हिंदी का महत्व देश में उतना ही है जितना मराठी, बंगाली, पंजाबी या तमिल का

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भाजपा द्वारा पूरे देश में हिन्दी भाषा थोपने की कोशिश और कई राज्यों में विरोध के बीच पत्रकार दिनेश श्रीनेत लिखते हैं कि जब तक हिंदी को थोपा जाता रहेगा, वह बनावट वाली भाषा बनी रहेगी।

पिछले सप्ताह नई दिल्ली में संसदीय राजभाषा समिति की 37वीं बैठक के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने फिर कहा कि हिंदी को अंग्रेजी भाषा के विकल्प में चुना जाना चाहिए। इससे पूर्व 2019 में भी अमित शाह ने हिन्दी दिवस पर ऐसे ही बयान दिए थे। आरएसएस और भाजपा के कई नेता व मंत्री बीच-बीच में ऐसे बयान उछलते रहते हैं।

गृह मंत्रालय ने संसदीय राजभाषा समिति की 37 वीं बैठक में शाह के हवाले से जानकारी दी कि “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फैसला किया है कि सरकार चलाने का माध्यम राजभाषा है, और इससे निश्चित रूप से हिंदी का महत्व बढ़ेगा। अब समय आ गया है कि राजभाषा को देश की एकता का महत्वपूर्ण अंग बनाया जाए। जब अन्य भाषा बोलने वाले राज्यों के नागरिक एक-दूसरे के साथ संवाद करते हैं, तो यह भारत की भाषा में होना चाहिए”।

अमित शाह के इस ताजा बयान को लेकर दक्षिण भारत, महाराष्ट्र से लेकर पश्चिम बंगाल व पंजाब तक विरोध के स्वर तेजी से मुखर हुए हैं।

दरअसल देश की विविधता और अस्मिता को नष्ट करने का आरएसएस-भाजपा का मिशन लगातार जारी है। ‘एक राष्ट्र, एक भाषा’ का कथित एजेंडा उसी अभियान का हिस्सा है जो बहु भाषाई इस देश में हिन्दी थोपे जाने के रूप में आ रहा है।

इस मुद्दे पर वरिष्ठ समीक्षक दिनेश श्रीनेत का यह आलेख गौरतलब है-

हिंदी का महत्व देश में उतना ही होना चाहिए जितना मराठी या उड़िया का। न कम न ज्यादा। कोई भाषा जबरन अपना विशेषाधिकार दिखाए यह भी एक किस्म का भाषाई सवर्णवाद है। 

दक्षिण को छोड़ दें तो हिंदी भाषी राज्यों में भी शुद्ध हिंदी नहीं बोली जाती, राजस्थानी हिंदी, हरियाणवी हिंदी से अलग है तो उत्तराखंड की हिंदी बिहार की हिंदी से अलग। संगीत और सिनेमा ने इस भाषायी लोकतंत्र और विविधता को स्वीकार कर लिया है मगर हिंदी साहित्य ने नहीं। मानक हिंदी के नाम पर तो एक जीवंत भाषा को लगभग हास्यास्पद बना दिया गया है। 

दूसरे, अंगरेजी के प्रति ललक भी हिंदी समाज में ज्यादा है। यूपी-बिहार का समाज हीनता का शिकार है और अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर उसमें जरा भी आत्मगौरव नहीं है। तीन-चार साल बंगलुरू में रहने के बाद- जहां लगभग छह या सात भाषाएं बराबर अनुपात में बोली जाती हैं – यह समझ पाया दक्षिण में अंगरेजी जरूरत से उपजी भाषा है न कि खुद को अभिजात्य दिखाने के लिए इसका सहारा लिया जाता है। 

वहीं बंगाल ने सबसे पहले अंगरेजी आत्मसात किया। इस कम्यूनिटी की अंगरेजियत का हाल तो यह था कि नीरद सी चौधरी को ‘द लास्ट ब्रिटिश’ कहा गया। बंगालियों ने अंगरेजी भाषा में विश्वस्तरीय साहित्य रचा मगर अपनी भाषा का गौरव और मान बरकरार रखा। तमिलभाषी लोगों का अपनी भाषा के प्रति अभिमान भले हमें कभी-कभी अखरता हो और असहिष्णु लगता हो मगर इस आग्रह ने उन्हें सांस्कृतिक रूप से ज्यादा समृद्ध बनाया है।

मुझे नहीं लगता कि प्रयास करके किसी भी भाषा को बचाया जा सकता है, वह अपनी जगह खुद बनाती जाती है। उपनिवेश खत्म होने के बाद पोस्ट कोलोनियल सोसाइटी से अंगरेजी क्यों नहीं खत्म हो गई? उल्टे उसका और ज्यादा विस्तार हुआ। पश्चिम से सारी सैद्धांतिक और राजनीतिक असहमतियों के बावजूद चीनी लोग क्यों अंगरेजी सीखने में जुटे पड़े हैं?

हिंदी को भारत या विश्व में लोकप्रिय बनाने में हमारे साहित्य का कोई योगदान नहीं है बल्कि उस अपसंस्कृति का है, जिसे हिंदी के लेखक रात-दिन पानी पी-पीकर कोसते हैं। सिनेमा और फिल्मी गीतों ने हिंदी को ईरान-तूरान तक पहुंचा दिया।

माइक्रोसॉफ्ट, गूगल और यूनीकोड न होता हिंदी सोशल मीडिया में इतना प्रसार नहीं पाता और आज बिहार के किसी कसबे में बैठी लड़की अपने मन की बात इतनी आसानी से अभिव्यक्त न कर पाती।

हिंदी समाज एक आत्ममुग्ध समाज है, हिंदी के कवियों से ज्यादा हेय समझे जाने वाले फिल्मी गीतकारों ने इस भाषा का भला किया है। हां, विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले, पत्रकारिता करने वाले और अफसर कवियों ने एक काम जरूर किया कि हिंदी कविता से युवाओं और पाठकों को पूरी तरह से विमुख कर दिया।  

कुल मिलाकर भाषा जटिल सामाजिक अंतर्संबंधों से ही उपजेगी और उसी के बीच अपना आकार लेगी। जब तक हिंदी को थोपा जाता रहेगा, वह बनावट वाली भाषा बनी रहेगी। 

(दिनेश श्रीनेत्र द्वारा अपनी एक पोस्ट पर लिखी टिप्पणी का संशोधित रूप)

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