श्रीदेव सुमन: जिन्होंने राजशाही और अंग्रेजों के खिलाफ 84 दिन जेल में अनशन कर बलिदान दिया

ऐसे समय में जब इतिहास को विस्मृत और विकृत किया जा रहा है, क्रांतिकारी सपूतों को भुलाने की कोशिशें चल रही हैं, तब श्रीदेव सुमन को याद करना, प्रेरणा लेना और जरूरी हो गया है।
देश में आज़ादी की लड़ाई का वह निर्णायक दौर था, जब पूरे देश में ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का नारा बुलंद था। ठीक यही समय था जब टिहरी रियासत की जनता दोहरी लड़ाई लड़ रही थी- एक अंग्रेजों से दूसरी रियासत के राजा के खिलाफ़। इस लड़ाई का नेतृत्व कर रहे थे श्रीदेव सुमन।
त्याग व संघर्ष की मिसाल श्रीदेव सुमन से देशवासी बहुत कम परिचित हैं। श्रीदेव सुमन द्वारा टिहरी रियासत के खिलाफ किए गये संघर्ष ने टिहरी रियासत की चूलें हिला दी थीं।
दरअसल, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अधीन पूरे देश में यही स्थिति थी। औपनिवेशिक गुलामी की दासता और सामंत रजवाड़ों की गुलामी। देश की जनता दोनों प्रकार के क्रूर दमन और शोषण से जूझ रही थी, लड़ रही थी, कुर्बानियाँ दे रही थी। इस ऐतिहासिक आंदोलन ने सैकड़ों वीर सपूत पैदा हुए और शहादतें दीं। इनमें ही एक सपूत थे उत्तराखंड के टिहरी में जन्में श्रीदेव सुमन।
त्याग व संघर्ष की मिसाल श्रीदेव सुमन से आम जनता बहुत कम परिचित हैं। श्रीदेव सुमन द्वारा टिहरी रियासत के खिलाफ किए गये संघर्ष ने टिहरी रियासत की चूलें हिला दी थीं। 84 दिनों तक जेल के भीतर आमरण अनशन करते हुए उन्होंने 25 जुलाई, 1944 को अपने प्राण त्याग दिये। परन्तु टिहरी के राजा के सामने हार नहीं मानी और मरते दम तक अपना संघर्ष जारी रखा।
“हाँ, मैंने प्रजा के खिलाफ लागू काले कानूनों और नीतियों का हमेशा विरोध किया है। मैं इसे प्रजा का जन्मसिद्ध अधिकार मानता हूँ।” –श्रीदेव सुमन
राजशाही के अत्याचार का विकट दौर
आजादी से पूर्व टिहरी राज्य की जनता न केवल अंग्रेजी हुकूमत बल्कि टिहरी की राजशाही से भी बुरी तरह त्रस्त थी। रियासत के महाराजा बद्रीनाथ का अवतार माने जाते थे। उनके अन्याय के विरोध में समय पर रियासत के लोगों ने जन आन्दोलन किये, जिनको स्थानीय भाषा में ढंडक कहा जाता था।
टिहरी के शासक राजाओं के अत्याचारों की अथक कहानी है। राजा पुल पर चलने के लिए भी जनता से झूलिया वसूलता था। बहू-बेटी का विवाह होने पर सुप्पु स्योन्दी कर वसूला जाता था। टिहरी की जनता जहाँ बेहद अभाव में रहती थी, वहीं राज महलों में धन दौलत का अम्बार लगा रहता था।
जनता को भयभीत रखने के लिए राजा द्वारा फांसी की सजा खुले में सेमल के तप्पड़ पर दिये जाने की प्रथा थी। लोग बताते हैं कि राजशाही के खिलाफ गीतों को रचने वाले एक कवि को भी राजा ने मरवा दिया तथा प्रचारित कर दिया कि उसे परियां उठा ले गयीं हैं।
