आज अमर शहीद ऊधम सिंह को याद करना और भी ज़रूरी है!

ऊधम सिंह अमन-चैन वाले समता मूलक समाज निर्माण के प्रति समर्पित व मजहबी नफ़रत व बंटवारे के घोर विरोधी थे। उन्होंने अपना नाम ‘राम मुहम्मद सिंह आज़ाद’ रखा था। उन्हें महज बलिदान देने वाले जुनूनी देशभक्त बताना गलत है!
भारत की आज़ादी के आन्दोलन के उधम सिंह अमर सेनानी रहे हैं। उनके शख्सियत के बारे में जनमानस में अलग-अलग किस्से प्रचलित हैं, जिनमें उनका अपनी मातृभूमि से अटूट प्रेम, बहादुरी, त्याग और समर्पण साफ-साफ झलकता है।
वे मुकम्मल इंक़लाबी थे, जिनका एकमात्र लक्ष्य जलियाँवाला बाग नरसंहार का बदल लेना नहीं था। बल्कि वे मजहबी नफ़रत व बंटवारे के घोर विरोधी और बराबरी व अमन-चैन वाले समाज के प्रति समर्पित थे। इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर ‘राम मुहम्मद सिंह आज़ाद’ रख लिया था।
बेहद संघर्षमय जीवन
26 दिसम्बर, 1899 को पंजाब के संगरूर जिले के सूनाम कस्बे में जन्मे ऊधम सिंह के सिर से आठ साल की छोटी सी उम्र में ही माता-पिता का साया उठ गया। जिसके चलते उनकी परवरिश अमृतसर के खालसा अनाथालय में हुई। जाहिर है ऊधम सिंह का बचपन बेहद संघर्षमय गुजरा।
इन्हीं हालात में उन्होंने साल 1917 में मैट्रिक परीक्षा पास की। इसके बाद उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रान्तिकारियों के साथ मिलकर जंग-ए-आज़ादी के मैदान में कूद पड़े।
बताया जाता है कि ऊधम सिंह का वास्तविक नाम शेर सिंह था। साल 1933 में वे जब जर्मनी गये, तो अंग्रेज हुकूमत से बचने के लिए उन्हें अपना नाम बदलना पड़ा। उन्होंने ऊधम सिंह नाम से अपना पासपोर्ट बनवाया और इसी नाम से यूरोप के कई मुल्कों की यात्रा की और इंग्लैण्ड पहुंचे। ऊधम सिंह नाम से उन पर ओडवायर हत्याकाण्ड का मुकदमा चला और यह नाम इतिहास प्रसिद्ध हो गया।
जवां होते ऊधम सिंह का दौर, आजादी आंदोलन की चरम सरगर्मियों का दौर था। पूरे मुल्क में और पंजाब की सरजमीं से उस दौरान मुल्क की आजादी के लिये आंदोलनों का दौर तीखा था। कई धारायें सक्रिय थीं। गदर पार्टी के आंदोलन का नौजवानों पर सबसे ज्यादा असर था। करतार सिंह सराभा, मदनलाल ढींगरा, सुखदेव, सेवा सिंह ठीकरीवाला से लेकर शहीद भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी गदर पार्टी की ही परंपरा के वाहक थे। ऊधम सिंह पर भी इसका असर पड़ा और वे गदर पार्टी से ही जुड़े।
ऊधम सिंह 1924 में विदेशों में भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली क्रान्तिकारी गदर पार्टी में सक्रिय रहे और विदेशों में चन्दा जुटाने का काम किया। उन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए), इण्डियन वर्कर्स एसोसिएशन आदि क्रान्तिकारी संगठनों के साथ अलग-अलग समय पर काम भी किया।
जन आंदोलन को कुचलने का हथियार था रोलेट ऐक्ट
