसके खिलाफ मज़दूरों के संघर्ष का सिलसिला लगातार जारी हैं, लेकिन ज्यादातर आंदोलन स्वतःस्फूर्त होते हैं और किसी फैक्ट्री या छोटे-मोटे इलाकों तक केंद्रित रह जाते हैं।

कुल मिलाकर मेहनतकश आवाम के सामने कठिन और बड़ी चुनौतियां हैं। ऐसे में हालात को समझने की, आपसी विभाजनकारी राजनीति को समझने की, अपने वास्तविक हक को पहचानने की, सिर्फ अपने-अपने बारे में सोचने की जगह सामूहिक स्वार्थ हित में सोचने की और अपने संघर्षों को वास्तविक मुद्दों पर केंद्रित करने की जरूरत है।

इस कठिन चुनौती को समझकर, सत्ता के नापाक इरादों को समझकर, उनके जाल में फंसने की जगह अपने वास्तविक हित के संघर्ष को आगे बढ़ाने की जरूरत है। यही आज के दौर की माँग है।

संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका अंक-50 (सितंबर, 2023) में प्रकाशित

https://mehnatkash.in/2023/08/31/picture-story-there-is-no-respect-for-indians-on-vande-bharat/

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संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका के 50 अंक पर

सेमीनार

विषय: किन चुनौतियों से जूझ रहा है भारत का मज़दूर

रविवार, 24 सितम्बर, 2023, प्रातः 10 बजे से

रुद्रपुर, ऊधम सिंह नागर (उत्तराखंड) में

आप सादर आमंत्रित हैं!

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