टिहरी राज्य में वन जीविकोपार्जन का महत्वपूर्ण साधन था। जनता जंगलों से घास, लकड़ी आदि अपनी जरूरत की वस्तुएं प्राप्त करती थी, वन उपज पर कई सारे कुटीर उद्योग भी निर्भर थे।
1928-29 में टिहरी के राजा नरेन्द्र ने अग्रंजों की शह व सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर जंगलों की हदबंदी कर दी तथा जनता के पशु चराने, लकड़ी, घास लाने के सभी अधिकार समाप्त कर दिए।
संघर्ष: जब जमुना का पानी शहीदों के रक्त से लाल हुआ
हदबंदी से आक्रोशित टिहरी की जनता रियासत के खिलाफ संघर्ष में उतर पड़ी। संघर्ष को कुचलने के लिए राजा की फौज ने 30 मई, 1930 को रवाई परगना के अंर्तगत तिलाड़ी के मैदान में वार्ता के लिए एकत्र निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी जिसमें दर्जनों लोग शहीद हुए।
जान बचाने के लिए लोग जमुना नदी में कूदे। जमुना का पानी भी शहीदों के रक्त से लाल हो गया। टिहरी के लोग इसे टिहरी के जलियाबाला बाग कांड के नाम से जानते हैं।
जनआन्दोलन के दौर में पैदा हुए थे श्रीदेव सुमन
टिहरी रियासत के अन्याय के विरोध में होने वाले ढंडकों (जनआंदोलनों) के बीच 25 मई 1915 को श्रीदेव सुमन का जन्म टिहरी गढ़वाल के जौल गांव में हुआ। तारा देवी और हरीराम बडोनी के परिवार में जन्मे श्रीदेव सुमन के दो भाई और एक बहिन थे। श्रीदेव सुमन तीन बरस के थे जब उनके पिता की मृत्यु हैजा से हो गयी। इसके बाद परिवार का लालन-पालन उनकी माता ने ही किया।
श्रीदेव सुमन की प्रारम्भिक शिक्षा अपने गांव और चम्बाखाल में हुई। वह पहली बार जेल सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान गये थे। दोस्तों की सहायता से उन्होंने दिल्ली में देवनागरी महाविद्यालय की स्थापना भी की। उन्होंने 1937 में दिल्ली में गढ़देश सेवा संघ की स्थापना में प्रमुख भूमिका निभाई, जो बाद में हिमालय सेवा संघ कहलाया। 1938 में उनका विवाह विनय लक्ष्मी के साथ हुआ।
संघर्ष का नया दौर: टिहरी राज्य प्रजा मंडल की स्थापना
1938 में कांग्रेस के गुजरात के हरिपुर अधिवेशन में जन अधिकारों के संघर्ष के लिए प्रजा मंडलों के गठन के निर्णय बना। इसी कड़ी में 23 जनवरी, 1939 को देहरादून में टिहरी राज्य प्रजा मंडल की स्थापना हुई और श्रीदेव सुमन को इसकी कमान सौंपकर सचिव बनाया गया।
प्रजा मंडल ने राजा नरेन्द्र देव के समक्ष पौण टोटी कर खत्म करने, बरा बेगार बंद करने, राज्य में उत्तरदायी शासन स्थापित करने आदि मांगे रखीं। परन्तु राजा ने इसके खिलाफ आंदोलन के दमन का रास्ता अख्तियार किया।
इसी दरमियान 1942 में देश में ब्रिटिश हुक्मरानों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो गया। इसका असर टिहरी की जनता पर भी था। जनता इस आंदोलन में बढ़—चढ़कर भागीदारी करने लगी।
