उदारीकारण-वैश्वीकरण की नीतियों और “विकास” के नारों के बीते तीन दशक मे विकास की सच्चाई क्या है? किसका हुआ विकास, कौन हुआ कंगाल? भ्रष्टाचार व सांप्रदायिकता एक साथ कैसे बढ़े? आइए जानें…
उदारीकरण के तीन दशक – जनता की तबाही बर्बादी के 30 साल -पहली किस्त
धारावाहिक प्रकाशित हो रहे इस आलेख द्वारा इसके विभिन्न पहलुओं की पड़ताल…
उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण, यानी आम जनता की तबाही की दास्तान…
नरेंद्र मोदी सरकार के देश बेचो अभियान के तहत अब रेल, सड़क, एयरपोर्ट, गैस पाइपलाइन, स्टेडियम, बिजली, गोदाम आदि को निजी हाथों में देने की घोषणा हो गई है। मजेदार यह है कि सरकार इसको बेचना नहीं बल्कि किराए पर देना बोल रही है! और इसको देश के “विकास” के लिए ज़रूरी बता रही है!
सरकार कह रही है देश का “विकास” हो रहा है और उधर आम जनता दम तोड़ रही है, कंगालीकरण बढ़ रहा है। नौकरी का कोई यकीन नहीं है; बड़ी आबादी के पास रोजगार ही नहीं है, जिनके पास है उनको ही छिनने का डर है। महंगाई आम जनता को लगातार बेहाल किए हुए है। दवा-इलाज, पढ़ाई-लिखाई तक माध्यम आबादी की भी पहुँच से दूर चल गया है…। तो विकास हो कहाँ रहा है?
चार दशक से लग रहे हैं “विकास” के नारे
“विकास” का यह नारा चार दशक पहले इंदिरा गांधी ने भी लगाया था। राजीव गांधी, बीपी सिंह, चंद्रशेखर सबने “विकास” की बात की। चंद्रशेखर ने कहा “देश के विकास के लिए जनता को पेट पर पट्टी बांधनी पड़ेगी।“ तो नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह की सरकार ने “विकास” के लिए कठोर फैसलों की बात की। देवेगौड़ा, गुजराल, बाजपेयी, मनमोहन सिंह सबने “विकास” के साथ कठोर फैसलों की ही गुहार लगाई। जनाब मोदी ने “अच्छे दिन” का ख्वाब दिखलाया…।
विकास के इन नारों के बीच बीते 40 सालों में करीब 2 रुपए किलो मिलने वाला चावल 30 रुपए किलो पहुंच गया, सरसों का तेल 12 रुपए से 180 रुपए हो गया। वही देश में अरबपतियों और खरबपतियों की संख्या में भी तेजी से इजाफा होता रहा, अमीरी-गरीबी के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती गई…।
आइए देखें उदारीकारण-वैश्वीकरण की नीतियों के लागू होने और “विकास” के नारों के तीन दशक (1991-2021) पूरा होने में असल विकास की सच्चाई क्या है? धारावाहिक किस्तों में प्रकाशित कर रहे इस आलेख के द्वारा हम इसके विभिन्न पहलुओं को देखेंगे।
हम देखने का प्रयास करेंगे कि बीते तीन दशक के दौरान कैसे मज़दूर वर्ग के ऊपर हमले भयावह होते गए? निजीकरण, छँटनी, बंदी, बेरोजगारी, महँगाई बेलगाम हुई, असमानता की खाई गहरी हुई? इसी के साथ कैसे जाति और धर्म के नाम पर इंसान और इंसान के बीच बंटवारे और खून-खराबे, दंगा-फसाद बढ़ते गए? भ्रष्टाचार चरम पर पहुँची और दमन तेज होता गया? कैसे उदारीकरण, वैश्वीकरण, निजीकरण की नीतियों की शुरुआत के साथ ही असमानता और वैमानस्यता एक साथ आगे बढ़ती गई?