‘रॉलेट ऐक्ट 1919’ (अराजक और क्रान्तिकारी अपराध अधिनियम, 1919) को भारत में उभर रहे राष्ट्रीय आन्दोलन को कुचलने के उद्देश्य से निर्मित किया गया था। इस क़ानून के अनुसार ब्रिटिश सरकार किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुक़दमा चलाये और सुनवाई किये उसे जेल में डाल सकती थी। आरोपी को उसके ख़िलाफ़ मुक़दमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया था।
इस काले क़ानून के विरोध में देशव्यापी हड़तालें, जुलूस और प्रदर्शन हो रहे थे। उसी क्रम में पंजाब के जलियाँवाला बाग में विरोध सभा थी, जहाँ अंग्रेजी हुकूमकत ने भयावह नरसंहार को अंजाम दिया।
जलियाँवाला बाग नरसंहार का व्यापक असर
अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ हत्याकाण्ड ब्रिटिश हुकूमत के काले अध्यायों में से एक है। 13 अप्रैल 1919 वैशाखी के दिन अमृतसर जलियाँवाला बाग नरसंहार ने युवा ऊधम सिंह की जिंदगी हलचल पैदा कर दी। ब्रिटिश उपनिवेशवादी काले कानून ‘रोलेट एक्ट’ का शांतिपूर्ण प्रतिरोध करने जलियांवाला बाग में हजारों वतन परस्त इकट्ठे हुये थे। तत्कालीन पंजाब गवर्नर माइक ऑडवायर ने अमृतसर के सेना अधिकारी जनरल डायर को इस आंदोलन को सख्ती से कुचलने का आदेश दिया।
जलियाँवाला बाग़़ में शान्तिपूर्वक तरीक़े से विरोध कर रहे महिलाओं-बच्चों-बूढ़ों समेत सैकड़ों भारतीयों पर अंग्रेज़ी हुकूमत के नुमाइन्दों ने अन्धाधुँध गोलीबारी कर उनकी निर्मम हत्या कर दी थी। जनरल डायर ने निहत्थी जनता पर इतिहास का क्रूर हत्याकाण्ड अंजाम दिया। जिसमें एक हजार से ज्यादा देशभक्त शहीद हुए।
मक़सद को पाने का जुनून
ऊधम सिंह खुद जलियांवाला बाग की सभा में मौजूद थे। उन्होंने इस ख़ूनी दृश्य को अपनी आँखों से देखा था। नौजवान ऊधम सिंह ने घायलों की जमकर सेवा की और जलियांवाला बाग की शहीदों के खून से सनी मिट्टी को उठाकर शपथ ली कि वे इस कत्ले-आम के जिम्मेदार डायर-ओडवायर की जोड़ी को का अंत कर जरूर बदला लेंगे। यह उनकी जिंदगी का एक मिशन था।
ऊधम सिंह साल 1922 तक केन्या की राजधानी नैरोबी में रहे। केन्या जाने से पहले ही वे गदर आंदोलन में सक्रिय हो गए थे। साल 1924 में ऊधम सिंह अमेरिका चले गए। जहाँ वे लाला हरदयाल के संपर्क में आए और फिर गदर पार्टी से पूरी तरह से जुड़ गए।
इसी दौरान पंजाब में उनका वास्ता क्रांतिकारी भगत सिंह से हुआ, जिनके क्रांतिकारी विचारों से वे बेहद प्रभावित थे। अपने से कम उम्र होने के बावजूद भगत सिंह को वे अपना आदर्श मानते थे।
अमेरिका प्रवास के दौरान ऊधम सिंह ने जर्मनी, बेल्जियम, स्विट्जरलैंड, हालैंड, लिथुआनिया, हंगरी, इटली आदि मुल्कों की यात्रायें की और यूरोपीय मुल्कों में हो रहे बदलावों का नजदीक से अध्ययन किया। साल 1927 में भगत सिंह की सलाह पर ऊधम सिंह हिन्दुस्तान वापस लौटे।