29 अगस्त, 1942 को श्रीदेव सुमन जैसे ही देव प्रयाग पहुंचे उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। कुछ दिन मुनी की रेती व देहरादून जेल में रखने के बाद उन्हें आगरा जेल में 15 महीनों तक नजरबंद रखा गया। नबम्वर 1943 में श्रीदेव सुमन रिहा हुए।
1943 में जब वे आगरा जेल से छूटे तो उन्होंने टिहरी में नागरिकों के अधिकारों की मांग और अधिक मुखर कर दी परिणामस्वरूप उन्हें दिसंबर 1943 को टिहरी जेल भेज दिया गया। अपने जीवन के अंतिम 209 दिन उन्होंने इसी जेल में बिताये।
टिहरी जेल कैदियों को यातनाएं देने के लिये बेहद कुख्यात थी। श्रीदेव सुमन को लोहे की भारी जंजीरों से जकड़ कर, टिहरी जेल के बार्ड नं. 8 में बंद कर दिया गया। वहां उन्हें तरह—तरह की यातनाएं दी गयीं। जिस फर्श वे सोते थे, उसे गीला कर दिया जाता। खाने की रोटियों में भूसा व रेत मिला दिया जाता था। उन पर माफी मांगने के लिए दबाव बनाया गया। लेकिन उन्होंने अपना विरोध जारी रखा।
उन पर फर्जी मुकदमे थोपे गए। प्रजामंडल का संचालक होने के नाते उन पर टिहरी शासन के खिलाफ घृणा, द्वेष व विद्रोह फैलाने का अभियोग चलाया गया। 31 जनवरी 1944 को उन्हें दो साल के कारावास और 200 रुपये जुर्माने की सजा सुनाई गयी।
श्रीदेव सुमन की माँगों पर झूठा आश्वासन, ज्यादती बढ़ी
श्रीदेव सुमन ने जेल में जनता के हक़ में कई माँगें उठाईं, जिनमें प्रजा मंडल को पंजीकृत करवाने व अपने लिए कपड़ों व किताबें आदि उपलब्ध कराए जाने आदि माँगें शामिल थीं।
उन्होंने पन्द्रह दिनों के भीतर मांग पूरी न होने पर आमरण अनशन पर जाने की बात कही। अंततः 15 दिन तक मांगों पर कोई कार्यवाही न होने पर उन्होंने आमरण अनशन शुरू किया। तमाम अत्याचारों के बावजूद अंतिम समय तक वे अपनी मांग पर अडिग रहे।
अनशन के 21 दिन बाद जेल प्रशासन ने माँगों के समाधान के लिए आश्वासन दिया लेकिन मांगों के समाधान की जगह जेल प्रशासन ने उनके साथ सख्त रवैया अख्तियार कर लिया। उन्हें कागज कलम की जगह बेतों की मार पड़ने लगी। उन्होंने निर्भीकता के साथ कहा कि मेरी तीन मांगें महाराज तक पहुंचा दो, अन्यथा 15 दिनों के बाद मुझे जेल के भीतर पुनः आमरण अनशन प्रारम्भ करना पड़ेगा।
श्रीदेव सुमन की तीन माँगें-
- प्रजामण्डल को रजिस्टर्ड करके, राज्य के अन्दर सेवा करने का मौका दिया जाये;
- झूठे मुकद्दमें की अपील स्वयं महाराज जी सुने;
- मुझे पत्र-व्यवहार करने आदि सुविधाएं दी जाये।
हक़ के लिए 84 दिन का आमरण अनशन
उनकी मांगों पर कोई भी सुनवाई नहीं हुई। 3 मई, 1944 को टिहरी जेल में श्रीदेव सुमन ने अपना ऐतिहासिक आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया। उनका अनशन तोड़ने के लिए तरह-तरह के जुल्म ढाए गए, उनकी नियमित पिटाई कर उनके पैरों में बेड़िया डाल दी गयीं।
