असम के चाय बागानों में खूबसूरत तस्वीरों के पीछे मजदूरों का रिसता दर्द

_108662518_b758fbec-6b6a-44a9-90d3-ffbd6fbddd07

बीबीसी की टियोक चाय बागान की ग्राउंड रिपोर्ट, मजदूरों के नारकीय जिंदगी की झलक


मुझे सुबह पांच बजे उठकर काम पर जाने की तैयारी करनी होती है. सुबह उठने के बाद पहले घर का काम निपटाना पड़ता है फिर बच्चों के लिए खाना बनाती हूं. मेरी तीन बेटियां है उनमें दो स्कूल जाती हैं. इसके बाद मैं साढ़े सात बजे घर से काम पर जाने के लिए निकलती हूं क्योंकि लेट पहुंचने वाले को बाबू गेट से ही घर भेज देते है. कड़ी धूप में चाय बागान में पत्ते तोड़ने में बहुत मेहनत लगती है. इसके लिए हमें 167 रुपये रोजाना मजदूरी मिलती है. आप देखिए,पत्ते तोड़ते-तोड़ते मेरी उंगलियां कट गई हैं. क्या करें काम नहीं करेंगे तो पेट कैसे भरेगा? टियोक चाय बागान में काम करने वाली 35 साल की लखीमोनी राजवार इतना कहते ही भावुक हो जाती हैं.


असम के टियोक चाय बागान में एक डॉक्टर की कथित तौर पर पीट-पीटकर की गई हत्या के बाद चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासी मजदूरों को लेकर कई सवाल खड़े हो गए हैं. इस घटना में पुलिस ने 36 लोगों को गिरफ्तार किया है और गिरफ्तार हुए सभी लोग चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासी मजदूर हैं. ऐसे में सवाल यह भी है कि आखिर चाय बागान के मजदूरों में इस तरह की कुंठा क्यों है? असम के चाय बागानों में मजदूरों के काम करने की खतरनाक और भयावह स्थितियां कहीं इन सबका कारण तो नहीं हैं? इसकी पड़ताल करने के लिए बीबीसी ने टियोक चाय बागान के एक नंबर माज लाइन में रहने वाले कई मजदूरों से बात की.


कीचड़ भरी कच्ची गली, पीने को गंदा पानी


टियोक चाय बागान के स्वामित्व वाली कंपनी अमलगमटेड प्लांटेशन प्राइवेट लिमिटेड ने अस्पताल के ठीक पीछे मजदूरों को रहने के लिए क्वार्टर की सुविधा दी हुई है. अस्पताल से थोड़ी दूर आगे बाईं तरफ कीचड़ से भरी एक कच्ची गली से होते हुए हम मजदूरों से मिलने उनके क्वार्टरों वाली लाइन में पहुंचे. आगे एक तिराहे पर कुछ आदिवासी महिलाएं गंदे नाले के पास से लोहे के पाइप से गिर रहे पानी को बर्तनों में भर रही थीं. वहीं हमारी मुलाकात लखीमोनी से हुई.


चाय बागान में काम के बदले मिलने वाली मजदूरी और सुविधाओं के बारे में वो कहती हैं, चाय बागान में 12 दिन काम करने पर मुझे 1,720 रुपए मिलते है. इतनी ज्यादा गर्मी होती है. शरीर हमेशा तो ठीक नहीं रहता. इसलिए कई बार काम पर नहीं जा पाती हूं. बागान की तरफ से 15 दिनों में छह किलो चावल और छह किलो आटा मिलता है. बड़ी मुश्किल से घर चलाना पड़ता है.


थोड़ी देर खामोश रहने के बाद वो रोती हुई कहती हैं, मुझे नहीं पता अब आगे क्या करूंगी. पति और मैं बागान में काम करके बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की सोच रहे थे लेकिन उन्हें पुलिस पकड़ कर ले गई. बागान बंद हो गया है. मुझे लग रहा है अब हम जिंदा कैसे रहेंगे. कमाई तो बंद हो गई है.


टियोक चाय बागान के अस्पताल में 31 अगस्त को डॉक्टर देबेन दत्ता की कथिक हत्या के मामले में पुलिस ने लखीमोनी के पति को भी गिरफ्तार कर लिया है. इस घटना के बाद कंपनी ने चाय बागान में ताला जड़ दिया है. ऐसे में लखीमोनी जैसे सैकड़ों मजदूरों को खाने के लाले पड़ने लगे है. दुर्गा पूजा करीब है और बागान बंद पड़ा है. लिहाजा, इस साल जो भी थोड़ा-बहुत बोनस मिलने की उम्मीद थी, बागान के बंद होने से अब वो भी खत्म हो गई.


