बेरोजगारी तथा सरकार की और असंवेदनशील नीति

पद रिक्त, फिर भर्ती क्यों नहीं? पिछले 45 सालों में भाजपा शासन में सबसे ज्यादा बेरोजगारी है। रोजगार विहीन विकास हो रहा है। आज मुख्य प्रवृत्ति है फिक्स्ड टर्म, ठेका प्रथा, यानी स्थाई नौकरी गायब!
मोदी सरकार पिछले 11 सालों से यह कहती रही है की नौकरी देना हमारा काम नहीं है। उसकी फिलासफी है कि नौकरी देना उद्योग का काम है। यह भी कि उद्योग चलाना सरकार का नहीं पूंजीपतियों का काम है। इसलिए सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को विशेष कर गौतम अडानी को कौड़ियों के भाव बेच/ सौंप रही है।
सरकार पूरी बेशर्मी से कह रही है कि वह लोगों को नौकरी मांगने वाला नहीं बल्कि नौकरी देने वाला यानी उद्यमी बनना चाहिए। क्या सभी लोग उद्यमी बन सकते हैं। यदि सभी उद्यमी बन जाएंगे तो उसमें काम कौन करेगा? यह ठीक वैसे ही है कि सब लोग पकौड़े तलने लगेंगे तो उसे खरीदेगा कौन? उनकी समझ में पकौड़े बेचना भी एक काम है, ऐसा अमित शाह ने बयान दिया था।
बेरोजगारी के प्रति भाजपा सरकार असंवेदनशील
बेरोजगारी की समस्या के प्रति भाजपा सरकार असंवेदनशील है। भाजपा शासन में पिछले 45 सालों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी रही है। मोदी शासन में रोजगार विहीन विकास हो रहा है। भारत में कुल वर्क फोर्स 90 करोड़ है। 50 करोड लोग ऐसे हैं जो काम नहीं करते 90 करोड़ में से सिर्फ 56 करोड लोगों के पास ही काम है। बाकी 34 करोड़ लोग बेरोजगार हैं। 83% शिक्षित बेरोजगार हैं।
आंकड़ों के अनुसार कृषि में 45% -25 करोड़, मैन्युफैक्चरिंग में 11%- 6 करोड़, भवन निर्माण में 13%-7 करोड़, सेवा क्षेत्र में 28%-16 करोड़, अन्य में तीन प्रतिशत- 2 करोड़ लोग काम कर रहे हैं। इकोनामिक सर्वे 2024 के अनुसार 11 करोड लोग ही नियमित वेतन पाते हैं, बाकी के 45 करोड लोगों यानी 80% को नियमित वेतन नहीं मिलता है।
यह एक भयावह चित्र है। सर्वे के अनुसार इसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। पूंजीवादी राजनीति, अर्थशास्त्र निजी उपभोग/ मांग पर बहुत जोर देता है। बाजार में जब लोगों के पास समुचित क्रय शक्ति होगी तो मांग बढ़ेगी। जिसके कारण उत्पादन बढ़ेगा, फलस्वरुप नौकरी व जाब का अवसर बढ़ेगा और आर्थिक विकास दर बढ़ेगा।
कुल आबादी के 45% कृषि में लगे लोगों की आमदनी बहुत ही कम है जिससे वह उपभोग पर ज्यादा खर्च करने की स्थिति में नहीं है। इनका जीडीपी में 16% योगदान भर है। मैन्युफैक्चरिंग में लगे लोगों का जीडीपी में महज 15% है और जाब में 11% है। ज़्यादातर जॉब कम वेतन वाली है (रुपए 6000 से 15000) जीडीपी में 70% सेवा क्षेत्र का हिस्सा है लेकिन रोजगार में केवल 28 प्रतिशत का योगदान देता है। इसलिए कृषि, मैन्युफैक्चरिंग और सर्विस क्षेत्र मिला कर देखें तो कम आमदनी/ महंगाई, मुद्रास्फीति के कारण निजी खपत में वृद्धि की जगह ह्रास ही हो रहा है
सरकार हर साल बजट का 22% यानी 10 लाख करोड रुपए आधारभूत क्षेत्र में जैसे सड़कों, हाईवे, एक्सप्रेस वे, टनल, सुरंग, पुलों, रेलवे, एयरपोर्ट, बंदरगाह, मशीनों का निर्माण, अस्पताल आदि में खर्च करती है। अब रेलवे, डिफेंस उत्पादन, एयरपोर्ट, बंदरगाह और भारी उद्योगों को निजी पूंजीपतियों को सौंप रही है।
सरकार ही नहीं दे रही नियमित जॉब तो पूंजीपति क्यों देंगे?
सरकार जो अकूत मुनाफा निजी पूंजीपतियों को मुहैया करा रही है उसका बहुत बड़ा हिस्सा वे वित्तीय सेक्टर में लगा रहे हैं। उद्योग में निवेश दर 30% है तो वित्तीय क्षेत्र में खासकर रियलएस्टेट में 105 प्रतिशत है। रियल स्टेट में इसलिए कि वहां नियमित नौकरी नहीं देनी पड़ती है। वहां ठेकेदारी प्रथा पर मजदूर और इंजीनियर काम करते हैं। और मुनाफा भी उद्योग की तुलना में कई गुना ज्यादा है।
सर्वे के अनुसार रेलवे बनाने से लेकर एयरपोर्ट और बंदरगाह तथा हाईवे और जो कुछ भी बन रहा है उसमें कहीं भी स्थाई नियमित जॉब नहीं मिल रहा है क्योंकि सरकार की नीयत ही नहीं है। जब सरकार ही नियमित जॉब नहीं दे रही है, तो पूंजीपति क्यों देंगे? श्रम कानून को सरकार ने पूरी तरह बदल दिया है, ताकि ठेका प्रथा पूरी तरह से लागू किया जा सके।
सरकार जो पूंजी निवेश कर रही है उसे चुनावी राजनीति में जनता को बरगलाने का मौका मिल रहा है। वह कहती है हम विकास के लिए 10 लाख करोड़ सालाना खर्च कर रहे हैं। लेकिन लोगों को नियमित नौकरी नहीं मिल रही है। जिससे उसका जीवन ढंग से नहीं चल पा रहा है। सरकार और पूंजीपति जो जॉब दे रहे हैं सब टेंपरेरी जॉब हैं।
पूंजी की कमी नहीं है। यह एक दुष्चक्र बन चुका है जिसमें छात्र, युवा और मजदूर सभी पिस रहे हैं। और निरंतर नियमित जॉब खत्म हो रहे हैं हर जगह संविदा/ठेके पर लोगों को रखा जा रहा है। मोदी सरकार ने 500 बड़े पूंजीपतियों से अपील की है की रुपए 6000 इंटर्नशिप देकर युवाओं को 1 साल के लिए अप्रेंटिस रख लें। इतने कम पैसे के बाद भी युवाओं की नौकरी नहीं मिलनी है।
कोरोना काल में पूँजीपतियों को भारी मुनाफा लेकिन जॉब नहीं
कोरोना काल के दौरान जब लोग 2 जून की रोटी के लिए तरस रहे थे तब अडानी और अंबानी जैसे पूंजीपतियों की आय 70 करोड़ से लेकर 100 करोड रुपए प्रति घंटा बढ़ रही थी। भारत में 33000 बड़ी कंपनियां हैं जिन्हें कोविड के दौरान और बाद में पहले की अपेक्षा चार गुना मुनाफा हुआ। पहले इनका मुनाफा 5 लाख करोड़ सालाना था जो बढ़कर 20 लाख करोड़ हो गया। लेकिन जॉब में कोई वृद्धि नहीं हुई। जहां जनता पर जीएसटी, वेट, इनकम टैक्स और अन्य ढेरों टैक्स की भारी मार पड़ रही है तथा उनकी आए नहीं बढ़ रही है।
मोदी शासन काल से पहले के 65 वर्षों में भारत पर 55 लाख करोड रुपए का कर्ज था। और भाजपा शासन के 10 साल में डेढ़ सौ करोड रुपए का कर्ज लिया गया जो अब 200 लाख करोड रुपए लगभग हो रहा है। प्रत्येक भारतीय के ऊपर 1 लाख रुपये से अधिक का कर्ज है। सरकार प्रतिवर्ष बजट का 20% लगभग 10 लाख करोड रुपए सूद के रूप में दे रही है। जो विभिन्न प्रकार के टैक्स लगाकर गरीब जनता की जेब से वसूल रही है। यह भी जनता की क्रय शक्ति कम होने का एक महत्वपूर्ण कारण है।
वहीं सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स 35% से घटाकर 22% कर पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाया। पिछले 11 साल में सरकार ने जनता के पैसों का 16 लाख करोड रुपए का कर्ज पूंजीपतियों का माफ कर उन्हें राहत पहुंचाया। इसके अलावा हर महीने 33000 बड़ी कंपनियों को डेढ़ लाख करोड़ का कंसेशन दिया। कुल मिलाकर 9 लाख करोड़ का प्रॉफिट कंसेशन के रूप में पिछले 5 साल में दिया गया। लेकिन उन्होंने कोई जॉब पैदा नहीं किया।
2 करोड़ सरकारी पद रिक्त, भर्ती क्यों नहीं?
इस समय सरकार में 2 करोड़ नियमित पद रिक्त पड़े हैं, लेकिन सरकार उन्हें नहीं भर रही है। बैंकों का उदाहरण देखें कि बैंकों का लाभ निरंतर बढ़ा है लेकिन नौकरियां घट गई है। आरबीआई के आंकड़ों के हिसाब से पहले बैंकों में 25% ऑफिसर और 75% कर्मचारी होते थे परंतु अब 75% अफसर हो गए हैं और 25 प्रतिशत वर्किंग स्टाफ है। पहले बैंक के ब्रांच में 10 स्टाफ थे तो अब 4 ही रह गए हैं। हर क्षेत्र में प्रॉफिट बढ़ा है लेकिन कोई जॉब देने को तैयार नहीं है। कंपनियां सरकारी पार्टी को चंदा दे देती है उनका काम समाप्त हो जाता है।
मुख्य बात यह समझने वाली है कि पूंजीवादी व्यवस्था जो मुनाफे पर आधारित है, न कि मानव जीवन की बेहतरी के लिए, कि इस समय मुख्य प्रवृत्ति यह है कि मैनपॉवर नहीं चाहिए और इसलिए बेरोजगारी चरम पर है। जिनके पास संपदा नहीं है, वह चाहे तो मर जाए लेकिन सरकार कोई जिम्मेदारी नहीं लगी।
चक्रव्यूह से बाहर निकालकर सही संघर्ष ही रास्ता
श्रीलंका और बांग्लादेश में महंगाई व बेरोजगारी के खिलाफ व्यापक जन विद्रोह की स्थिति पैदा हुई और वहां सत्ता परिवर्तन हुआ। बेरोजगारी से क्षुब्ध दसियों हजार छात्रों, नौजवानों ने नवंबर के दूसरे सप्ताह में इलाहाबाद में व्यापक आंदोलन चलाया और उत्तर प्रदेश सरकार को छात्र विरोधी निर्णय वापस लेने को मजबूर किया। हो सकता है कि बेरोजगारी के कारण ही हमारे देश में भी कोई बड़ा जन विद्रोह पैदा हो तो कोई आश्चर्य नहीं है।
लेकिन नौजवान एवं देश की जनता को यह समझना होगा कि जब तक पूंजीवादी उत्पादन व्यवस्था है और पूंजीवाद-साम्राज्यवाद का शासन कायम है तब तक बेरोजगारी का कोई बुनियादी समाधान संभव नहीं है। उसे अपने आंदोलन की दिशा और उसका लक्ष्य दोनों ठीक से तय करना होगा तभी उनके आंदोलन का सकारात्मक फल निकल सकेगा।
अन्यथा सरकारों की अदला बदली होती रहेगी और समस्या जस की तस बनी रहेगी रंग-बिरंगे वायदों की झड़ी लगाकर सत्ता में आती और जाती रहेगी तथा लोग ठगे जाते रहेंगे। धर्म-जाति के उन्मादी जुनून में आम जनता, विशेष रूप से युवाओं को उलझाकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे।
हमें इस चक्रव्यूह से निकलने के बारे में और बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के बारे में गहराई से सोचना पड़ेगा।
-विजय कुमार