यूं तो इन नीतियों को मुकम्मल तरीके से 1991 में नरसिम्हा राव मनमोहन सिंह की कांग्रेसी सरकार के दौर में लागू किया गया, लेकिन इसकी पृष्ठभूमि एक दशक पहले ही बन चुकी थी।
आज़ाद भारत की नीतियाँ और नए दौर का परिवर्तन
देश में 1947 की ब्रिटिश गुलामी से आजादी के बाद मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले कथित “समाजवादी” मॉडल पर, जिसे नेहरू मॉडल कहा जाता है, आज़ाद भारत की आधारशिला बनी। दरअसल इसकी बुनियाद मुनाफाखोर पूँजीपतियों के हित में ही पड़ी थी। जनता की ताक़त के दम पर तकनीक व उद्योग-धंधों के विकास की जगह रूस (पहले समाजवादी सोवियत संघ, जो बाद में साम्राज्यवादी खेमे का हिस्सा बनी), अमेरिका व अन्य साम्राज्यवादी मुल्कों पर निर्भरता बनी रही।
15 अगस्त, 1947 को भारत विदेशी कर्जे से पूरी तरह मुक्त ही नहीं था बल्कि उल्टे ब्रिटेन पर भारत का 16.12 करोड़ रुपये का कर्ज़ था। लेकिन आज भारत पर 40 हजार अरब रुपये से भी अधिक का विदेशी कर्ज़ लदा हुआ है (स्रोत: रिज़र्व बैंक)।
आजादी के इन 74 सालों के दौरान ना केवल यह तस्वीर उलट गई, बल्कि भारत साम्राज्यवादियों के भारी कर्ज के बोझ तले दब गया है। हालत ये हैं कि नये विदेशी कर्ज़ों का लगभग 40 प्रतिशत तो सिर्फ़ पुराने कर्ज़ों का ब्याज भरने में ही चला जाता है। मोदी सरकार के आने के बाद इसमें और भी तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है।
देश पर विदेशी कर्ज पिछले एक साल में 11.5 अरब डॉलर बढ़कर 570 अरब डॉलर हो गया (मार्च, 2021; स्रोत भारतीय रिजर्व बैंक)। यह कर्ज देश के कुल जीडीपी का 21 फीसदी है। यदि पिछले पाँच साल की बात करें तो यह कर्ज तेजी से बढ़ा है- विदेशी कर्ज 2017 में 471, 2018 में 539, 2019 में 543 और साल 2020 में 558 अरब डॉलर हुआ था।
ध्यान देने की बात है कि 1952 में पहले चुनाव तक नेहरू की सरकार (5 साल) में अम्बेडकर भी थे तो जनसंघ (वर्तमान भाजपा) के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी शामिल रहे। तबसे अबतक 50 साल कांग्रेस, 16 साल भाजपा (3 साल जनता पार्टी सरकार सहित), 8 साल जनता पार्टी, जनता दल और संयुक्त मोर्चा सरकारे रहीं। सभी सरकारों के केंद्र में मेहनतकश जनता की बलिबेदी पर मुनाफे के हित को साधना ही रहा।
इसलिए यह देश की जनता की तबाही और मुट्ठीभर धनपतियों की समृद्धि का मॉडल साबित हुआ। लेकिन बाद में नेहरू मॉडल भी मुनाफे की अंधी हवस की राह में बाधा बनने लगी और आम मेहनतकश जनता की दुख-तकलीफों का नया दौर शुरू हुआ।
मुनाफे के हित में वैश्विक पूँजी के सामने समर्पण
80 के दशक तक आते-आते देश और दुनिया के पैमाने पर कई तरीके के बदलाव सामने आए। एक तरफ तो भारत का पूँजीपति वर्ग पूँजी और नई टेक्नोलॉजी की कमी से जूझ रहा था। वहीं दूसरी ओर वैश्विक पूँजी के स्वामी अतिशय पूँजी और नई टेक्नोलॉजी को खपाने के लिए नई बाजार की तलाश में थे।
1947 की तरह 1980 में भी दो रास्ते मौजूद थे – एक देश की मेहनतकश जनता पर भरोसा करके उसके हित में नीतियाँ लागू करना। दूसरा पूँजीपति वर्ग के मुनाफे के हित में राह पकड़ना। भारत सरकार ने एकबार फिर दूसरी राह पकड़ी और मुनाफे के पक्ष में खड़ी हो गई।
ऐसे में भारत का पूँजीपति वर्ग और उसकी सत्ताधारी पार्टियों ने मेहनतकश जनता की कीमत पर वैश्विक पूँजी के सामने घुटने टेक कर उनकी शर्तों पर विदेशी पूँजी निवेश कराने और टेक्नोलॉजी लेने में ही अपने को ज्यादा उपयुक्त पाया।
80 के दशक में दुनिया के पैमाने पर एक तरफ अमेरिका और रूसी खेमे के बीच जारी शीतयुद्ध समाप्ति की ओर था और कथित समाजवादी सत्ताओं के पतन की शुरुआत हुई। जर्मनी की दीवार ढहने से लेकर सोवियत संघ के विघटन तक की प्रक्रिया चली। 1987 में डंकल प्रस्ताव आने के साथ महाशक्तियों के हित में पूरी दुनिया को अपना खुला बाजार बनाने के लिए गैट के उरुग्वे दौर की शुरुआत हुई।
ऐसे ही समय में इंदिरा व राजीव की कांग्रेस, बीपी सिंह और फिर चंद्रशेखर की गैर कांग्रेसी सरकारें बनी। चंद्रशेखर सरकार के दौरान ही देश का सोना गिरवी रखा गया था।
ज़ाहिरातौर पर ऐसा करने के लिए देश की व्यापक मेहनतकश आवाम के ऊपर ही पूरा बोझ लादा जाना था। और यहीं से देश की जनता पर कहर ढाने की नई शुरुआत होती है।
इस पूरे दौर में जनता की मेहनत को लूटकर-निचोड़कर ऊपर के पन्द्रह-बीस प्रतिशत लोगों की सम्पत्ति और अय्याशियाँ बढ़ती गयी हैं, माध्यम वर्ग का एक छोटे हिस्से के हाथ भी मलाई आई, जबकि व्यापक जनता के हिस्से में भयंकर शोषण, लूट-खसोट, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, अपराध, दंगे-फसाद, आपसी कलह-विग्रह, अत्याचार, दमन और उत्पीड़न आया है।
नरेंद्र मोदी सरकार के 7 सालों के दौरान जनता अबतक के सबसे बुरे दौर में चली गई और धनपतियों के और “अच्छे दिन” आ गए। कोरोना आपदा पूँजीपतियों के लिए बेहतरीन अवसर बना दिया गया। महामारी और थोपी गई मनमानी पाबंदियों के कारण करोड़ों मेहनतकश जन और ग़रीबी व बेरोज़गारी में धकेल दी गई, महँगाई विकराल हो गई। जबकि मोदी सरकार के चहेते पूँजीपतियों की संपत्तियाँ दोगुनी हो गयी।
क्रमशः जारी…
अगली किस्त में पढ़ें- कैसे हुई मेहनतकश की तबाही के नए दौर की शुरुआत?