ऐसा पानी पीने को मजबूर हैं चाय बागान के मजदूर


चाय बागान में 167 रुपये की दिहाड़ी के बदले एक मजदूर से कितना काम करवाया जाता है ? पास खड़ी मामोनी माझी इस सवाल का जवाब देती हैं, सुबह आठ बजे हम बागान में पत्ते तोड़ना शुरू करते हैं और शाम चार बजे तक काम करना पड़ता है. दिन में तीन दफा तोड़े हुए पत्तों का वजन तौला जाता है. धूप इतनी ज्यादा होती है कि कई बार चक्कर आने लगते हैं. कई मजदूरों को दस्त और उल्टी की शिकायत भी होती है. आठ घंटे की ड्यूटी में 24 किलो पत्ते तोड़ने होते हैं. अगर किसी कारण से कोई मजदूर 23 किलो से कम पत्ते तोड़ता है तो कंपनी उसे आधी मजदूरी ही देती है. 167 रुपए की मजदूरी में बच्चों को पढ़ाना बहुत मुश्किल होता है.


कंपनी से रहने के लिए दिए गए क्वार्टर की सुविधा पर मामोनी कहती हैं, मकान बहुत पुराने हैं. टॉयलेट वगैरह काफी खराब हो चुके हैं. उसी टूटे टॉयलेट में हमें जाना पड़ता है. पीने का पानी इस पाइप से लेते हैं. आप देखिए, हम कितना गंदा पानी पीते हैं. अगर कोई बीमार पड़ जाता है तो उसके घर वालों को पता ही नहीं चलता कि किस वजह से बीमार हुआ है. घर की तरफ आने वाली गली कच्ची है. बारिश के समय आना-जाना बहुत मुश्किल हो जाता है. माज लाइन में ही रहने वाली बबीता ग्वाला हमें अपने जर्जर घर की हालत दिखाने ले गईं.

टूटा-फूटा घर, छत से टपकता पानी


घर में घुसने से पहले बाहर बाईं तरफ नजर आ रहा बाथरूम पूरी तरह टूटा पड़ा था. उसके बिल्कुल पास बिना चारदीवारी के टूटा-फूटा कमोड से बबीता के उस घर की स्थिति का पता चला जाता है. घर के अंदर ले जाते हुए उन्होंने कहा, आइए देखिए मैं किस तरह के टूटे-फूटे घर में रहती हूं. टीन की छत से पानी टपकता है. टॉयलेट-बाथरूम तो महीनों से नहीं है. दरवाजे-खिड़कियां पूरी तरह टूटे हुए हैं. कई बार बारिश के समय पड़ोसियों के घर में जाकर बच्चों के लिए खाना बनाकर लाती हूं. पति की मौत के बाद इस बागान में मेरी नौकरी परमानेंट तो हो गई लेकिन रहने का घर वही है. टॉयलेट-बाथरूम भी बाहर करते हैं. इतनी धूप मे बागान में काम करके पूरी तरह थक जाती हूं और घर आकर जब ऐसी हालत देखती हूं तो रोना आता है.भारतीय कानून के मुताबिक बागान मालिक मजदूरों को रहने के लिए घर और टॉयलेट की सुविधा देना अनिवार्य है और उनकी मरम्मत की जिम्मेदारी भी उन्हीं की होती है.


केंद्र सरकार में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग राज्य मंत्री रामेश्वर तेली भी चाय जनजाति समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. वो मानते हैं कि बागान मालिक को मजदूरों को सारी सुविधाएं देनी चाहिए. रामेश्वर तेली ने बीबीसी से कहा, चाय बागान में जो हॉस्पिटल हैं, उनमें कई बार दवाइयां नहीं होती हैं. बागान के मजदूर बहुत मेहनत से काम करते हैं. कई बार उन्हें गुस्सा आ जाता है. बागान के मालिक को मजदूरों को सभी सुविधाएं देनी चाहिए.


मजदूरों के क्वार्टर


चाया बागानों के मजदूरों को इतनी कम मजदूरी में काम करना पड़ता है. आप केंद्र सरकार में मंत्री हैं, क्या इस बारे में कुछ नहीं किया जा सकता ? हमारे इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, हमने चाय बागान की मजदूरी को बढ़ाने के लिए कई बार बात की है लेकिन बागान के मालिक मना कर देते हैं. बहुत से चाय बागान बंद हो गए हैं. बंगाल में तो करीब 40 बागान बंद हो गए हैं. असम में हमारी सरकार चाय बागान के युवक-युवतियों के लिए काम कर रही है. हम बागान की लड़कियों को नर्सिंग की पढ़ाई करवा रहे हैं और युवकों को थ्री-व्हीलर गाड़ी दे रहें ताकि वो थोड़ी कमाई कर सकें. इसके अलावा चाय बागान के लोगों के लिए सरकार ने कई स्कीम शुरू की है.
असम में 1860 से 1890 के दशक के दौरान कई चरणों में चाय बागानों में मजदूरों के तौर पर काम करने के लिए झारखंड, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ से आदिवासियों को यहां लाकर बसाया गया था. मगर इतने लंबे समय के बाद भी इन्हें न तो पर्याप्त मजदूरी मिलती है और न ही इनके पास रहने और बच्चों को अच्छी शिक्षा मुहैया कराने की कोई सुविधा है. इसी चाय बागान की महिला सरदार संगीता राजवार कहती हैं कि जब तक मजदूरी बढ़ाई नहीं जाएगी बागान में काम करने वाले मजदूरों के जीवन स्तर में कोई बदलाव नहीं आएगा.


तय मानक से बहुत बुरी स्थिति


वो कहती हैं, इतनी मंहगाई है, 167 रुपये की मजदूरी से आप क्या खरीदेंगे और क्या खाएंगे? बागान में काम करने वाली महिला 35 साल में ही बूढ़ी दिखने लगती हैं. इतनी धूप में मेहनत करने के बाद शरीर को ठीक रखने के लिए अच्छा खाना भी चाहिए. उसी 167 रुपए की मजदूरी से बच्चों को भी पढ़ाना है. क्या यह संभव है? हम कर भी क्या सकते हैं? यही काम हमारे नसीब में है. बाहर हमें कौन काम देगा? जोरहाट के पास मेलेंग चाय बागान में रहने वाले नसीब गोसाईं फिलहाल ग्रेजुएशन की पढ़ाई कर रहें है.


बागान में काम करने वाले अपने पिता का जिक्र करते हुए वो कहते हैं, हमारे परिवार में चार लोग हैं. पिता जी मेलेंग चाय बागान में अस्थायी मजदूर हैं और उन्हें सिर्फ 167 रुपये मिलते हैं. इतने कम पैसे में घर का खर्च नहीं चल पाता और पढ़ाई करने के लिए भी पैसा चाहिए. चाय जनजाति सुमदाय से कई लोग बड़े नेता बने हैं लेकिन उन्होंने भी हमारे लिए कुछ खास नहीं किया. यही हाल रहा तो मुझे पढ़ाई छोड़कर मजदूरी करनी होगी.


भारत में चाय उत्पादकों का प्रतिनिधित्व करने वाली कई संस्थाओं ने यह बात स्वीकार की है कि चाय बागानों में काम करने की स्थितियां मौजूदा मानकों से बहुत नीचे हैं. असम के करीब 800 चाय बागान हैं और यहां सैकड़ों मजदूर काम करते हैं. असम टी ट्राइब स्टूडेंट एसोसिएशन के अध्यक्ष राजेन कुमार दावा करते हैं कि उनका संगठन मजदूरों के हित में वर्षों से आवाज उठा रहा है.

क्या सरकार कुछ करेगी?


वो कहते हैं, चाय बागान मजदूरों की मजदूरी बढ़ाने के लिए हमारा संगठन लंबे समय से सरकार से मांग कर रहा है. हमारी मांग है कि 167 रुपये की न्यूनतम मजदूरी को 351 रुपये किया जाए. बीजेपी ने चुनाव से पहले कहा था अगर सरकार आई तो वो मजदूरी 351 रुपये कर देगी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद ये बात कही थी लेकिन इस पर अब तक अमल नहीं हुआ.


चाय बागानों में काम करने वाले मजदूरों की ऐसी हालत और कंपनी के मानकों पर बात करने के लिए हमने कई बागानों से संपर्क करने की कोशिशि की लेकिन मौजूदा माहौल में बागान मालिकों की तरफ से कोई प्रतिक्रिया देने के लिए तैयार नहीं हुआ.

दिलीप कुमार शर्मा ( बीबीसी न्यूज हिंदी से साभार )

भूली-बिसरी ख़बरे