सप्ताह की कविता : नीलाभ की तीन कविताएं !

PSX_20191209_003848

जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी / नीलाभ

जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
वहाँ से बहुत कुछ ओझल है

ओझल है हत्यारों की माँद
ओझल है संसद के नीचे जमा होते
किसानों के ख़ून के तालाब
ओझल है देश के सबसे बड़े व्यापारी की टकसाल
ओझल हैं ख़बरें
और तस्वीरें
और शब्द

जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
वहाँ से ओझल हैं
सम्राट के आगे हाथ बाँधे खड़े फ़नकार
ओझल हैं उनके झुके हुए सिर,
सिले हुए होंठ,
मुँह पर ताले,
दिमाग़ के जाले

जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
वहाँ एक आदमी लटक रहा है
छत की धन्नी से बँधी रस्सी के फन्दे को गले में डाले
बिलख रहे हैं कुछ औरतें और बच्चे
भावहीन आँखों से ताक रहे हैं पड़ोसी
अब भी बाक़ी है
लेनदार बैंकों और सरकारी एजेन्सियों की धमकियों की धमक

जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
वहाँ दूर से सुनाई रही हैं
हाँका लगाने वालों की आवाज़ें
धीरे-धीरे नज़दीक आती हुईं
पिट रही है डुगडुगी, भौंक रहे हैं कुत्ते,

जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
भगदड़ मची हुई है आदिवासियों में,
कौंध रही हैं संगीनें वर्दियों में सजे हुए जल्लादों की

जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
चारों तरफ़ फैली हुई है रात
ख़ौफ़ की तरह —
चीख़ते-चिंघाड़ते निशाचरी दानव हैं
शिकारी कुत्तों की गश्त है
बिच्छुओं का पहरा है
कोबरा ताक लगाए बैठे हैं

जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ
वहाँ एक सुगबुगाहट है
आग का राग गुनगुना रहा है कोई
बन्दूक को साफ़ करते हुए,
जूते के तस्मे कसते हुए,
पीठ पर बाँधने से पहले
पिट्ठू में चीज़ें हिफ़ाज़त से रखते हुए
लम्बे सफ़र पर जाने से पहले
उस सब को देखते हुए
जो नहीं रह जाने वाला है ज्यों-का-त्यों
उसके लौटने तक या न लौटने तक
इसी के लिए तो वह जा रहा है
अनिश्चित भविष्य को भरे अपनी मैगज़ीन में
पूरे निश्चय के साथ

जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
जल उठा है एक आदिवासी का अलाव
अँधेरे के ख़िलाफ़
जहाँ मैं साँस ले रहा हूँ अभी
ऐसी ही उम्मीदों पर टिका हुआ है जीवन


इस दौर में / नीलाभ

हत्यारे और भी नफ़ीस होते जाते हैं
मारे जाने वाले और भी दयनीय

वह युग नहीं रहा जब बन्दी कहता था
वैसा ही सुलूक़ करो मेरे साथ
जैसा करता है राजा दूसरे राजा से

अब तो मारा जाने वाला
मनुष्य होने की भी दुहाई नहीं दे सकता
इसीलिए तो वह जा रहा है मारा

अनिश्चय के इस दौर में
सिर्फ़ बुराइयाँ भरोसे योग्य हैं
अच्छाइयाँ या तो अच्छाइयाँ नहीं रहीं
या फिर हो गयी हैं बाहर चलन से
खोटे सिक्कों की तरह

शैतान को अब अपने निष्ठावान पिट्ठुओं को
बुलाना नहीं पड़ता
मौजूद हैं मनुष्य ही अब
यह फ़र्ज़ निभाने को
पहले से बढ़ती हुई तादाद में


यह ऐसा समय है / नीलाभ

यह ऐसा समय है
जब बड़े-से-बड़े सच के बारे में
बड़े-से-बड़ा झूठ बोलना सम्भव है
सम्भव है अपने हक़ की माँग बुलन्द करने वालों को
देश और जनता से द्रोह करने वाले क़रार देना
सम्भव है
विदेशी लुटेरों के सामने घुटने टेकने वाले प्रधान को
सन्त और साधु बताना
यह ऐसा समय है
जब प्रेम करने वाले मारे जाते हैं
पशुओं से भी बदतर तरीके से
इज़्ज़त के नाम पर
जब बेटे की लाश को
सूखी आँखों से देखती हुई माँ
कहती है
ठीक हुआ यह इसके साथ



नीलाभ अश्क

(१६ अगस्त १९४५ – २३ जुलाई २०१६)

नीलाभ का जन्म १६ अगस्त १९४५ को मुम्बई में हुआ। उनके पिता उपेन्द्रनाथ अश्क हिन्दी एवं उर्दू के नाटककार, उपन्यासकार तथा कहानीकार थे। नीलाभ ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी मास्टर की डिग्री पूरी की। १९८० में उन्होंने अगले चार साल तक एक निर्माता के रूप में हिंदी के बीबीसी लंदन के विदेशी प्रसारण विभाग के साथ काम करना शुरू किया। नीलाभ हिंदी कवि, आलोचक, पत्रकार एवं अनुवादक थे। उनके अनेक कविता संग्रह प्रकाशित हैं। कविता के अतिरिक्त उन्होंने आलोचना भी लिखी है। मौलिक लेखन के अतिरिक्त वे अनेक उल्लेखनीय लेखकों के साहित्य के अनुवाद के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। नीलाभ की मृत्यु २३ जुलाई २०१६ की सुबह ७० वर्ष की आयु में लंबी बीमारी के बाद हुई थी।


भूली-बिसरी ख़बरे