क्या ‘काम’ बोलने का मतलब है जो कुछ बेचने लायक सामान/सेवा का काम है? दरअसल जिंदगी और समाज चलने के लिए तो और बहुत सारे काम करने पड़ते है, जिसका एक हिस्सा है ‘घर-का-काम’।
मई दिवस और आठ घंटा काम की मांग, मज़दूर वर्ग के संघर्ष की विरासत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। मगर जब हम ‘आठ घंटा काम’ की मांग करते हैं तो वो क्या आठ घंटा बाहर जा कर किसी फैक्ट्री या ऑफिस में मज़दूरी करने की बात करते हैं?
क्या ‘काम’ बोलने से हम उसको ही देखते हैं जो कुछ बेचने लायक सामान/सेवा का काम है। दरअसल जिंदगी और समाज चलने के लिए तो और बहुत सारे काम करने पड़ते है, जिसका एक हिस्सा है ‘घर-का-काम’।
ज्यादातर महिलाओं की जिंदगी में ये ‘घर-का-काम’ सुबह से रात को सोने से पहले तक चलता रहता है। और यह हाड़तोड़ मेहनत है जिसका ना निश्चित कोई समय होता है, ना उचित मूल्य, ना रहती है मान्यता। वैसे ज्यादातर महिलाएं, जिनको ऐसे देखा जाता है की वो बस घर-का-काम करती है, वो भी खेत में काम के साथ, जंगल से संग्रह के काम में या घर में ही उद्योग के काम का कोई न कोई हिस्सा करती रहती हैं।
लेकिन उनके इस काम को भी अक्सर ‘दूसरों के काम में मदद करना’ के हिसाब से देखा जाता है। कुल मिलाके, घर-का-काम या किताबी भाषा में ‘पुनरुत्पादक श्रम’ को हम कैसे देखते हैं, और मज़दूर आंदोलन में वो प्रश्न हमारे लिए क्या महत्य रखता है; मई-दिवस पर आठ घंटा काम की मांग उठाते समय उसमे हमे और गहराई से सोचना पड़ेगा।
अंतरास्ट्रीय श्रम संस्था की गिनती के अनुसार औसत दिन में महिला को पुरुष से ज्यादा समय काम पर लगे रहना पड़ता है। फैक्ट्री या ऑफिस में कम मज़दूरी मिलना, काम के घंटों में बढ़ोतरी, पेंशन आदि सामाजिक सुरक्षा का ना मिलना, मजदूरों के हित में श्रम-कानून ना रहना यह सारा एक तरफ महिला मजदूरों का जिंदगी को बदतर कर रही है।
दूसरी तरफ, महंगाई की मार, स्कूल और अस्पताल के सरकारी ढांचे पर हमला होते रहना, बच्चे या बुजुर्ग की देखभाल का कोई सामाजिक बंदोबस्त ना रहना; पर्यावरण के संकट की वजह से हाशिये पर रहने वाली जनता की जिंदगी का और कठिन बन जाना – इन सारी चीजों का प्रभाव मेहनतकश महिला की जिंदगी में भारी है।
घरेलू कामगार हिस्से के लिए ‘घर-का-काम’ ही उनका भुगतान का काम भी है और उनका अपने घर को चलने का जरुरी लेकिन गैर भुगतान वाला काम भी है। इस काम का ना सही वेतन मिलता है, न कोई मर्यादा।
किताबी परिभाषा में इनको ‘घरेलू कामगार’ बोला जाए, या आम जिंदगी में ‘कामवाली-बाई’; इनको देखने का नजरिया समाज में अभी भी ‘नौकर’ ही है। सरकार द्वारा भी उनके लिए कोई ठीक से कानून नहीं बनाया गया है ताकि उनके काम को क़ानूनी सुरक्षा मिले।
घरेलू कामगारों की तरफ से अपने मालिक के प्रति कोई भी जायज मांग उठाने को ज्यादातर मालिक आज भी ऐसे देखता हैं की – नौकर अपनी औकात से आगे जा रहा है, हम खुशी से उनको जो दे रहे हैं, उसमे संतुस्ट नहीं हो रहा है। मतलब, यहाँ काम की स्थिति मालिक और मज़दूर के औपचारिक रिश्ते से बहुत दूर है।
अगर हम आठ घंटों में उत्पादन और पुनरुत्पादन दोनों काम मिला कर हिसाब करें; मतलब तथाकथित घर-का-काम को आठ घंटा के काम में भी गिने; तो हमारे देखने का नजरिया काफी बदल जायेगा।
एक तरफ तो समाज का ढांचा ऐसे ढालना पड़ेगा ताकि ‘घर-का-काम’ में पुरुष और महिलाओं की बराबर की भागीदारी हो; और दूसरी तरफ ‘घर-का-काम’ का काफी सारे हिस्से का सामाजिकीकरण हो, ताकि बच्चे या बुज़ुर्ग की देखभाल का काम या नागरिकों की शिक्षा-स्वस्थ की जिम्मेदारी निजी/पारिवारिक होकर ना रहे जाए और उसमे समाज और राज्य की भागीदारी बनाया जाए।
पितृसत्ता और पूंजीवाद दोनों ही क्यूंकी पुनरुत्पादन के श्रम को अदृश्य बनाके और उसका अधोमूल्यन के ऊपर टिके है, तो उसके साथ टकराव के बिना ऐसा समाज बनाना संभव नहीं है, जिसमे महिलाओं के काम को उचित मूल्य और सम्मान मिले और पूरी मेहनतकश जनता को मुक्ति मिले।
‘संघर्षरत मेहनतकश’ पत्रिका अंक-49 (अप्रैल-जून, 2023) में प्रकाशित