मोदी सरकार का लक्ष्य था प्रतिवर्ष 13 लाख बंधुआ मजदूरों का पुनर्वास, हुए केवल 468

केंद्र सरकार ने 2030 तक 1.84 करोड़ बंधुआ मज़दूरों की मुक्ति और पुनर्वास का लक्ष्य रखा है, लेकिन 2023-24 में 500 बंधुआ मज़दूरों का भी पुनर्वास नहीं कराया जा सका. इन मजदूरों के पुनर्वास की दर में प्रतिवर्ष गिरावट आ रही है. वादा मुक्ति का था, हकीकत है गुलामी की. मजदूर दिवस पर पढ़िए ‘नये भारत’ में बंधुआ मज़दूर की त्रासदी..
नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश के एक सहारनपुर निवासी ने बेटे की शादी के लिए ठेकेदार से दस हजार रुपये का कर्ज लिया.
कर्ज न चुकाने पर ठेकेदार ने एक बिल्डर के साथ मिलकर बाप और उसके दो बेटों से दिल्ली के चावड़ी बाजार में बंधुआ मजदूरी करवाई. इस दौरान उनसे जबरन अधिक समय तक काम करवाया, कार्यस्थल पर बंद रखा और वेतन नहीं दिया.
चौबीस घंटे चलती इस गुलामी का चक्र आठ महीनेबाद टूटा, जब मजदूरी के दौरान छोटा बेटा गिरकर बुरी तरह घायल हो गया और इलाज के खर्च से बचने के लिए बिल्डर और ठेकेदार उन्हें धमका कर भगा दिया. इलाज के अभाव में अब घायल युवक की आंख की रोशनी कम होती जा रही है. यह मध्यकाल की किसी सामंती रिसायत में हुई घटना नहीं, बल्कि भारतीय संसद से सिर्फ़ पांच किलोमीटर की दूरी पर फरवरी-अक्टूबर 2024 के बीच घटित हुई त्रासदी है.
सोनीपत का ईंट भट्टा: पिछले साल दस हजार रुपये एडवांस के एवज में यूपी के बागपत जिले के एक परिवार के आठ सदस्यों को सोनीपत के ईंट भट्टे पर 5 माह 15 दिन तक बंधुआ मजदूर बनाकर रखा गया. इन आठ में से चार नाबालिग थे, एक बच्ची की उम्र तो महज एक वर्ष थी.
मजदूरों और नाबालिगों से जबरन काम लिया गया. काम के बदले वेतन नहीं दिया गया. खाना भी सिर्फ इतना दिया जाता कि वह जिंदा रह सके. एक रोज भूख से बेहाल एक सदस्य वहां से भाग निकला. दूसरे दिन परिवार के अन्य सदस्य भी अपना सामान आदि छोड़ वहां से भाग निकले. त्रासदी देखिये, जैसे-तैसे यह परिवार लंबा रास्ता तय कर अपने शहर पहुंचा, लेकिन रास्ते में ही परिवार की एक महिला सदस्य की तबियत बिगड़ने लगी और अपने घार आते ही मौत हो गई.
मुजफ्फरनगर की गुड़ फैक्ट्री: सड़क दुर्घटना में घायल नाबालिग बेटे के इलाज के लिए एक बाप ने अपने इलाके के एक गुड़ फैक्ट्री मालिक से दस हजार रुपये का कर्ज लिया. यह साल 2021 की बात है. 2023 तक जब कर्ज नहीं चुकाया तो फैक्ट्री मालिक ने कर्जदार, उसकी पत्नी और पांच बच्चों को फैक्ट्री में रहने और काम करने को कहा. इसके बदले 45 हजार रुपये प्रति माह देने का भी वादा किया.
पति-पत्नी के अलावा दो बड़े बच्चों ने भी 16 अगस्त, 2023 से 31 मई, 2024 तक काम किया. सीजन खत्म होने पर पैसा मांगने गए तो मालिक ने कहा दिया कि उन्हें खिलाने पिलाने में ही सब खत्म हो गए- अब उनके सिर्फ 45,000 रुपये बचे हैं जो बाद में मिलेंगे. इसके बाद परिवार ने घर जाने की इच्छा जताई तो उनके सामान को बंधक बना लिया गया. कुछ महीने बाद मालिक उन्हें दोबारा जबरन फैक्ट्री में ले आया और अप्रैल 2025 तक न सिर्फ अपने यहां बल्कि दूसरों के यहां भी काम कराया, भूखा रखा, मारपीट की और कर्जदार की पत्नी के साथ बदसलूकी भी की. इन सब के बाद उन्हें बिना वेतन दिए भगा दिया.
और भी उदाहरण गिनाए जा सकते हैं क्योंकि इस क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों की पास ऐसे मामलों की फाइल्स का अंबार लगा है. उपरोक्त तीनों मामलों में अब तक न तो पीड़ितों का बयान दर्ज किया गया है, न उन्हें रिलीज सर्टिफिकेट दिया गया है, न उनका वेतन उन्हें मिला और न ही आरोपियों के खिलाफ जांच और कार्रवाई हुई है.
जबकि केंद्र सरकार का विजन डॉक्यूमेंट कहता है कि ‘सज़ा दिलवाने की प्रक्रिया मज़बूत करनी है ताकि नए बंधन बनने से रोका जा सके और 100% दोषियों को सज़ा हो.’ बयान न दर्ज करना और पीड़ितों की पहचान बंधुआ मजदूर के रूप में कर उन्हें रिलीज सर्टिफिकेट न देना एक बड़ी समस्या है, जिससे पीड़ितों को पुनर्वास सहायता प्राप्त करने में कठिनाई होती है.