अनशन के दौरान जेल के भीतर कई बार मजिस्ट्रेट, डॉक्टर व जेल मंत्री ने श्रीदेव सुमन से अनशन तोड़ने की कवायद की। अनशन के 48 वें दिन राज्य के जेल मंत्री डाक्टर बैलीराम ने जेल में आकर उनसे अनशन तोड़ने की अपील की तथा आश्वासन दिया कि वे महाराज से मिलकर स्वयं उनकी मांगों को मंजूर करवाने का प्रयास करेंगे।
अपनी माँगों पर रहे अटल
श्रीदेव सुमन पहले भी झूठे आश्वासन में आकर अनशन तोड़ चुके थे। इस बार उन्होंने मांगे माने जाने के बगैर अनशन समाप्त करने से इंकार कर दिया। श्रीदेव सुमन दिल में देश प्रेम का जज्बा लिए टिहरी जेल में तिल-तिलकर अपना शरीर नष्ट कर रहे थे।
परन्तु टिहरी राजशाही उनकी मांगों पर विचार करने की जगह झूठी खबर का प्रचार कर रही थी कि श्रीदेव सुमन ने अनशन तोड़ दिया है। श्रीदेव सुमन को आश्वासन दिया गया कि 4 अगस्त को महाराजा के जन्मदिन पर उन्हें रिहा किया जायेगा।
श्रीदेव सुमन ने पूछा कि क्या महाराज ने प्रजामंडल को पंजीकृत कर उन्हें राज्य में सेवा करने की आज्ञा दे दी है, उनका अनशन रिहाई के लिए नहीं है।
कष्ट और सत्ता की हठधर्मिता के बीच शरीर त्याग दिया
अनशन तोड़ने के लिये जेल प्रशासन ने खूब सारे अमानवीय प्रयास किये। 20 जुलाई की रात से श्रीदेव सुमन को बेहोशी आने लगी। जेल प्रशासन ने उनके शरीर में गर्मी पैदा करने के नाम पर उन्हे कुनैन के इंजैक्शन लगाने शुरू कर दिये।
इन सबके बीच 25 जुलाई, 1944 की शाम लगभग 4 बजे जेल की काल कोठरी में अमर बलिदानी श्रीदेव सुमन ने अंतिम सांस ली। वे अपना बलिदान देकर अमर सेनानियों में शामिल हो गए।
पार्थिव शरीर को चोरी से बहा दिया
श्रीदेव सुमन के निधन की खबर भी प्रशासन दबा गया। रात के अंधेरे में जेल प्रशासन ने कंबल में लपेटकर उनका पार्थिव शरीर निकाला और भागीरथी-भिलंगना के संगम में चोरी-छुपे बहा दिया। सत्ता को उम्मीद थी कि इस आवाज के गुम हो जाने के बाद लोग दर जाएं गए और क्रूर राजशाही व अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ कोई बोलने की जुर्रत भी नहीं करेगा।
संघर्ष की मशाल जलती रही
श्रीदेव सुमन की शहादत के बाद टिहरी में राजशाही के खिलाफ संघर्ष और भी तेज हो गये। 1947 में भारत से अंग्रेजों के चले जाने के बावजूद भी टिहरी रियासत का अस्तित्व बना हुआ था। जनता ने राजशाही की समाप्ति व टिहरी रियासत के भारत में विलय को लेकर संघर्ष तेज कर दिये।
श्रीदेव सुमन का यह बलिदान देश की आजादी और टिहरी राजशाही के खिलाफ बाद के स्वाधीनता सेनानियों के लिए प्रेरणा का श्रोत भी बना रहा। यह टिहरी की राजशाही के अंत का कारण बना।
श्री देव सुमन का जीवन जुल्मी शासकों के खिलाफ अनवरत संघर्ष का प्रतीक है। उनका संघर्ष अपने दौर का अभूतपूर्व संघर्ष है। एक ऐसे समय में जब इतिहास को विस्मृत और विकृत किया जा रहा है, अपने वीर क्रांतिकारी सपूतों को भुलाने की कोशिशें चल रही हैं, तब श्रीदेव सुमन जैसे अमर शहीदों को याद करना, उनसे प्रेरणा लेना और जरूरी हो गया है।