लौटने पर वे अपने साथ क्रांतिकारी गतिविधि के लिए बड़ी संख्या में हथियार लेकर आए। लेकिन बरतानिया पुलिस को इस बात की पहले ही भनक लग गई। उन्हें एयरपोर्ट पर ही असलाह समेत गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस ने उनके पास से गदर पार्टी के जरूरी दस्तावेज भी बरामद किए।
उन्हें आर्म्स एक्ट के तहत पांच साल की सजा सुनाई गई। अदालत में ऊधम सिंह ने बड़ी ही बहादुरी से अपना जुर्म कबूल करते हुए कहा कि‘‘वे इन हथियारों को अंग्रेजों के खिलाफ इस्तेमाल करना चाहते थे और उनका मकसद अपने मुल्क को आजाद कराना है।’’
ऊधम सिंह जिस वक्त कारावास में सजा भुगत रहे थे, तब मुल्क में क्रांतिकारी घटनायें अपने चरम पर थीं। इसी दौरान अंग्रेज हुकूमत ने क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी दे दी।
साल 1932 में कैद से रिहाई के बाद ऊधम सिंह अपने गांव सूनाम गए। लेकिन वे अंग्रेज सरकार की नजर में थे। पुलिस से छुपते-छुपाते वे अमृतसर पहुंचे। इसी दौरान उन्होंने अपना नाम बदलकर राम मुहम्मद सिंह आजाद रख लिया और इसी नाम से आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेते रहे।
नरसंहार का यूं लिया बदला
इस दौरान उन्होंने लंदन जाने की कोशिशें बराबर जारी रखीं। जनरल डायर और गवर्नर माइक ओडवायर इंग्लैण्ड चले गए थे और ऊधम सिंह का आखिरी मकसद जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के गुनहगारों से बदला लेना था। वे अपने इस मकसद से बिल्कुल भी नहीं भटके थे। उन्हें सिर्फ एक वाजिब मौके की तलाश थी।
जलियांवाला बाग कत्लेआम का आदेश देने वाला जनरल डायर तो इंग्लैण्ड पहुंचकर जल्द ही मर गया था, लेकिन माइक ओडवायर और पूर्व भारत सचिव लार्ड जेटकिंस अभी जिंदा थे। उनसे बदला लेना अभी बाकी था। इक्कीस साल बाद, यानी 13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हॉल में एक मीटिंग थी। जहाँ जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड के लिए जिम्मेदार, ओडवायर और जेटकिंस दोनों शामिल थे।
ऊधम सिंह को अपना बदला लेने के लिए यह मौका मिल गया। बैठक समाप्त होते ही ऊधम सिंह ने माईक ओडवायर और लार्ड जेटकिंस पर दनादन गोलियां दाग दीं। इसमें जेटकिंस गंभीर रूप से घायल हो गया, मगर ओडवायर ने मौके पर ही दम तोड़ दिया।
बहादुरी से दी गिरफ़्तारी
बदला लेने के बाद ऊधम सिंह भागे नहीं, बल्कि खुद पुलिस को अपनी गिरफ्तारी दी। गिरफ्तारी के बाद, उन पर अदालती कार्यवाही शुरू हुई। अदालती कार्रवाई महज दिखावा थी, जिसकी सजा पहले से ही मुकर्रर थी। कोर्ट में ऊधम सिंह ने अपना पूरा नाम राम मुहम्मद सिंह आजाद बताया।
उन्होंने बयान दिया कि ‘‘हां मैंने यह कृत्य किया और मुझे इसका कोई अफसोस नहीं है। मुझे उनसे नफरत थी। मैंने उन्हें वही सजा दी जिसके वो हकदार थे।’’
ऊधम सिंह को 31 जुलाई, 1940 को पेन्टनविले जेल में फांसी दी गई और उन्हें वहीं दफना दिया गया। उनकी वीरता व जज़्बे को क्रान्तिकारी सलाम!