बंधुआ मज़दूरों के पुनर्वास के लिए केंद्र सरकार की योजना है, जिसके तहत बचाए गए बंधुआ मज़दूर को तत्काल 30,000 रुपये की सहायता देने का प्रावधान है. पुनर्वास के लिए 1 लाख रुपये, 2 लाख रुपये और 3 लाख रुपये तक की सहायता दी जाती है, जो मज़दूर की श्रेणी और उसके शोषण की गंभीरता के आधार पर दी जाती है, बशर्ते बंधुआ मज़दूरी प्रमाणित हो.
लेकिन यह तभी संभव है, जब डीएम या एसडीएम बंधुआ मज़दूर की पहचान कर रिलीज सर्टिफिकेट दें. बंधुआ मज़दूरों की पहचान, बचाव और पुनर्वास के लिए राष्ट्रीय स्तर काम करने वाली संस्था ‘नेशनल कैम्पेन कमेटी फॉर इरैडिकेशन ऑफ बॉन्डेड लेबर’ के संयोजक निर्मल गोराना ने द वायर हिंदी को बताया कि बंधुआ मज़दूरों की पहचान करना सरकारों की प्राथमिकता नहीं होती, और ज़िला प्रशासन अकसर रिहाई प्रमाण पत्र जारी ही नहीं करता.
संसद में प्रस्तुत किए गए ताजा आंकड़े बताते हैं कि 2023-24 में 500 बंधुआ मज़दूरों का भी पुनर्वास नहीं कराया जा सका है, जबकि केंद्र सरकार ने 2016 में 2030 तक 1.84 करोड़ बंधुआ मज़दूरों की पहचान, मुक्ति और पुनर्वास का लक्ष्य रखा था. इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए सरकार को हर साल औसतन करीब 13.14 लाख बंधुआ मज़दूरों का पुनर्वास करना होगा.
केंद्र सरकार ने 2016 के विजन डॉक्यूमेंट में आने वाले सात वर्षों में बंधुआ मज़दूरों की संख्या को 50% तक घटाने का लक्ष्य रखा था. रफ्तार बताती है कि लक्ष्य पूरा नहीं हुआ है. पिछले साल प्रकाशित इंडियास्पेंड की रिपोर्ट कहती हैं कि जिस गति से सरकार इस दिशा में काम कर रही है, उससे 2030 तक लक्ष्य का केवल दो प्रतिशत ही प्राप्त हो पाएगा.
लक्ष्य से चूकने के बावजूद केंद्र सरकार इसकी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ सकती है क्योंकि बंधुआ मज़दूरी प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम, 1976 की धारा 13 के अनुसार, राज्य सरकार को ही प्रत्येक ज़िले और उसके अधीन उप-मंडलों में सतर्कता समिति का गठन करना होता है (जैसा वह उचित समझे). यह समिति ज़िलाधिकारी या उनके द्वारा अधिकृत अधिकारी को इस अधिनियम के सही क्रियान्वयन में सलाह देती है.
यही समिति मुक्त किए गए बंधुआ मज़दूरों को आर्थिक और सामाजिक पुनर्वास दिलाने की ज़िम्मेदार भी होती है. केंद्र सरकार केवल श्रम और रोजगार मंत्रालय के माध्यम से पुनर्वास की योजना चलाती है, जो रिहा किए गए बंधुआ श्रमिकों के पुनर्वास में राज्य सरकारों की सहायता करती है. ध्यान देने वाली बात यह है कि यह योजना मांग पर आधारित है. ऐसे में लक्ष्य से चूकने पर केंद्र सरकार इसकी जिम्मेदारी राज्यों पर डाल सकती है.
ग्लोबल कमीशन ऑन मॉडर्न स्लेवरी एंड ह्यूमन ट्रैफिकिंग की एक रिपोर्ट बताती है कि ये अपराध ज़्यादातर उन व्यक्तियों और समूहों को प्रभावित करता है जो पहले से ही वंचित, हाशिए पर और भेदभाव का शिकार होते हैं. साल 2018 में प्रकाशित जावेद आलम खान का शोध अध्ययन (Assessing Budgetary Priorities for the Rehabilitation of Bonded Labour) बताता है कि ‘भारत की कुल श्रमिक शक्ति में से लगभग 10 प्रतिशत श्रमिक बंधुआ मज़दूरी की श्रेणी में आते हैं. अब तक जितने बंधुआ मज़दूरों का पुनर्वास हुआ है, उनमें से 83 प्रतिशत अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समुदाय से आते हैं.’
अपने अनुभवों को याद करते हुए निर्मल गोराना कहते हैं, ‘सबसे अधिक बंधुआ मजदूर दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोग ही बनाए जाते हैं. मुझे कोई सवर्ण समाज का बंधुआ मजदूर अब तक नहीं मिला.’
गोराना इसका बड़ा कारण दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों में शिक्षा का अभाव और संसाधन की कमी को मानते हैं.इसमें कोई मतभिन्नता नहीं है कि बंधुआ मजदूरी केवल आर्थिक शोषण की नहीं, बल्कि उस सामाजिक व्यवस्था की गवाही है, जहां गरीबी, जाति और असमानता आज भी शोषण के लिए खाद का काम करती हैं.