लंदन की इस घटना की सारी दुनिया में जबर्दस्त प्रतिक्रिया हुई। जर्मन रेडियो ने इस घटनाक्रम पर एक कार्यक्रम प्रसारित करते हुए कहा, ‘‘दुःखी और सताए हुए लोगों की आवाज बंदूक की नाल से निकलकर आई है। घायल हाथी की तरह हिंदोस्तानी कभी अपने दुश्मन को छोड़ते नहीं, बल्कि मौका मिलने पर बीस साल बाद भी अपना बदला ले सकते हैं।’’
ऊधम सिंह ने अपनी सरजमीं से जो कसम उठाई थी, उसे पूरा किया और गुनहगार अंग्रेज अफसर को मौत के घाट उतारकर, जलियांवाला बाग के शहीदों को सही मायने में अपनी श्रद्धांजलि दी।
उस समय ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ प्रतीकात्मक रूप से ही सही, यह बड़ी जीत थी। ऊधम सिंह ने अंग्रेजों से राष्ट्रीय अपमान का बदला ले लिया था। इस कारनामे ने हिंदोस्तानी नौजवानों में राष्ट्रीय स्वाभिमान का सोया हुआ जज्बा जगा दिया था।
अपने देश पर सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले ऊधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों द्वारा लगाई गई ये छोटी-छोटी चिंगारियां ही थीं, जिसने बाद में विस्फोट का रूप ले लिया और 15 अगस्त, 1947 को हमें आजादी मिली।
ऊधम सिंह के क्रांतिकारी विचार और मक़सद
यह गौरतलब है कि पूँजीपतियों के सरपरस्त सत्ताधारियों द्वारा भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, चन्द्र शेखर आज़ाद से लेकर ऊधम सिंह तक को केवल देश के लिए बलिदान देने वाले जुनूनी देशभक्ति की भावना से प्रेरित युवाओं के रूप में पेश किया जाता है।
सच यह है कि ये सभी क्रान्तिकारी भारत को सिर्फ़ अंग्रेज़ी हुकूमत से आज़ाद कराने के लिए नहीं बल्कि हर तरह की शोषक व्यवस्था से आज़ाद कराने के लिए संघर्षरत थे। साम्राज्यवाद और पूँजीवाद दोनों को ध्वस्त कर एक समतामूलक समाज की स्थापना उनका लक्ष्य था।
मुक़दमे के दौरान उन्होंने कहा, “मेरे जीवन का लक्ष्य क्रान्ति है। क्रान्ति जो हमारे देश को स्वतन्त्रता दिला सके। मैं अपने देशवासियों को इस न्यायालय के माध्यम से यह सन्देश देना चाहता हूँ कि देशवासियो! मैं तो शायद नहीं रहूँगा। लेकिन आप अपने देश के लिए अन्तिम साँस तक संघर्ष करना और अंग्रेज़ी शासन को समाप्त करना और ऐसी स्थिति पैदा करना कि भविष्य में कोई भी शक्ति हमारे देश को गुलाम न बना सके”।
इसके बाद हिन्दुस्तान ज़िन्दाबाद! और ब्रिटिश साम्राज्यवाद का नाश हो! नारे उन्होंने बुलन्द किये।
सभी धर्मों की जनता की एकता के कड़े हिमायती
ऊधम सिंह हिन्दू, मुस्लिम और सिख जनता की एकता के कड़े हिमायती थे, इसीलिए उन्होंने अपना नाम बदलकर ‘राम मोहम्मद सिंह आज़ाद’ रख लिया था। वे इसी नाम से पत्र-व्यवहार किया करते थे और यही नाम उन्होंने अपने हाथ पर भी गुदवा लिया था। उन्होंने वसीयत की थी कि फाँसी के बाद उनकी अस्थियों को तीनों धर्मों के लोगों को सौंपा जाये।
उन्होंने देश की जनता को आज़ादी से पहले ही चेता दिया था कि अगर हम धर्म या जाति के नाम पर आपस में झगड़ते रहेंगे, तो देश आज़ाद होने के बाद भी मेहनतकश आबादी का शोषण बदस्तूर जारी रहेगा।
सच्ची श्रद्धांजलि क्या हो?
आज के विकट संकट के दौर में, जब एक तरफ़ तो पूंजी की आंधी लूट ने मेहनतकश जनता को तंगहाल बना दिया है; शोषण चरम पर है और बेलगाम बेरोजगारी महँगाई ने जीना मोहल कर दिया है, दो दूसरी तरफ़ जाति व धर्म के नाम पर लड़ाने और नफ़रत की राजनीति चरम पर है। निश्चित ही कॉरपोरेट की बेलगाम लूट को बदस्तूर जारी रखने के लिए सत्ताधारियों, विशेष रूप से आरएसएस-भाजपा की सरकारों ने नफ़रती हिंसा और तफ़रका को तीखा कर दिया है।
ऐसे में अमर शहीद ऊधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों को याद करना, उनके विचारों और कर्म से प्रेरणा लेकर उनके समता मूलक समाज के निर्माण के संघर्ष को आगे बढ़ाने का संकल्प लेना होगा। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी!